Monday, December 21, 2009

दुधवा के जंगल




भारत का एक राज्य जो नेपाल की सरहदों को छूता है, उन्ही सरहदों से मिला हुआ एक विशाल जंगल है जिसे दुधवा टाइगर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यह वन उत्तर प्रदेश के खीरी जनपद में स्थित है यहां पहुंचने के लिए लखनऊ से सीतापुर-लखीमपुर-पलिया होते हुए लगभग २५० कि०मी० की दूरी तय करनी होती है। दिल्ली से बरेली फ़िर शाहजहांपुर या पीलीभीत होते हुए इस सुन्दर उपवन तक पहुंचा जा सकता है।
एक फ़रवरी सन १९७७ ईस्वी को दुधवा के जंगलों को नेशनल पार्क का दर्ज़ा हासिल हुआ, और सन १९८७-८८ ईस्वी में टाईगर रिजर्व का। टाईगर रिजर्व बनाने के लिए किशनपुर वन्य जीव विहार को दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में शामिल कर लिया गया । बाद में ६६ वर्ग कि०मी० का बफ़र जोन सन १९९७ ईस्वी में सम्म्लित कर लिया गया, अब इस संरक्षित क्षेत्र का क्षेत्रफ़ल ८८४ वर्ग कि०मी० हो गया है।
इस वन और इसकी वन्य संपदा के संरक्षण की शुरूवात सन १८६० ईस्वी में सर डी०वी० ब्रैन्डिस के आगमन से हुई और सन १८६१ ई० में इस जंगल का ३०३ वर्ग कि०मी० का हिस्सा ब्रिटिश इंडिया सरकार के अन्तर्गत संरक्षित कर दिया गया, बाद में कई खैरीगढ़ स्टेट के जंगलों को भी मिलाकर इस वन को विस्तारित किया गया।
सन १९५८ ई० में १५.९ वर्ग कि०मी० के क्षेत्र को सोनारीपुर सैन्क्चुरी घोषित किया गया, जिसे बाद में सन १९६८ ई० में २१२ वर्ग कि०मी० का विस्तार देकर दुधवा सैन्क्चुरी का दर्ज़ा मिला ये मुख्यता बारासिंहा प्रजाति के संरक्षण को ध्यान में रख कर बनायी गयी थी। तब इस जंगली इलाके को नार्थ-वेस्ट फ़ारेस्ट आफ़ खीरी डिस्ट्रिक्ट के नाम से जाना जाता था किन्तु सन १९३७ में बाकयदा इसे नार्थ खीरी फ़ारेस्ट डिवीजन का खिताब हासिल हुआ।


उस जमाने में यहां बाघ, तेंदुए, गैंड़ा, हाथी, बारासिंहा, चीतल, पाढ़ा, कांकड़, कृष्ण मृग, चौसिंघा, सांभर, नीलगाय, वाइल्ड डाग, भेड़िया, लकड़बग्घा, सियार, लोमड़ी, हिस्पिड हेयर, रैटेल, ब्लैक नेक्ड स्टार्क, वूली नेक्ड स्टार्क, ओपेन बिल्ड स्टार्क, पैन्टेड स्टार्क, बेन्गाल फ़्लोरिकन, पार्क्युपाइन, फ़्लाइंग स्क्वैरल के अतिरिक्त पक्षियों, सरीसृपों, एम्फीबियन, पाइसेज व अर्थोपोड्स की लाखों प्रजातियां निवास करती थी।


कभी जंगली भैसें भी यहां रहते थे जो कि मानव आबादी के दखल से धीरे-धीरे विलुप्त हो गये।  इन भैसों की कभी मौंजूदगी थी इसका प्रमाण वन क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों पालतू मवेशियों के सींघ व माथा देख कर लगा सकते है कि इनमें अपने पूर्वजों का डी०एन०ए० वहीं लक्षण प्रदर्शित कर रहा है।


मगरमच्छ व घड़ियाल भी आप को सुहेली जो जीवन रेखा है इस वन की व शारदा और घाघरा जैसी विशाल नदियों मे दिखाई दे जायेगें। गैन्गेटिक डाल्फिन भी अपना जीवन चक्र इन्ही जंगलॊ से गुजरनें वाली जलधाराओं में पूरा करती है। इनकी मौजूदगी और आक्सीजन के लिए उछल कर जल से ऊपर आने का मंजर रोमांचित कर देता है।
यहां भी एक दुखद बात है कि इन नदियों को खीरी की चीनी मिले धड़ल्ले से प्रदूषित कर रही है जिससे जलीय जीवों की मरने की खबरे अक्सर सुनाई देती है किन्तु अफ़सरों के कानों तक इन मरते हुए दुर्लभ जीवों की कराह नही पहुंचती, शायद इन दर्दनाक ध्वनि तंरगों को सुनने के लिए उनके कान संक्षम नही है जिन्हे इलाज़ की जरूरत है और आखों की भी जो नदियों खुला बहते गन्दे नालों को नही देखपा रही है। प्रदूषण कानून की धज्जियां ऊड़ाते हुए मिलॊं के गन्दे नाले..........!


किन्तु उस समय राजाओं और अंग्रेजों ने अपने अधिकारों के रुतबें में न जाने कितने बाघ, तेन्दुए, हाथी व गैंड़ों को अपने क्रूर खेल यानी अपना शिकार बनाया फ़लस्वरूप दुधवा से गैंड़े व हाथी विलुप्त हो गये, इसके अलावा दोयम दर्ज़े के मांसाहारी जीवों को परमिट देकर मरवाया जाता था, इसका परिणाम ये हुआ कि हमारे इस वन से जंगली कुत्ते विलुप्त हो गये। जंगल के निकट के ग्रामीण बताते है उस दौर में हुकूमत उन्हे चांदी का एक रुपया प्रति जंगली कुत्ता मारने पर पारितोषिक के रूप में देती थी।

परमिट और भी जानवरों को मारने के लिए जारी होता था, उसका नतीजा ये हुआ कि अब  चौसिंघा, कृष्ण मृग, हाथी भी दुधवा से गायब हो चुके है। कभी-कभी हाथियों का झुंड नेपाल से अवश्य आ जाता है खीरी के वनों में,

इन सरकारी फ़रमानों ने और अवैध शिकार ने दुधवा के जंगलों की जैवविविधिता को नष्ट करने में कोई कसर नही छोड़ी, लेकिन मुल्क आज़ाद होते ही सरकारी शिकारियों का भी अन्त हो गया और तमाम अहिंसावादियों ने जीव संरक्षण की मुहिम छेड़ दी नतीजतन खीरी के जंगलों को प्रोटेक्टेड एरिया के अन्तर्गत शामिल कर लिया गया और प्रकृति ने फ़िर अपने आप को सन्तुलित करने की कवायद शुरू कर दी।

अफ़सोस मगर इस बात का है कि आज़ भी अवैध शिकार, जंगलों की कटाई, और मानव के जंगलों में बढ़ते अनुचित व कलुषित कदम हमारे जंगलों को बदरंग करते जा रहे है।




पक्षियों की लगभग ४०० प्रजातियां इस जंगल में निवास करती है, हिरनों की प्रज़ातियां, रेप्टाइल्स, मछलियों की और बाघ, तेन्दुए, और १९८४-८५ ई० में पुनर्वासित किए गये गैन्डें अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे है, लालची मानव प्रजाति से।


दुधवा के डाक बंग्लों जिनमें सोनारीपुर, सलूकापुर, सठियाना, चंदन चौकी, किला घने जंगलों के मध्य अपनी ब्रिटिश-भारतीय शैली की बनावट की सुन्दरता से किसी का भी मन मोह ले।


इतने झंझावातों के बावजूद दुधवा की अतुल्य वन्य संपदा जिसका एक भी हिस्से का अध्ययन नही हो पाया है ढ़ग से, उस सुरम्य प्राकृतिक वन को देखकर किसी का भी ह्रदय पुलकित हो उठेगा।


कृष्ण कुमार मिश्र
७७-शिव कालोनी लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश, भारत

Wednesday, December 9, 2009

राहुल गांधी और दुधवा नेशनल पार्क, क्या रिस्ता है इनमें!


92 वर्ष की बूढ़ी आखें जिन्हे कही न कही अपेक्षा थी कि राहुल गांधी उनकी आखों से देखेंगे हाल दुधवा का और सुनेंगे उन समस्याओं को जिनसे दुधवा के जीव संघर्ष कर रहे है अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए।

ये कोई साधारण व्यक्ति की आंखे नही है, इन नज़रों में ६० वर्षों का वन्य-जीवन पर गज़ब का अनुभव हैं, इन्होंने ही आज़ादी के बाद एक दसक तक हुए अन्धाधुन्ध कटान से चिन्तित हो कर, टाइगर, लेपर्ड, हिरन, और अन्य प्रजातियों के आवासों को सुरक्षित करने की मुहिम चलाई, नतीजतन आज इन वनों का विशाल हिस्सा दुधवा टाइगर रिजर्व के रूप में मौजूद है। उनकी इन मुहिमों में श्रीमती इन्दिरा गांधी का अतुलनीय सहयोग रहा, जो उस वक्त भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री थी।
दुनिया इन्हे बिली अर्जन सिंह के नाम से पहचानती है। इन्हे पदम श्री, पदम भूषण, पाल गेटी (पर्यावरण के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार की तरह हैसियत रखता है), और तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है।

इनकी तमाम किताबें पूरी दुनिया को हमारे खीरी जनपद व दुधवा के जंगलों की रोचक कहानी सुनाती है और इन्ही किताबों ने  दुनिया की नज़र में, पूरे भारत वर्ष में इस क्षेत्र को एक विशिष्ठ जगह का दर्ज़ा हासिल करवाया है ।

राहुल गांधी की यह यात्रा सियासी जरूर थी किन्तु वह जिस तरह की हैसियत इस मुल्क में रखते है, उससे लाज़मी है कि उनसे यह आशा की जाए कि वह अपनी दादी और पिता की तरह वनों और उसके बाशिन्दों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे।

बिली ने  इस बार राहुल को पत्र लिखवाया था कि वह दुधवा के बाघों और उनके आवासों यानी जंगलों की समस्याओं के लिए कोई कदम उठाए, लेकिन राहुल गांधी की पलिया में मौजूदगी के बावजूद उन्होंने न तो दुधवा की बात की और न ही उनमें बसने वाले जानवरों की। जो कि अपेक्षित थी!

क्या खीरी के पलिया कस्बे में आकर वहां से चन्द कदमों पर स्थित दुधवा नेशनल पार्क के हालातों का जायजा लेना आप की जिम्मेदारी नही?
क्या जनाब को दुधवा के बाघों का हाल नही जानना चाहिए था, क्या बिली अर्जन सिंह जैसे महान लेखक, वन्य-जीव संरक्षक से विचार-विमर्श नही करना था?
सात दिसम्बर २००९ वक्त तकरीबन शाम के ४ बजे,  पलिया हवाई अड्डे पर  सांसद राहुल गांधी का चार्टर प्लेन उतरा, आप ने पलिया में सभायें की जिसमें युवाओ और किसानों को संबोधित किया, कांग्रेस में युवाओं की भागेदारी अधिक से अधिक सुनश्चित की जाय, बस सारी कवायदें इसी बात की थी।

अब सवाल ये है कि राहुल गांधी खीरी जनपद के जिस भूभाग पर ये सभायें कर रहे थे उसी धरती पर भारत की जैवसंपदा का खज़ाना यानी दुधवा टाइगर रिज़र्व मौजूद है, जिसमें करोड़ों जीव अपनी ईह-लीला जारी रखे हुए है, उनमें भी जीवन है, वो भी अपना और अपनी संतति का भरण-पोषण करते हैं, वो भी इस धरती के लिए उतना ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि मनुष्य, बल्कि उससे भी अधिक, किन्तु मानव और उनमे बस फ़र्क इतना है कि वो  सब भारत निर्वाचन विभाग में सूचीबद्ध नही हैं, लिहाज़ा वो मताधिकार का प्रयोग नही कर सकते, और यही कारण रहा कि राहुल गांधी ने धरती के उन महत्वपूर्ण जीवों के बावत कोई बात नही की और न ही उनका हाल जानने और देखने की जहमत उठाई।

यहां ये गौरतलब हैं कि आप की दादी श्रीमती इन्दिरा गांधी ने खीरी के इन जंगलों को संरक्षित क्षेत्र का खिताब दिलाया और फ़रवरी १९७७ ईस्वी में दुधवा नेशनल पार्क का उदभव हुआ। बाद में सन १९८८ई० में खीरी के अन्य वन-श्रखंलाओं को जोड़कर इसे और विस्तृत दुधवा टाइगर रिजर्व में तब्दील किया गया।

कपूरथला रियासत के राजकुमार पदमभूषण (मेज़र) श्री बिली अर्जन सिंह जो भारत के एकमात्र वन्य-जीव संरक्षक है जिनके बारे में ये कहा जा सकता है कि पूरे देश में टाइगर संरक्षण के क्षेत्र में कोई व्यक्ति उनके समकक्ष नही है। इन्ही के प्रयासो से श्रीमती गांधी  इन जंगलों और उनमें रहने वाले जीवों से परिचित हुई, और बिली को प्रोत्साहन और मदद देती रही उनके तमाम वन्य-जीव सरंक्षण सम्बन्धी प्रयोगों में।



बिली अर्जन सिंह इंडियन बोर्ड फ़ार वाइल्ड लाइफ़ के मेंबर भी रहे और दुधवा के जंगलों के मुद्दे जोरदार ढ़ग से उठाए, यहां तक एक मीटिंग के दौरान उन्होने मैडम प्राइमिनस्टर से ये तक कह डाला कि वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्सन आप के लिए सिर्फ़ स्कीम हो सकती है..............................।

सन १९७० में आई०यू०सी०एन० और डब्ल्यू०डब्ल्यू०एफ़० की सयुंक्त मीटिंग हुई जिसमें एक मिलियन डालर भारत को टाइगर संरक्षण के लिए प्रदान किए जाने की बात हुई, तभी श्रीमती गांधी ने एक टास्क फ़ोर्स का गठन कर भारत के नौ वन क्षेत्रों की पहचान व अध्ययन करने के निर्देश दिए ये टास्क फ़ोर्स का प्रमुख महाराजा काश्मीर के पुत्र डा० करन सिंह को बनाया गया जो तब भारत के पर्यटक मन्त्री व वाइल्ड लाइफ़ बोर्ड के चेयरमैन थे।
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अर्जन सिंह को दो तेंदुए  जूलिएट और हैरिएट प्रदत्त करवाए और इस आशा के साथ कि बिली के प्रयोगों से अनाथ हो चुके शावक या चिड़िया घरों के शावक दोबारा अपने प्राकृतिक माहौल में रहने के काबिल हो सकेंगें।  और ऐसा हुआ भी बिली ने इससे पूर्व श्रीमती एन राइट (ट्रस्टी डब्ल्यू० डब्ल्यू०एफ़०) द्वारा दिए गये तेंदुआ शावक प्रिन्स को पाला और वह जंगली माहौल में रहने के काबिल हो गया था।

इन प्रयोगों की सफ़लता के बाद श्रीमती गांधी से बाघ शावक को ट्रेंड कर जंगल में रहने के काबिल बनाने के प्रोजेक्ट शुरू करने की इच्छा जाहिर की, जिसे उन्होने माना और बिली लन्दन से एक बाघिन शावक लेकर अपने टाइगर हावेन (बिली का प्राइवेट फ़ारेस्ट) ले आये। इस बाघिन के साथ इनका प्रयोग भी सफ़ल रहा और दुधवा में इस बाघिन की पीढ़ियां मौजूद हैं।

सन १९७२ ई० में जब टाइगर हावेन, खीरी में मैडम प्राइमिनिस्टर के आने की संभावना हूई तो बिली ने अपने टाइगर हावेन के निवास को संसोधित किया, जैसे इंग्लैड में पुराने घरों में एक अलग अट्टालिका बनाई जाती थी जब वहां की महारानी किसी नागरिक के घर स्वंम आकर उसे सम्मानित करती थी।

सन १९८५ ई० में भी राजीव गांधी के आने की प्रबल संभावना थी क्योंकि बिली के प्रयासों से इस बार इंडियन बोर्ड फ़ार वाइल्ड लाइफ़ की बैठक दुधवा में आयोजित होने वाली थी किन्तु सिख-आंतकवाद के चलते वह बैठक रद्द कर दी गई, इस तरह हमारा दुधवा दो-दो बार प्रधानमंत्रियों की उपस्थित से वंचित रह गया।

दुधवा के पूर्व निदेशक व टाइगर हावेन के अधिकारी जी०सी० मिश्र ने बताया कि उन्होंने बिली के हवाले से राहुल गांधी को दुधवा की कथा-व्यथा के संदर्भ में पत्र लिखा पर उसका कोई जबाव नही आया, इसके बाद उन्होने श्रीमती सोनिया गांधी को राहुल को भेजे पत्र का जिक्र करते हुए लिखा, इस बार जबाव आया और उसमे लिखा यह था कि इस संदर्भ में वो राहुल गांधी से बात करेगीं और उनके द्वारा आप को अवश्य जबाव दिया जाएगा किन्तु फ़िर कोई खत नही आया, राहुल गांधी की तरफ़ से।
खीरी जनपद में इस बार आई बाढ़ ने सिर्फ़ मनुष्यों को बेहाल नही किया जानवर भी पीड़ित है इस प्राकृतिक विभीषिका से।

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिस पंरपरा के लोगों ने खीरी के जंगलों को अस्तित्व प्रदान किया, १९७२ ई० में वाइल्ड लाइफ़ एक्ट बनवाया, पर्यावरण मंत्रालय की शुरूवात की, उसी परंपरा के लोग इन वनों को और उनमें रहने वाले जीवों को नज़रदाज कर रहे हैं।

जो लोग इस देश को चलाने का दम भरते है क्या उनकी जिम्मेदारी उस देश के भूभाग पर रहने वाले मनुष्यों के प्रति ही है! उन लाखों-करोड़ों प्रज़ातियों के प्रति नही जिनके बिना मनुष्य का अस्तित्व इस धरती पर सम्भव ही नही।

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारत

Friday, November 13, 2009

यह सुन्दर रचना करने वाला कौन है?


इस रचना का रचनाकार कौन?


एक रात जब मेरी उंगलियां कीबोर्ड पर जिमनास्टिक कर रही थी तभी मुझे इस अंधेरी रात में एक अपरिचित सी तेज़ आवाज सुनाई दी .........कुछ समय सन्नाटा और फ़िर वही आवाज, मैने कमरे से बाहर झांक कर देखा पर कुछ मालूम नही कर सका । किन्तु अब ये आवाज रह-रह कर तेज़ हो रही थी आखिर में मैने तय कर लिया कि अन्वेषण पूरा करना है अगल-बगल के कमरों की तलाशी ली, स्म्पूर्ण घर के अवलोकन के बाद बाथरूम के दरवाजे पर एक छोटा सा सुन्दर प्राणी दिखा जो खालिश हरे रंग का था । उससे मेरा पहले से परिचय था और जब उसे देखा था अपने जीवन में पहली बार तो कौतूहल की स्थित थी एक महीना पहले मदार के पौधे पर वृक्ष कहू तो भी अनुचित नही है ! ये प्राणी ऐसा लग रहा था जैसे किसी दूसरी दुनिया से आया हो, पत्तियों जैसा रंग और पत्तियों जैसे हरे पंख जिनमे शिरायें भी पत्ती की तरह चमक रही थी, प्रकृति का अतुल्य निर्माण, मुझे ऐसा लगा कि इस अदभुत जीव को किसने बनाया होगा और वह कितना अदभुत होगा? यहां मै रूमानी हो गया और ईश्वरवादी भी।

Who creates it ? This is God, This is Mother Nature !

मदार की हरी पत्तियों के मध्य मुझे अचानक इस धरती के एक और रत्न से परिचय हुआ, अपने Analogue SLR camera जिसमें Sigma का 300 mm Zoom lens है से तस्वीरे खींची और सोचा Negative print आ जाने पर इसको आईडेन्टीफ़ाई करूगां नही होगा तो तो अपने अन्य जीवविज्ञानी मित्रों से मदद लूंगा । किन्तु बात आई गयी हो गई।

आज जब इस अदभुत और इसकी पराग्रही सी लगने वाली आवाज ने मुझे और रोमान्टिक कर दिया फ़िर क्या था इस जीव से मेरा प्रेम और बढ़ा और इसी रात मैने इस रहस्य को जान लिया कि आखिर ये कौन है! लेकिन इसके बनाने वाले का पता नही चल सका ? यदि आप सब को कोई जानकारी मिले इस वाबत तो मुझे जरूर सूचित करे ।

एक जीवविज्ञानी होने के नाते इसका वैज्ञानिक परिचय भी दिये देता हूं।

 कैटीडिड (माइक्रोसेन्ट्रम रेटीनेर्व)

इसे अमेरिका में कैटीडिड् के नाम से पुकारते है। और ब्रिटिश शब्दावली में बुश-क्रिकेट के नाम से पहचाना जाता है । यह टैटीगोनीडी परिवार से ताल्लुक रखता है और इस परिवार का दायरा इतना बड़ा है कि इसमें 64000 से ज्यादा प्रजातियां मौजूद है। वैसे इसको इन्सानी दुनिया में एक और नाम से बुलाते है "लान्ग हार्न्ड-ग्रासहापर किन्तु वास्तव में य जीव क्रिकेट से अत्यधिक नजदीक है बजाय ग्रासहापर के।

यह जीव और इसके रिस्तेदार मौका और हालात के मुताबिक अपनी रंग-रूप को ढ़ालने की क्षमता रखते है जैसे हरी पत्तियों के मध्य हरे, सूखे पत्तो के मध्य खाकी रंग के रूप में प्रगट हो जाते है है न जादूगर जैसा, पर बात फ़िर वही अटक गयी इसे बनाने वाला कितना बड़ा जादूगर होगा?

हां एक और बात यह जीव नर था। अब आप सोचेगे ये कैसे! दरअसल इस परिवार के नर ही इस अदभुत आवाज़ को निकालने की क्षमता रखते है । यह ध्वनि स्ट्रीडुलेशन अंगों द्वारा की जाती है और यह अंग नर में ही मौजूद होते है। इस परिवार की कुछ प्रजातियों की मादाओं में भी ये ध्वनि करने वाले अंग होते है।

हां यह परिवार ग्रासहापर से यूम अलग हुआ, कि इसके एन्टीना लम्बे लगभग शरीर की लम्बाई के मुताबिक व पतले होते है जबकि ग्रासहापेर में मोटे और छोटे।

टेरोफ़ाइला जीनस (पत्ती की तरह पंख वाला) में कैटीडिड्स शब्द  इस जीव की ध्वनि उत्पन्न करने की क्षमता की वजह से अमेरिका में प्रचलित हुआ, इसमें स्ट्रीडुलेशन अंग इस जीव की पीठ पर होता है जो आपस में रगड़ने से आवाज उत्पन्न करता है।

उत्तरी अमेरिका में इस परिवार की 250 प्रजातिया है किन्तु एशिया में इसकी अत्यधिक प्रजातियां मौजूद है।

नाना प्रकार के रूप बदलने की क्षमता वाले तमाम जीव है हमारी धरती पर, ऐसा मैने उसके बारे में भी सुना है कुछ ईश भक्तो से जिसने दुनिया बनाई!

 मेरी रूमानियत बढ़ रही है शने: शने: !

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

हमें नेता नही प्रबन्धक चाहिये!


एक कविता जो मैने अपने बचपन में लिखी थी और आज मुझे एक टुकड़ा मिला है उसका जो फ़टा हुआ था बचे हुए अंश................

नेताओं के इस जंगल में
नेताओं के इस दंगल में


तिल-तिल जलता है इंसान (शोषित होता है इन्सान)


नेताओं के इस दलदल में
फ़ंसता रहता है इन्सान


नेताओं की इस नगरी में
फ़ीका है हर इक इन्सान


आपस में ये लड़ते-झगड़ते                                                                                पिसता है ये इन्सान                           
नेताओं को कौन सुधारे...............कागज फ़ट चुका है!

भाई हम आज़ाद मुल्क के बाशिन्दे है जहां प्राकृतिक संसाधन के साथ-साथ औद्योगिक विकास भी खूब हुआ है ।
नेता का पर्याय है नेतृत्व करने वाला, मुद्दों पर अटल रहकर जनहित में कार्य करना पर क्या आप को लगता है हमारे यहां अब कोई नेता बचा है जिसमे वास्तविक नेतृत्व की क्षमता है सिवाय राजिनीति करने के!

हमारे मुल्क में सहकारिता भी भृष्टाचार की भेट चढ़ गयी तो अब हम शासन को प्राईवेट लिमिटेड की तरह क्यो न ट्रीट करे जिसमे हमारे मुल्क का हर नागरिक शेयर धारक हो और नेता उस कम्पनी के प्रबन्धक हो जो सबकी भागीदारी सुनश्चित कर उनके रोज़गार और नागरिकों की जिम्मेदारी सुनिश्चित करे! यथायोग्य सभी को काम मिले । जबकि इसकी जगह पर जनता को भड़काकर अभी भी क्रान्ति और परिवर्तन की बेहुदा बाते करते है ये नेता और पांच साल के लिये बेवकूफ़ बनाते है हमें। जब सत्ता में बैठा शासक मालिकाना हक रखता है मुल्क पर तो उसे नागरिकॊं के लिए अपनी जिम्मेदारी से क्यो मुह फ़ेर लेता है ।

मुझे तो जनता शब्द में राजतन्त्र की बू आती है और शासन जैसे शब्द में तानाशाही........................

आम सहभागिता सुनिश्चित हो और अनियोजित विकास बन्द हो! और भारत के सभी प्रान्तों के लोगों को एक ही मुख्यधारा में समाहित किया जाय!

राष्ट्रवाद या विश्ववाद या फ़िर पृथ्वीवाद ! अगर दुनिया एक मुल्क हो जाये तो !

राष्ट्रवाद या विश्ववाद या फ़िर पृथ्वीवाद!





अगर दुनिया एक मुल्क हो जाये तो क्या होगा राष्ट्रवादियों, भाषावादियों, जाति-धर्मवादियों और क्षेत्रवादियों का  क्या होगा!?


ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही|


कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए|

विचारों का क्या जहां तक मन जाये वहां तक पींगें बढ़ाइये!आज़ मेरा मन भी पींगों पर पींगें ब़ढा़ रहा है! कुछ अजीब किन्तु तार्किक खयालात् के बोझ तले दबा जा रहा है सोच रहा हूं कुछ विचार आप सब भाई लोगों के फ़ौलादी कन्धों पर टांग दू।

राष्ट्रवाद जिसके लिये तमाम मुल्कों के तमाम लोगों ने अपनी जाने कुर्बान की, संघर्ष गाथायें बनी, और पाठयक्रमों मे शामिल हुई नतीजतन आने वाली पीढ़ियों ने भी उन गाथाओं से सबक लिया और नई राष्ट्रवादी खेपे वजूद में आई, इससे इतर हज़ारो, लाखों की तादाद में क्षेत्रवादी विचारधारायें पनपी और लोग मरते-कटते गये, कही किसी भौगोलिक टुकड़े के नामकरण पर तो कही अलग राज्य के नाम पर और कही-कही तो जाति के नाम पर भी लोग क्रान्ति करते रहे है और संघर्ष आज भी बदस्तूर जारी है। धर्म का जिक्र इस लिये नही किया क्योकि यह तो विस्फ़ोटक तत्व रहा ही है इतिहास में।

भाषाई दंगों के बारे में जिक्र करना मुनासिब नही समझता क्योकि हमारे अपने मुल्क में इस मुद्दे पर कटाजुज्झ जारी है और तमाम लेखनियां स्याही पोक रही है कागज़ और डिजिटल उपकरणों पर बिना रुके।

विचारधारा बर्ड फ़्लू, चिकनगुनिया,(अतीत में हैज़ा, कालरा, और चेचक)की तरह एपीडेमिक होती है बसर्ते समय-काल और परिस्थित अनुकूल हो! लेकिन हमारे मुल्क में सैकड़ों खेमों ने विचारों की फ़ैक्ट्री लगा रखी है और रोज़ ही वह इनकी लाखों प्रतियां छापते है किन्तु इन्हे पाठक नही मिलते वजह साफ़ है कि व्यक्ति सकून से अपने परिवार गांव घर में दो वक्त की रोटी खाना चहता है न कि विना वजह क्रान्ति करना! पर हमारे लोग मानते ही नही सब के सब एक तरफ़ से चेग्वेरा, लेनिन, हिटलर, मुसोलिनी, महात्मा, भगत सिंह, और नेहरू बनना चाह्ते है मगर क्यो किस वजह के लिये, वोट बटोरने के लिये ! या हथियारॊ के दम पर राज करने के लिए? ये नेता बेवक्त के भिखारी बन कर हर भले आदमी का दरवाजा खटखटाने लगते है, कोई दहाड़ कर शेर-कविता कह कर क्रान्ति की राह में ढ़केलने की कोशिश करता है तो कोई रिरियाता है, भाई बड़ी जरूरत है, बदलाव लाने की आप सब के बिना नही हो सकता आदि आदि।

सोचिये आज वैश्विक वातावरण में जहां दुनियां के हर मुल्क का बसिन्दा अपनी रोज़ी-रोटी के लिये गैर-मुल्कों मे नौकरियां कर रहा है धन और सुख दोनो ही उसके आगोश में है। हर वैश्विक समस्या पर हम एक साथ खड़े होते है धीरे-धीरे एक वक्त आ जाये जब सत्ता और शासक जैसी बाते समाप्त हो जाये कारपोरेट जगत की तरह सिर्फ़ उम्दा प्रबंधन हो और ये तमाम प्रबंधन एक साथ यू०एन०ओ० जैसी कोई साझा संस्था द्वारा संचालित हो तो फ़िर सीमा विवाद, प्रादेशिक मसले, भाषा पर हो हल्ला और इस तरह के सभी ही गैर-जरूरी वादॊं का कोई क्या करेगा। फ़िर लोग क्या सोचेगे उन नेताओं के बारे में या और क्रान्तिकारियों के बारे में जिन्होने राष्ट्रवाद के नाम पर वषों संघर्ष किये, खून बहा ! क्या वो प्रासंगिक रह जायेगें? एक उदाहरण है हमारे पास हिन्दुस्तान की जंगे आजादी का जिसमें बापू के योगदान का, फ़िर पाकिस्तान बना किन्तु वहां बापू प्रासगिक नही रहे, कुछ इसी तरह जिन्ना को ही ले भले ही उनका रोल कम रहा हो पर वह व्यक्ति भी तो इस पूरे भू-भाग की स्वतंत्रता में भागीदार थे लेकिन आज हमारे यहां उनका नाम ले लेने पर बवा; खड़ा हो जाता है!

शायद इस तरह के राष्ट्रवादी लोग न होते तो भारत का विभाजन नही होता दुनिया एक मुल्क होती और हम सब उसके बाशिन्दे!

हम अब वैश्विक सोच के दायरे में है हम शान्ति से रहना चाहते है! हमें राजिनीति का दखल नही चाहिये!

जीवन की उत्पत्ति और विकास वाद को देखे तो हम सब एक ही पूर्वज की सन्तान है और इस धरती पर जितने प्रकार के जीव मौजूद है सभी से हमारा रिस्ता है। 
 "we are from same kinship"

प्रासंगिकता न हो तो इस तरह के विचार गैर-जरूरी लगते है। परिवर्तन को बर्दाश्त करने की माद्दा होनी चाहिये, नही कर सकते तो कबूल कर लो, अगर कुछ कर सकते है तो समाज की नब्ज को हासिल कर उनके मुताबिक खयालातों के साथ निकल पड़िये मशाल लेकर यकीन मानिये लोग आप के साथ होगें और आप हीरो होगें उस समाज़ के लिये इतिहास में जितने भी लोग महान कहे जाते है उन्हो ने समाज की जरूरतो के मुताबिक काम किये और जिन्होने इनके खिलाफ़ अपने खालिश व गैर जरूरी विचारो को लादने की कोशिश कि वह खत्म हो गये दुनिया से भी और दिलों से भी..........................

कुछ ऐसा ही हो रहा है हमारे यहां हिन्दी को लेकर कुछ इसके खिलाफ़ मोर्चा बांधे हुए है तो कुछ इसके पक्ष में ढो़ल पीट रहे है पर इन दोनो के कुछ करने से हिन्दी नही प्रभावित होती है, यदि लोगो को इस भाषा की जरूरत है तो इसके फ़ैलाव को कोई नही रोक सकता और यदि यह प्रासंगिक नही है वर्तमान में तो इसे विलुप्त होने से कोई बचा नही सकता!

प्रत्येक वाद की जरूरत पर उपस्थित ठीक लगती है किन्तु हर वक्त लाऊडस्पीकर लगा कर जनता को गुमराह किया जाय ये काबिले बर्दाश्त नही है

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

Wednesday, November 11, 2009

"हिन्दी के प्रति उनकी चिन्ता मात्र उनका रोज़गार है"



भैया हिन्दी का विकास ऐसे नही होगा आप सब का भले हो जाये !
"कही ऐसा तो नही है कि हिन्दीकारों की हिन्दी के प्रति उनकी चिन्ता मात्र उनका रोज़गार है"

ब्लाग पर हिन्दी की धूम देखकर ह्रदय पुलकित हो उठता है । किन्तु एक डर हमेशा मुहं बाये खड़ा है ? कि यदि गूगल ने या अन्य मुफ़्त की सेवायें देने वाली साइटस जो हिन्दी ब्लागिग की सुविधा दे रही है कही उन्होने अपनी पालिशी में फ़ेरबदल दिया तो क्या होगा ! आप कह सकते हो कि ब्लाग को सुरक्षित रखने के तमाम तरीके है .जैसे.........एच टी एम एल कोड को सेव कर लेना आदि-आदि पर क्या ये मुनासिब हल है इस समस्या का ! फ़िर क्या होगा इन पोस्ट्स का और चटकाकारी का !!
आज हम आदी हो चुके है हिन्दी ब्लागिग के और उन तमाम सुविधाओं के जो ये वेबसाइट हमें प्रदान कर रही है !
कोई यहां अपना हिन्दी गुबार निकाल रहा है कोई अपने पन्थ का प्रचार प्रसार ! ब्लाग्स पर आप को सभी इज्म मिल जायेगें और सभी तरह के इज़्मकार भी फ़ुलझड़िया छोड़ते हुए ।
वही कुछ बेहतरीन ब्लोग्स हिन्दी में दुर्लभ नालेज को संकलित किये हुए है जो हमारे समाज के लिये जरूरी है।
यहां तक कि जो जानकारी हिन्दी की किताबों में अभी तक उपलब्ध नही है वह सब ब्लाग पर आप पढ़ सकते हो, लोगो की दिन रात की मेहनत, जो कीबोर्ड पर उंगलियों के जिमनास्टिक का नतीजा है

एक लिखने की बेहतर आदत ! पर क्या हमारा पूर्ण अधिकार है हमारी इस मेहनत पर ?

क्या हम स्वतंत्र राष्ट्र के स्वतंत्र ब्लागर्स है ? क्या यह अन्तरजाल जहां हिन्दी लहरा रही है विशाल तंरगों में !
क्या हमने अपना कोई हिन्दी वर्जन वाला आपरेटिग सिस्टम बना पाये या बनवा पाये जैसा कि चाइना व अन्य देशो ने मजबूर कर दिया दुनिया की बड़ी कम्पनी को कि वह चाइनीज OS बनाये !

क्या हमने कोई वेबसर्वेर स्थापित किया जो सिर्फ़ हमारी हिन्दी चिठठाकारी को सजों सके ?


क्या हमने  ब्लाग्स की  कोई वार्षिकी प्रकाशित की जो इस असीम विग्यान व ज्ञान को वर्चुअल दुनिया के अलावा भौतिक रूप से हमारे समक्ष प्रस्तुत कर सके व उन लोगो के समक्ष भी जो कम्प्यूटर का इस्तेमाल नही जानते या नही करते ?


क्या हम दुनिया के तमाम साहित्य या यूं कह ले की अपने भारतीय साहित्य, इतिहास, भूगोल, विग्यान को हिन्दी में ढ़ाल पाये

ब्लाग पर रिरियाने, चिल्लाने, और दहाड़ने से कुछ नही होगा सब आये एक साथ और सार्थक पहल करे मै जानता हूं सब सक्षम है इन सब बातॊं के लिये और ब्लागर्स अपना पूर्ण सहयोग देगे हिन्दी के इस सघर्ष में 

भाषा वही समृद्ध व विकसित होती है जिसमें सारे संसार का सार हो ।..................................अन्यथा बातों व व्याखानों से कुछ नही होता ।


कहा सुना माफ़ करियेगा 


आप का
कॄष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

क्या भारत एक राष्ट्र है ?


शब्द के मायने और उसके गुण-दोष परिस्थित और काल के अनुसार बदलते रहते है अब सोचना आप को है कि इस शब्द का इस्तेमाल कैसे और कहां करना है ?
उपमहाद्वीप,. हिन्दुस्तान,......... भारत, राष्ट्र,. गणराज्य, देश
देशद्रोहियों की सजाये सुनिश्चित की जाय


अभी हाल में चाइना ने इसी तरह कुछ कहा था कि भारत कोई राष्ट्र जैसी चीज नही, या वह यह कहना चाहता है कि भारत एक तरफ़ हिमालय से घिरा और तीन तरफ़ से समुन्दर से घिरा सिर्फ़ एक भूभाग है , जहां भाषाई तौर पर अलग-अलग टुकड़ें राज्य कहलाते है और इन जगहों पर तमाम संस्कृति, धर्म के लोग रहते है जो रोज आपस मे लड़ते है सिर्फ़ इस लिये कि उनकी ज़बान इलाहिदा है, धर्म जुदा-ज़ुदा है। उनके म़सायल अलग-अलग है !

 इस जमीन के टुकड़ों को सियासिती तौर पर  अग्रेज हुक्मरानों ने एक कर इण्डिया बना या ! और बापू  ने इस मुल्क को भावनात्यामक तौर से जोड़कर भारत बनाया । सियासत ने हमें भौगोलिक सीमाओं के भीतर समेट कर एक कर दिया किन्तु क्या हम "अनेकता में एकता" वाले सूत्र में गुथ पाये ?

महाराष्ट्र में जो हुआ, भाषा के नाम पर, वह क्या बेहूदा संदेश देना चाह्ता है,  दुनिया को । या दक्षिणपंथी, वामपंथी या फ़िर नक्सलवादी किस बात की लड़ाई लड़ रहे है इस राष्ट्र से, कभी मन्दिर के नाम तो कभी संस्कृति के नाम, सर्वहारा के नाम पर, जायज मुद्दों पर सरकार से लड़ाई तो समझ आती है पर राष्ट्र से लड़ाई लड़ना ,,,,,,,,,,,,,देश की अखण्डता, गौरव, सुरक्षा और संस्कृति को क्षति पहुचाना किस तरह की क्रान्ति का परिचायक है! 

आज राजनीति और राजनेता जिस तरह की गैरजिम्मेदाराना हरकते कर रहे हैं उनके लिये एक और प्रियदर्शिनी इन्दिरा की जरूरत, ताकि इन्हे इनकी राष्ट्रदोही गतिविधियों का सबक मिल सके, मै इमरजेन्सी या तानाशाही का समर्थक नही हूं लेकिन जब बात राष्ट्र की अखण्डता और उसकी संस्कृति पर कुठराघात की आये तो सज़ा सुनिश्चित होनी चाहिये!, और शासक को निरूकुंश  होना चाहिये !


हमारे मुल्क तमाम सिरफ़िरे लोग आयातित विचारधारा का चोला पहने घूम रहे है जो गरीबी, भुखमरी, और समानता की सवेंदनशील बाते करते है मशाले लेकर क्रान्ति की बात करते है पर क्या उन्होने अपने दामन को कायदे से निहारा है कि इन तमाम वर्षों में उनकी क्या उपलब्धता रही सिवाय इसके "कि भारत के खुशग़वार मौसम में भी छाता लगा लेने के यदि बीजिंग या मास्को में पानी बरस रहा हो तो ।"

और कुछ ऐसा ही है उन कथित राष्ट्रभक्तो के लिये जो दम भरते है विशुद्ध भारतीयता और इसके दर्शन का कभी-कभी तो वही अपने आप को भारतीय मानते है और सब कूड़ा-करकट, झाड़ू लगाने की बेहूदी बात भी कर देते है सियासी मैदानों में! अब इनकी भी देशभक्ति सुन लीजिये, जब आजादी की लड़ाई  में भारत हर खास ओ आम आदमी उस नेक-माहौल में अपना - अपना योगदान दे रहा था तब ये सब अग्रेजों की मुखबरी और बापू की हत्या करने के प्रयास में तल्लीन थे ! मुल्क आज़ाद हुआ तो ये सब जमीदारों-राजाओं के एजेन्ट बन कर उनकी रियासतॊं को बचाने में लग गये, उसमे विफ़ल हुए तो जनता पर क्रूरता और जोर-जबरदस्ती से शाशन करने वाले इन अग्रेजी एजेन्टों का पेन्शन-भत्ता ही बच जाय इसकी पुरजोर कोशिश .............किन्तु विफ़लता ही लगी इन कथित ...................को.............


विचारधारा को हथकण्डा बनाकर राजनीति करने वालों ने तो इस देश की जमीन पर अपने-अपने टुकड़ों का नक्शा भी ख़ीच लिया और सशस्त्र लड़ाईयां भी जारी है। पर सियासत दा जो सरकार में है वो भी किसी तरह पांच साल गुजारना चाहते है बिना किसी विवाद के और इस ख्वाइस के साथ कि आने वाले पांच साल भी हमारे हो जाय ।




इस मुल्क में तो राष्ट्रभक्तों पर गीत लिखने वाले व्यक्ति भी सुरक्षित नही रहे  एक पूर्व राजा ने  जिसकी  पीढ़ियां सियासत में आज भी राजा का दर्जा हासिल किये है, ने कविता की उन लाइन्स को खारिज़ करने की बात कही जिनमे उनके पुरखो के देशद्रोही होने का जिक्र था कवियत्री नही मानी तो उनका रोड-एक्सिडेन्ट करा दिया जाता है??????

तमाम सियासत दां के सफ़ेद चेहरों के पीछे छिपी है काली रात की भयानक करतूते किन्तु वों धरती के देवता का ओहदा प्राप्त किये लाल-बत्तियों वाले रथों में विराजमान  होकर देश की छाती पर मूंग दल रहे है बिना किसी डर या शर्म के ।

भारत सरकार को ऐसे "anarchists" ????????को राज्य-सत्ता की अस्मिता पर हमला बोलने के जुर्म में सजा-ए-मौत देना सुनिश्चित करे -----------इससे कम बिल्कुल नही ! यह राज्य का अधिकार भी है और दायित्व भी !


यदि सरकार अपने दायित्वों का निर्वहन सही ढ़ग से नही करती तो उसके खिलाफ़ आवाज उठाना यकीनन उचित है इसे आप "Anarchist Revolt" नाम दे सकते है महात्मा गांधी को भी ब्रिटिश सरकार कभी-कभी इसी शब्द से नवाजती थी ।




कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष



Tuesday, November 10, 2009

हिन्दी को हिन्दुस्तानी बनाये !


Photo & Text by Krishna Kumar Mishra


हिन्दी को हिन्दुस्तानी बनाये


भाषा की लोकप्रियता के लिये उस भाषा का शब्दकोष और उस लिपि में लिखा गया ज्ञान इस बात के लिये उत्तरदायी होता है कि वह भाषा कितना राष्ट्रीयकृत या ग्लोबल होगी ।


अग्रेजों ने अपनी भाषा में संसार के सम्पूर्ण ज्ञान को समेटा और परोसा आज आप जिस मुल्क की सभ्यता, ज्ञान व विज्ञान की खिड़की खोलना चाहे खोल ले और देख ले उस देशकाल की परिस्थित बिना अटके और उलझे।
लेकिन हम वैश्विक स्तर की बात छोड़ दे तो हम अपने देश का ही साहित्य जो तमाम अन्य भारतीय भाषाओं में है उसे ही हिन्दी के रंग में नही रंग पाये। आप सोचिये मास्को प्रकाशन ने हमारे लोगो को रूस का बेहतरीन साहित्य पढ़ने का जो मौका दिया था वह सराहनीय है.रूसी का हिन्दी में सुन्दर अनुवाद !

नतीजा ये है कि हमारे लोग तमिल एवं उड़िया के उम्दा साहित्य व साहित्यकारो को नही जानते लेकिन यहां हर युवा पर लेनिन, टाल्स्टाय, गोर्की और दोस्तोविस्की की छाप पड़ी और साम्यवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार भी !

अग्रेजॊं ने हमारे संस्कृत, और अन्य क्षेत्रिय भाषाओं में लिखे प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद कर उन्हे सुरक्षित रखने का अपरोक्ष तौर से एहसान तो किया ही , और अपनी अग्रेजी भाषा को भारतीय जान से और अधिक ओत-प्रोत कर संमृद्ध कर लिया। नही तो हम...............
जब तक हम भाषा को समाज, देश की मुख्य धारा से नही जोड़ेगे तब तक हम इस बात का इल्जाम किसी पर थोप नही सकते कि फ़ला व्यक्ति या संस्था  ्हिन्दी को मान्यता नही दे रहा है
दिल्ली की गलियों से लेकर सिनेमा तक में बोली जाने वाली हिन्दुस्तानी जो पारसी, अरबी, तुर्की, अग्रेजी, अवधी, ब्रज, बुन्देली, व राजपूताना की भाषाओं का संगम थी वही सर्वमान्य हुई हमारे समाज में न कि क्लिष्ट संस्कृत प्रधान हिन्दी !

आज जब अग्रेजी का शब्दकोश दुनिया की तमाम भाषाओं के शब्दों से अमीर हो रहा है हम तब भी अपने क्षेत्रीय शब्दों को साहित्य में शामिल करने से गुरेज करते है

शैव, नागा, ये दो शब्द दुनिया के प्राचीन भारतीय सम्प्रदाय के शब्द है किन्तु अग्रेजी शब्दकोष ने इन्हे अपनाया और अब जब कोई भारतीय बच्चा इन्हे विदेशी भाषा के शब्द कोष में पढ़ेगा तो क्या वह इन शब्दो को भारतीय मान सकेगा । नितान्त कमी है हमारे देश में एक बेहतर हिन्दी-शब्दकोश की जो प्रचलित हो और सर्वसुलभ हो

६० बरस बहुत होते है किसी देश की सरकार और वहां के निवासियों के लिये कुछ बेहतर करने के लिये । इस लिये कोई बहाना नही चलेगा!
सारे जहां के इल्म का हिन्दी में  तरजुमा  हो। इन्ही शुभकामनाओं के साथ

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

Wednesday, November 4, 2009

मिठ्ठू लाल जी और प्रवासी पक्षी


ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है|

"मुनव्वर राना"


४ नवम्बर २००९ मै शाह्जहांपुर पहुंचा कार की मरम्मत करवाने किन्तु मेरे इरादे और भी थे जिसमें एक था मिठ्ठू लाल जी से मुलाकात करना, अब पूछिये ये मिठ्ठूलाल कौन है ?

ये ७५ वर्ष के बुजुर्ग है जो अपनी रिवाल्वर "Webley & Scott" डालकर प्रत्येक सुबह उस बगीचे में आ जाते है जिसके ठीक सामने एक तालाब है जो मिठ्ठूलाल जी द्वारा ही निर्मित है और इसी जगह कुछ कमरे भी निर्मित है और बगल में एक शिवाला, यानी मिठ्ठूलाल जी महादेव की शरण में भी है !आप कभी राइस मिल और ईट भट्टा मालिक थे, इसी भट्टे से ईट के लिये निकाली गयी मिट्टी से बना गढ्ढा अब तालाब में तब्दील हो गया है, और प्रवासी पक्षी  वर्ष के चार महीने के बसेरे के लिये हजारों मील दूर से यात्रा करके मिठ्ठू लाल के इस तालाब को अपना घर बनाते है------"ईट भट्टे का यह गढ्ढा अब तब्दील हो गया है रंग-बिरंगे पक्षियों का स्वर्ग"

गौर तलब बात यह कि मानव बस्ती के निकट हज़ारों विदेशी चिडियों का प्रवास स्थल सुरक्षित है जहां कोई इन्हे हानि नही पहुंचा सकता। क्योकि मिठ्ठूलाल जी जो है ।
यहां रह रहे मिठ्ठूलाल जी के नौकर भी इनके सरंक्षण में अपना योगदान देते है!
एक वाकया मिठ्ठूलाल जी ने बताया कि एक दरोगा इन पक्षियो का शिकार करने आया उनके मना करने पर बोला ये तो "आवारा चिड़ियां" है मिठ्ठूलाल बोले अच्छा ! ये आवारा है ! ये मेरी चिड़िया है ! ये तालाब मेरा है ! तो वह दरोगा बोला अच्छा जब ये उड़ेगी तब इन्हे मै मार दूंगा, मीठ्ठूलाल् ने रिवाल्वर निकालकर कहा मै तुम्हे मार दूंगा !
देखिये अब आप लोग ही देखिये ये मनुष्य कितना बेवकूफ़ व जालिम हो चुका है वह प्रकृति की हर वस्तु को अपना गुलाम बनाना चह्ता है और खुद उस वस्तु का मलिक चाहे वह सजीव क्यो न हो उसे वस्तु ही लगती है!
इस धरती पर जितना मनुष्य का हक है उतना किसी और जीव का भी फ़िर चाहे वह हिरन हो चिड़िया हो या सांप किन्तु हम सबके मालिक बनना चाह्ते है या किसी न किसी के अधिकार में उस जीव को स्वीकार करना चाहते है तभी तो मिठ्ठूलाल को दरोगा से कहना पड़ा कि ये मेरी चिड़ियां है! तब जा के इस स्वंतंत्र पक्षियों की जान बच सकी !!
खैर मीठूलाल जैसे व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी होगी समाज़ को, तभी प्रकृति के विनाश को रोका जा सकता है और सरकार को भी ऐसे लोगो को प्रोत्साहन देना होगा " पक्षी मित्र" जैसे पुरस्कारों से अलंकृत करके ! ताकि अन्य लोग संरक्षण के महत्व को समझ सके!

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-262727
भारतवर्ष
9451925997

Monday, October 26, 2009

जानवर है बेहाल राम तेरे देश में !!

अत्याचारी मानव
यहां मैं एनीमल राईट की बात नही करूगा क्योंकि हमारे मुल्क  में कानून गरीब और कमजोर पर  लागू नही होते फ़िर यदि बात आये मानव को छोड़ कर दूसरी प्रजातियों यानी जानवर आदि .आदि , की तो राम मालिक!
ऐसा ही हाल है हमारे घरेलू जानवर का पहली बात विकास की दौड़ में ये जीव अब अप्रासंगिक हो रहे है और विलुप्त भी क्योंकि अब न तो खरिहान है और न ही चरागाह और न ही इन जगहों पर लगने वाली चौपालें जो अपने आप में एक संस्कृति हुआ करती थी , रही सही कसर मशीनों ने पूरी कर दी!
पर इसके बावजूद एक तबका है जो अभी भी इन्ही जीवों पर निर्भर है किन्तु सिलसिला-ए-आम ये है कि या तो ये तबका सवेंदन हीन हो चुका है या गरीबी ने इसे ऐस बना दिया या फ़िर लालच और आगे बढ़ने की लालसा ने मानव को हबसी बना कर रख दिया तभी तो ये लोग इन जानवरों से बेतहासा काम लेते है बिना पूरी खुराक दिये।
आप देखे तो ये ह्र्दय विदारक दृष्य हर सड़क व गांव में मिल जायेंगे, कभी तांगें की शक्ल में जिस पर आदमियों का पहाड़ रखा होगा और बेचारा एक घोड़ा या खच्चर जो जमीन नापने की भरसक कोशिश करने के बावजूद उसकी टांगे सरकती हुई नज़र आयेंगी ...........
कही बैलगाड़ी पर गन्ना य फ़िर अनाज़ का हिमालय लादे दो बैल जो पूरा भोजन न मिलने से कुपोषित हो चुके है पर मालिक की चाबुक या पैना या डण्डा उन की पीठ की खाल को उघाड़ता हुआ उन्हे आगे बड़ने का हुक्म बज़ा रहा होगा और ऐसा ही कुछ खेतों में...........

ईट के भट्टों पर तो टट्टुओं की दशा और खराब है जहां उन पर इतनी ईंटे लाद दी जाती है कि कलेज़ा ही फ़ट जायें लेकिन आदमी है की उस का दिल पसीजता ही नही बावजूद इसके की इस आदमी ने मानव-गुलामी का वह दौर भी देखा है जब आदमी आदमी पर कोड़े बरसाता था और जानवरों से भी बुरी दुर्दशा की जाती थी और कही कही तो आज़ भी ऐसा होता है .....................

श्रीमती मेनका गांधी ने जानवरों के अधिकारों की जो लड़ाई लड़ी वह सराहनीय है पर क्या वे कानून लागू है जिनमे जानवर की क्षमता से अधिक बोझा ढ़ोने पर सजा का प्राविधान है ?
मुझे कोई कल ही बता रहा था कि हमारे यहां बेहजम पुलिस चौकी पर एक सिपाही था वह हर ईंट भट्टे से ईंट लेकर आने वाली बोगियों (ट्ट्टू  खच्चर गाड़ी) को रोककर पिटाई करता था और इस हिदायत के साथ कि आइंदा से जानवर पर इतना बोझ नही लादोंगे .सलाम है ऐसे व्यक्ति को.शाय्द वह एनीमल राईट के बारे में न जानता हो कि जो वह कर रहा है वह कानूनन जरूरी है पर मानवीय दृष्टिकोण से वह यह बेहतर काम किये जा रहा था यदि पुलिस इस कानून का पालन कराने में थोड़ा सक्रिय हो तो बहुत सुधार आने की गुंजाइस है।
एक नियम का मै भी पालन करता हूं कि रास्तें में यदि कोई तांगा या बैलगाड़ी जा रही होती है तो मै अपने मशीनी वाहन का हार्न नही बजाता और सड़क से अपना वाहन उतार कर आगे निकल जाता हूं क्योकि मेरे हार्न बजाने के पश्चात जो प्रतिक्रिया उस बैलगाड़ी या तांगे के मालिक द्वारा होगी वह मुझे पता है ? हार्न बजने के बाद कुछ जोरदार चाबुक उस जानवर की पीठ पर पड़ेगे  ......... . साथ ही उसे इतने बोझ के साथ सड़क से नीचे उतरना और फिर चढ़्ना .........उसकी इस शारीरिक मेहनत और यातना के बनस्पति मेरे मशीनी वाहन पर कोई फ़र्क नही पड़ेगा ! तो क्या आप मेरे इस विचार को अपनायेंगे !
मै यह लेख इस लिये नही लिख रहा हूं कि कोई मेरे लेखन की तारीफ़ करे या ब्लाग जगत में चर्चा हो मै चाह्ता हूं कि सक्षम लोग कुछ करे !
यहां पर एक कविता का जिक्र जरूरी है जिसे वंशीधर शुक्ल जी ने लिखा है उनके ह्रदय के ये उदगार किसी फ़रिस्ते के उदगार से कम नही .---------

धन्य गाय के पूत

बछरा, धन्य गाय के पूत
तोरइ चारा छीनि - छीनि के दुनिया भइ मजबूत।
बछरा धन्य गाय के पूत।

जलमति खन तोरी अम्मा का दूधु लेयं सब छीनि
तुम अम्बा अम्बा करि रम्भउ, जियउ घास खर बीनि

पी-पी दूधु मोटाय जगत तुम सूखि होउ ताबूत।
बछरा धन्य गाय के पूत

दूध मठा का खांरउना कुछु जूठनि तुमका देय,
दही दही घिउ-मसका करिके जगतु खास रस लेय।
टुकरू -टुकरू तुम दयाखउ जग की यह करिया करतूत।
बछरा धन्य गाय के पूत

दूध छुटई माता का बिछुरन पिता न देखय देंय,
जानइ कह बेचइ, कह पठवंइ, बेंचि मुनाफ़ा लेइ।
सउदा बने फ़िरउ दर दर मां कोइ खेतिहर के सूत।
बछरा धन्य गाय के पूत
नथुना नाथइ डोरी बाधइं मूडें बांधि सिरउंधा
मुहें मुसिक्का आखिंन पट्टी गलगल घींच गरउंधा..............शेष..............
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कही मैने पढ़ा था शायद मनुस्मृति में कि आठ बैलो से हल चलाने वाला अति उत्तम, छ: बैलो वाला हल उत्तम और चार बैलों वाला हल सामान्य तथा दो बैलों वाला हल दोषपूर्ण व पापी मनुष्य द्वारा चलाया जाता है  
हम जानवर से काम तो लेते है और वह भी उसकी क्षमता से अधिक बिना उसकी सेवा किये क्या हम अपने अतीत से सबक नही ले सकते जब इन जीवों का सम्मान, और सेवा होती थी क्योकि सदियों से ये हमारे भरण -पोषण में सहयोगी रहे है और आज भी है ।


कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारत वर्ष
९४५१९२५९९७

Friday, October 23, 2009

350 से ज्यादा नही, बिल्कुल नही !!!


पृथ्वी बचाओं नही तो खुद नही बचोगे- फ़ैसला आप के हाथ
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जलवायु परिवर्तन के जो भयवह संकेत हमे मिल रहे है उसे देखते हुये दुनियाभर के जल्वायु वैग्यानिकों ने २४ अक्टूबर सन २००९ को "इंटरनेशनल डे आफ़ क्लाइमेट एक्सन" मना रहे है जिसमे उन्होने पूरी दुनिया के लोगों को साझा करने के लिये आवाहित किया है ताकि दुनिया की तमाम सरकारों पर इसका जोरदार असर पड़े जो जिम्मेदार है ग्लोबल वर्मिंग के कारण होने वाली जलवायु परिवर्तन के,
 क्योकि इसी दिन यूनाईटेड नेशन्स की स्थापना हुई थी


इस दिवस का मुख्य चिन्ह या लोगो ३५० रख गया है क्यो कि पर्यावरण में CO2 की सांन्द्रता 350 ppm से अधिक नही होनी चाहिये और यदि ऐसा होता है तो ग्लेशियर पिघलने लगते है तापमान बढ़ता है और जंगल सूखने लगते है जैसा कि हमारी धरती पर हो रहा है क्योकि इस वक्त CO2 की सांद्रता 390ppm है यानी CO2 का एक हिस्सा प्रत्येक मिलियन एटमास्फ़ियर में, यही वज़ह है की २४ अक्टूबर २००९ यह कार्यक्रम किया जा रहा है ताकि दिसम्बर २००९ को यूनाइटेड नेशन्स की अगली बैठक जलवायु संबधी मसलों पर होगी जहां 350 की गतिविधियों को दुनिया भर से आये नेताओं के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके और इन राजनेताओं के मन-मस्तिष्क पर कुछ प्रभाव छोड़ा जाय ऐसी आशा की जा रही है ।

यहां यह बताना जरूरी है कि 350 के कान्सेप्ट की शुरूवात अमेरिकन लेखक  बिल मेककिबेन ने की इन्होने ग्लोबल वर्मिग पर विश्व प्रसिद्ध पुस्तक लिखी और सन २००७ मे तमाम राज्यों मे कार्बन को सन २०५० तक ८० फ़ीसदी कम करने का एलान जिसमे उस समय सीनेटर बराक ओबामा ने भी इस बेहतरीन सोच की सराहना की  ।
२४ तारीख को दुनिआ की तमाम मीडिया, राजनेता, NGOs, सरकारी सगंठनॊं से अनुरोध किया जा रहा है की पृथ्वी ग्रह को और मानव जाति को यदि विनाश से बचाना है तो 350 वाले कान्सेप्ट पर जल्द विचार कर कार्बन के स्तर को सामान्य किया जाय नही तो विनाश निश्चित है !
क्योकि सामान्य स्तर में कार्बन को हमारे वृक्ष अवशोसित कर शुद्ध प्राणवायु में तब्दील कर देते है ।
मै यह मानता हूं कि यदि हर व्यक्ति समाज व देश अपने अपने पर्यावरण को स्वच्छ रख ले तो धीरे-धीरे पूरी धरती का वायुमण्ड्ल स्वच्छ हो जायेगा किन्तु हम इस जिम्मेवारी का निर्वाह पूरी ईमानदारी से करे ।
जीवाश्म ईधंन का प्रयोग आधुनिक तरीके से करे जिसमे कार्बन का उत्सर्जन कम हो अपने वाहन व कारखानों से निकलने वाले धुएं में कार्बन का प्रतिशत कम करने वाले उपकरणों को दुरूस्त रखे और सरकार भी इन नियमों का पालन कराने के लिये दृढ सकंल्प बने, हम वृक्ष लगाये नदियों को स्वच्छ रखे और ऐसा कोइ काम न करे जो हमारे पर्यावरण को नुकसान पहुचाता हो तो मुझे यकीन है कि स्थितियों में सुधार खुद ब खुद होता जायेगा !!!
चलो कल हम सभी अपने आस-पास के लोगों को इस बावत बतायें, स्कूलों, में बच्चों से रैलियां निकलवायें और अपने-अपने प्रतिष्ठानों व सगंठनों में गोष्ठी कर समस्या के समाधान निकाले और इस २४ तारीख की इन गतिविधियों से सरकार और नेताओं को अवगत कराये कि यह बहुत जरुरी है ।

हांलाकि इस तरह के दिवस मनाने की जो परंपरा है वह सिर्फ़ इसी दिन तक सीमित रह जाती है और तमाम तरह के कार्यक्रम तो सिर्फ़ सरकारि फ़ाइलों तक ही सीमित रह जाती है जैसे अभी महात्मा गांधी के विचार पर "joy of giving week" पिछले महीने भारत सरकार ने मनाया जिसकी जानकारी शायद किसी को नही है !!

अच्छे विचार और अच्छ गतिविधियां ही धर्म है और इसे संस्कार के तौर पर अपनाना चहिये तभी कल्याण संभव है जैसे हमारे यहां बच्चों को हिदायत दी जाती है कि जल पवित्र है इसे दूषित करना पाप है या फ़िर जीव हत्या पाप....नदी मां समान है ---------- आदि-------- आदि।

 मालद्वीप के राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने अपने कैबिनेट की मीटिंग समुंद्र की गहराईयों में की ताकि दुनिया देख
सके कि ग्लेशियर पिघलने पर उनका देश दुनिया के नक्शे से मिटकर समुंद्र की गहराईयों में समा जायेगा।


भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और ISRO के चेयरमैन जी० माधवन ने अतंरिक्ष भवन बैगलौर में बैठक की और दो सेटेलाइट सन २०१० व २०११ में छोड़ने की बात कही जो ग्रीन हाउस गैसों का अध्ययन करेगीं और २०१० में एक और माइक्रो-सेटेलाइट छोड़ने की भी तैयारी है जो aerosols  यानी गैस में जहरीले कणों की सांद्रता का पता लगायेगी । 


कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

अपने गांव में दीपों का त्योहार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

१७ तारीख यानी दीपावली भारत भूमि का एक महत्व पूर्ण त्योहार,  इस बार अम्मा ने तय किया कि यह त्योहार हम अपने गांव मैनहन में मनायेगे, वजह साफ़ थी कि पूर्वजों की धरती पर उनके अशीर्वाद और प्रेम का एहसास महसूस करने की फ़िर वह घर जिसमें न जाने मेरी कितनी पीढ़ियां पली - बढ़ी, वह धरती जहां मेरे बाबा और पिता ने जन्म लिया मेरी दादी और मां की कर्म-भूमि और इन सभी प्रियजनों का जीवन सघर्ष......................................
दिवाली के रोज़ हम दोपहर बाद गांव के लिये चले, पूरे रास्ते भर मैं रंग-बिरंगे कपड़ों में सुस्सजित नर-नारियों के मुस्कराते हुए चेहरे पढ़ता गया जो यह बता रहे थे कि अपने गांव-गेरावं में त्योंहार मनाने का सुख क्या होता है । हर किसी को जल्दी थी अपने-अपने गांव (घर) पहुंचने की।
दिन रहते हम अपनी पितृ-भूमि पर थे वहां के हर नुक्कड़ पर सभायें लगी हुई थी कही खि्लधड़े किशोरों की जो युवा होनें की दहलीज़ पर थे वो मुझे देखते तो चुप हो जाते आगे बढ़ते चरण छूते और फ़िर गुमसुम से मै भांप जाता जरूर ये कोई "वही वाले" काल्पनिक शगूफ़ों में मस्त होगे , चलो अब आगे बढा जाय ......तो कही पर बुजर्ग जो रामयण-भागवत आदि की बाते कर रहे थे तो कही आने वाले सभापति(प्रधान) के चुनाओं की गोटियां बिछाई जा रही थी,
बच्चे शाम होने का इन्तजार कर रहे थे कि कब पटाखे दगाने का मौका जल्दी से मिले
और शायद कु्छ लोग अपनी तंगहाली और बेबसी -गरीबी----------पर परदा ढ़ाकने की कोशिश क्योकि ये त्योहार उन लोगों के लिये बड़ी मुश्किलात पैदा करते है जिनके हको़ को अमीरों ने दबा रखा है उन सभी को अपनी इच्छाओं का दमन अवश्य करना पड़ता है ----------और ये बेबसी कैसा दर्द देती है इसका मुझे भी एहसास है।इस परिप्रेक्ष में अवधी ्सम्राट पं० वंशीधर शुक्ल ने एक बेह्तरीन कविता लिखी है "गरीब की होली" जो हकीकत बयां करती है हमारे समाज की उस रचना को पचास वर्ष हो रहे है पर भारत में गरीब की दशा मे इजाफ़ा ही हुआ है बजाए..........

"शायद त्योहार बनाने वालों ने इन सभी के बारे मे नही सोचा होगा या फ़िर सोचा होगा तो जरूर कोइ इन्तजामात होते होगे जो सभी में समानता का बोध कराते हो कम से कम इन पर्वों के दिन"
खैर मै गांव का एक चक्कर लगा कर घर पहुंचा तो मेरे सहयोगी व सबंधी मौजूद थे मैने मोमबत्तियां व धूपबत्तिया सुलगाना - जलाना शुरू ए कर दिया घर के प्रत्येक आरे(आला) मे रोशनी व खुशबू का इन्तजाम तमाम अरसे बाद मै अपने इस घर में दाखिल हुआ था घर की देखभाल करने वाले आदमी ने सफ़ाई तो कर रखी थी पर घर बन्द रहने की वजह से उसे रूहानी खुशबू की जरूरत थी जिसे मैने महादेव की पूजा करने के पश्चात पूरे घर मे बिखेर दिया।
मेरे घर के मुख्य द्वार पर मेरे परदादा पं० राम लाल मिश्र जो कनकूत के ओहदे पर थे रियासत महमूदाबाद में ने नक्कशी दार तिशाहा दरवाजा लगवाया था जो आज भी जस का तस है सैकड़ो वर्ष बाद भी और इसी दरवाजे के किनारों पर दस आले और उनमे जगमगाती मोमबत्तियां व मिट्टी के दीपक और साथ में केवड़ा की सुगन्ध वाली धूप, और यही हाल पूरे घर मे था ये सब रचनात्मकता तो आदम जाति ने की थी पर अब हर लौ में खुदा का नूर झलक रहा था
एक बात और आरे या आला घर की दीवालॊ मे त्रिभुज के आकार वाला स्थान जिसका प्रयोग दीपक रखने व छोटी वस्तुयें रखने के लिये प्रयोग किया जाता है और इसका वैग्यानिक राज मुझे तब मालूम हुआ जब तेज हवा के झोकों में मेरे आले वल्ले दीपक जगमगा रहे थे बिना बुझे ।
अपने सभी लोगो का अशिर्वाद और स्नेह का भागीदार बनने के बाद मै अपने शहर वाले घर को आने के लिये तैयार हुआ पर गांव और यहां के लोगों का जिन्होने अपना कीमती समय मुझे दिया और मेरे घर में उन सब की चरणरज
आई मै अनुग्रहीत हुआ ।
तकरीबन रात के १०:३० बजे मै और मेरी मां अपनी कार से रवाना हुए अपने दूसरे घर के लिये अब तलक गांव के दीपक बुझ चुके थे लोग गहरी नींद में थे उनके लिये ये त्योहर अब समाप्त हो चला था बस चहल -पहल के नाम पर लोगों की जो उपस्थित मेरे घर में थी वही इस पर्व को इस गांव से विदा होते देख और सुन रही थी गुप अंधेरे और गहरी नींद में सोये लोगों की गड़्गड़ाहट में !!!
मैने अपने पुरखों और ग्राम देवता को प्रणाम कर प्रस्थान किया सुनसन सड़क चारो तरफ़ खेत और वृक्षों के झुरुमुट कभी कभी सड़क पर करते हुए रात्रिचर पक्षी, सियार गांव के गांव नींद में थे अगली सुबह के इन्त्जार में !!
राजा लोने सिंह मार्ग पर  एक जगह मुझे कुछ दिखाई पड़ा कार धीमी की तो कोई सियार जिसे किसी मनुष्य ने अपने वाहन से कुचला था ये अभी शावक ही था........सियार अब खीरी जैसे वन्य क्षेत्र वाले स्थानों से भी गायब हो रहा है ऐसे में मुझे यह सड़क हादसा बहुत ही नागवांर लगा, किन्तु इससे भी ज्यादा बुरा तब लगा जब मै तीन दिन बाद यहां से फ़िर गुजरा तो यह सियार वैसे ही सड़क पर पड़ा सड़ रहा था इसका मतलब कि अब मेरी इस खीरी की धरती पर  गिद्ध की बात छोड़िये कौआ भी नही हैं जो इसे अपना भोजन बनाते और रास्ते को साफ़ कर देते कम से कम इस जगह पर तो दोनों प्रजातियों का ना होना ही दर्शाता है यह.............................
लोगों को यह नही भूलना चाहिये की इस धरती पर उन सभी जीवों का हक है जो हमारे साथ रहते आयें है सदियों से और हमसे भी पहले से .........और जिस सड़क पर हम गुजरते वहां से दबते - सकुचाते हुए बेचारे ये जीव भी अपना रास्ता अख्तियार करते है हमे उन्हे निकल जाने का मौका दे देना चाहिये !!!
महादेव की इस धरती पर मनुष्य क्या होता जा रहा है ...........इन्ही शब्दों के साथ आप सभी को दीपावली की शुभका्मनायें !
मैने अपने दूसरे शहर वाले घर पहुच कर ईश्वर की आराधना की और दीप जलाये और फ़िर दोस्तो के साथ दिवाली की पवित्र व शुभ रात्रि में शहर में अपने लोगों से मिलता और घूमता रहा !


कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारत
सेलुलर-९४५१९२५९९७

Sunday, September 27, 2009

देनें का मज़ा लेनें से बहुत ज्यादा है!

Joy of Giving Week (27 September to 3rd October 2009)


परहित सरस धरम नहि भाई,

२७ सितम्बर यह तारीख है कुछ खास, इस रोज़ से शुरुआत हो रही है एक खास एहसास की जो आप के मन को वह अनुभूति प्रदान कर सकता है जिसे आप लाखों या फ़िर करोणों में नही तौल सकते,  भारत वर्ष में "ज्वाय आफ़ गिविगं वीक" के तौर पर मनाया जायेगा। और इस पूरे सप्ताह यानी २७ से ३ अक्तूबर २००९ तक समाज के हर वर्ग के व्यक्ति को अपने भीतर मौजूद वस्तविक सुख को जगाने का मौका देने की एक कोशिश !!


यह अपने तरह का भारत में पहला प्रयास है जिसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप देने की अथक कोशिश की जायेगी ताकि देश के प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह बच्चे हो, महिला, बुजुर्ग, अमीर, गरीब सभी को इसमे शामिल किया जाना हैं खैर ये तो सरकारी प्रयास की बात है पर इस विचार को समाज के मध्य लाने वाले व्यक्ति को धन्यवाद! क्योकि हम सब कुछ महसूस करने के बावजूद चीजों को अनदेखा करते है और अपने बेहतरीन मानवीय एहसासात को दबाने और कुचल देने का भरशक प्रयास हम सब में जेनेटिक तौर पर वह सब होता है जो एक उम्दा इंसान के अंदर फ़र्क इतना है हम सोच कर भी कार्यों को अंजाम नही देते शायद ये कुछ देने वाले एहसासातों को जगाने वाला सप्ताह ही दम-तोड़ती मानवता को बचा लेने में सफ़ल हो जाये यदि हम अनुसरण करे इस बात का जिसे हमारी संस्कृति सदियों से हमे बताती आयी है !
सर विंस्टन चर्चिल की एक बात यहां बड़ा इत्तफ़ाक रखती है उन्होने कुछ ऐसा कहा था " हम ऐसे बनते जा रहे है जहां सिर्फ़ पाने की लालसा है बल्कि हमें ऐसा बनना चाहिये कि हम दे क्या सकते है ।" क्यों कि देने का सुख प्राप्त करने के सुख से बड़ा है और गौरतलब ये कि आप तभी किसी को कुछ दे सकते है जब आप ह्रदय से देने के लायक हो आप का गार्जियन माइंड सजग व उच्च हो आप के संस्कार पवित्र व नेक हो यानी आप एक इंसान हो ? तभी ये संभव है अन्यथा नही ।
एक व्यक्ति की बात मेरे मन को बहुत आंदोलित कर गयी वह नाम है "पीटर ड्रकर" इन्होने ने कुछ ऐसा कहा है कि जब आप सुबह उठ कर आईने के सामने अपने आप को देख रहे हो तो सोचे कि हम एक ऐसे नागरिक बने जो अपने आस -पास की चीजों के प्रति जिम्मेदार व परोपकार की भावना से सेवा करे ! यह भी भारत की संस्कृति ने हमे न जाने कब से सिखाया कि "परोपकार से बड़ा कोई धर्म नही" पर शायद हम कभी नही समझे और यदि समझे होते तो यह सप्ताह मनाने की आवश्यक्ता ही क्यों पड़ती ?
खैर इस सप्ताह के संबध में महात्मा गांधी के साथ घटी एक घटना का सीधा संबध जोड़ा गया है जो निश्चित रूप से इस आंदोलन को उर्जा प्रदान करेगा ।
एक बार महात्मा उड़ीसा में किसी स्थान पर अपने चरखा मिशन के लिये धन इकट्ठा करने के लिये सभा को सम्बोधित कर रहे थे तमाम लोगों ने इस नेक काम में उन्हे दान स्वरुप धन राशियां दी इस फ़ंड के कर्ताधर्ता जमना लाल बजाज थे, संबोधन के उपरान्त एक गरीब व बूढ़ी महिला भीड़ से गुजरती हुई महात्मा के करीब आने की कोशिश कर रही थी लोगों ने उसे रोकने की नाकामयाब कोशिश शुरू -ए- की किन्तु वह महात्मा के पास पहुंच गयी और अपनी मैली साड़ी के पल्लू से एक तांबे का सिक्क निकालकर महात्मा की तरफ़ बड़ा दिया महात्मा ने सह्र्ष उसे ग्रहण करते हुये रख लिया इस बात पर जमना लाल बजाज ने हंसते हुये कहा बापू हम हज़ारों रूपये के चेक के मध्य इस तांबे के सिक्के का क्या करेगे तो बापू का जवाब था की तुम्हे इस रुपये के साथ साथ मुझ पर भी विस्वास नही है क्या यह मेरे लिये लाखों-करोणों से भी अधिक है और उससे भी अधिक है इस महिला के जज्बात जिसे नमन है! क्यो कि यदि किसी के पास लाखों है और वह उसमे से कुछ हज़ार मुझे दे देता है तो वह उतना मह्त्व पूर्ण नही है जितना यह सिक्का क्योंकि यह सिक्का इस महिला का सबकुछ है जिसे वह हमें दे रही है ।

यहां देने का मतलब ये नही है की आप दान देकर फ़ुरसत पा ले आप जरूरत मंद को स्नेह और विनम्रता से सहयोग करके देखे अवश्य आप का मन पल्लवित हो उठेगा

एक अति प्रासंगिक घटना:-
मुझे यहां पर अपने पिता जी की एक बात याद आती है जो उन्होने मुझे मेरे बचपन मे बताई थी  " जब बापू भारत की यात्रायें कर रहे थे गांव-गांव, शहर, खेत-खलिहान तो उन्होने एक जगह एक महिला को नदी में स्नान करते देखा, यह महिला नहाने के बाद अपनी आधी धोती (साड़ी ) से तन ढकती और आधी सुखाती और फ़िर सूखा हुआ भाग तन पर लपेट कर बचा हुआ भाग सुखाती, बापू की आत्मा को  इस दृश्य ने झकझोर दिया और उन्हो ने जाकर उस महिला को अपनी आधी खद्दर की धोती फ़ाड़ कर दे दी और शपथ ली कि मै अपना आधा तन तब तक नही ढकूगा जब तक इस देश के हर व्यक्ति के पास तन ढकने के लिये कपड़ा नही हो जाता और शायद यही से उनके चरखा मिशन की शुरूवात हुई उस महान आत्मा का प्रण जिसने दुनिया को सिखा दिया देने का सुख और वह चरखा जो हथियार बना अहिंसा का जिसकी बदौलत उस सल्तनत का सूरज दूब गया जो कभी नही डूबता था ।  शायद आप को भी "देने का सुख" कोई मिशन दे जाय और आप भी मानवता की राह मे कुछ ऐसा कर दे जो सदियों तक लोगों को लाभन्वित करता रहे । पिता जी ने जब मुझे ये वृतान्त सुनाया था तब शायद मेरा बालपन इसे पूरी तरह न समझ पाया हो पर आज जब मै यह वाकया लिख रहा हूं तो मेरा रोने का मन हो रहा है । क्योंकि हम उस मुल्क में रह्ते है जिसका आज़ादी के बाद अनियोजित विकास हुआ करोड़पति करोड़पति होते गये और गरीब गरीब, आदमी ने जो जहां चाहा पैसे और भ्रष्टाचार की बदौलत किया, चाहे वह वन्य जन्तुओं के घरों में घुस कर उनके आवास नष्ट करने का मसला हो या गरीब की झोपड़ी उजाड़ कर महल बनाने की प्रक्रिया..........................आदम इस धरती के प्राणियों को देना भूल ही गया बस छीनता चला गया, महाकवि तुलसी दास की एक चौपाई का एक टुकड़ा याद आता है "कि समरथ को नहि दोष गोसाई"


अब तो हमारे लोगों की आदत सी हो गयी है कुछ इस तरह ..................


न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

 हां अन्त में,  भाई अब खाली लेने देने से काम नही चलेगा कुछ बदलना होगा ?


कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-262727
भारतवर्ष
फ़ोन- 09451925997

Tuesday, September 15, 2009

हिन्दी दिवस और बेजुबान जानवर

कल हिन्दी दिवस था और विदा भी हो गया मामला जस का तस, अब पूछियें कि हिन्दी दिवस और बेजुबान जानवर में क्य संबध है ? बताता हूं । हमारी तमाम बोलियां, लिपियां, दुनियां में हमें भाषायी मामलें में सबसे धनी बनाती है पर क्या धनी होने का खिताब हमें मिला नही हां ऊपर से गैरो ने हम पर मेहरबानी ? करके अपनी भाषा जरूर थोप दी बेजुबान समझ कर जैसे हम अखबारों में रोज़ ही पड़ते है फ़लां गाय, साड़, या कुत्ता या फ़िर हिरन आदि के बारे में मीडिया विशेषण लगाती है अवारा, बेजुबान वगैरह वगैरह.........क्या आप सब ने कभी सोचा कि इन्हे अवारा किसने बनाया इस धरती पर ये हम से पहले से है और हमने इनके घरों में घुस कर इन्हे बेघर कर दिया और हमारी जबान में ये अवारा हो गये !!! बेजुबान क्यो ? धरती पर ऐसा कोइ जीव नही है जिसकी कोइ भाषा न हो ये अलग बात है कि हमने अग्रेजी पड़ने में इतना वक्त  जाया किया कि इनकी बेह्तरीन बोलियो से महरूम हो गये कोइ बात नही पर ये बेजुबान कैसे ! हम तो इतनी भाषाओं के धनी होने के बावजूद बेजुबानों की तरह अपनी जबान हिंदी के लिये लड़ते आये है पर हमें बेजुबान समझ कर कभी फ़ारसी तो कभी अंग्रेजी रटाई गयी और दुनिया की मेज पर हमें अगर कोइ बात कहनी होती है तो हम बेजुबानों की तरह या तो कुछ बोल नही पाते या फिर उन्ही की भाषा मे रिरियाने लगते है वाह क्या बात है .पर जब ये जानवर सदियों से अपनी अपनी बोली बोलते आ रहे है जिन मे लेशमात्र परिवर्तन हुआ हो शायद तब इन्हे हम बेजुबान कहते है अपनी अक्षमता के बजाय ...................!!

यहां मै किसी भाषा की बुराई नही कर रहा हूं आग्ल और फ़ारसी में दुनिया का बेह्तरीन साहित्य विग्यान भूगोल आदि आदि लिखा गया पर क्या हमने अपनी जुबान में ऐसे प्रयास किये ?
यहां मेरी अखबार और मीडिया के लोगों से गुजारिस है कि जबान वालों की जबान समझनें की कोशिश करे और प्रकृति में उनके सुन्दर गीतॊं को सुनने की कोशिश यकीन मानिये दुनिया के बेह्तरीन संगीत और गीत इस गीत के आगे फ़ीके पड़ जायेगे और धीरे धीरे आप इनकी बात समझने भी लगेगे ।

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन

मोहल्ला


कल की बात है मैं घर मे बैठा एक आगुन्तक से बाते कर रहा था की फ़तिमा और छबीली ने भौकना शुरू ए किया चुकिं इन दोनों की मोहल्लें में अतिक्रमण कर रहे H1 N1 (जैसा की आम चर्चा में है बेचारे जीव को लोग क्या बना डालते है) से रोज़ की झिक्क झाय है इसी कारण मैने कुछ खास तवज्जो नही दी कुछ देर बाद आदमी कहे जाने वाले जीव ने भिनभिनाना शुरू ए किया तो मेरे कान खड़े हो गये भाई मामला स्वजाति का था आज काल हिन्दुस्तान मे तो सरकारें इसी जाति वाले फ़ैक्टर पर बनती बिगड़ती है खैर मैं आनुवंशिक स्वजाति की बात कर रहा हूं डार्विन वाली पर यह जातिवाद भी बहुत खतरनाक है इसी वज़ह से तो हमारे प्लेनेट पर विलुप्त रेयर, एन्डैन्जर्ड, एक्सटिन्क्सन जैसे शब्द और समस्यायें अवतरित हुई खैर मैं भिनभिनानें की बात कर रहा था घर से बाहर निकला तो कोइ २० से २५ आदमी औरत सड़क पर थे और एक और निहार रहे थे सहमे से जैसे किसी बाघ ने रास्ता रोक रखा हो कुछ मनुष्य अट्टालिकाओं पर विराजमान होकर कौतूहल टाईप की भावभंगिमा प्रकट कर रहे थे जब मैं वहां पहुंचा तो माजरा संगीन और कष्ट्कारी था एक गाय तार में फ़ंसी हुई सड़क पर अचेत पड़ी थी लोग तमाशबीन थे ऐसा है मेरा मोहल्ला और मेरा ही नही यह तो मेरे पूरे देश की नियति है यदि अपवादों को छोड़ दिया जाये यहां जब कोई महात्मा या भगत सिंह अपना जीवन समर्पित कर देता है कोई चन्द्रशेखर अपने प्राणों की आहुति देता है और कोई अशफ़ाक, विस्मिल या राजनरायन फ़ासी पर झूल जाता है तब इस देश के लोगों की आखें नम होती है और तभी ज्वार भांटा जो कुछ कह ले आप आता है और ये भेड़ बकरियों की तरह चल देते है किला फ़तह करने बसर्ते सर कटवाने वाला मजबूत आदमी आगे आगे हो, ऐसे है हमारे मोहल्लें!!
गाय पीड़ा से कराह रही थी लोग बाग खुद तो जड़ थे यदि मै आगे बढ़ने की कोशिश करता तो मुझे रोकते अरे बिजली है कोइ चिल्लाता डिश (केबल) है अरे केबल है तो इतनी देर से क्या पिक्चर देख रहे थे सड़क पर दौड़ कर छुड़ाया क्यो नही मैने शायद ऐसा ही कुछ अपने मन में कहां !! तभी मुझे एक लड़का नज़र आया जिसके हाथ में बेंत (ड्ण्डा) था वह पोलिओ से पीड़ित था सो मैने उसके हाथ से ड्ण्डा लिया पर तब तक उसे निहारता रहा जब तक मुझे ये विश्वास नही हो गया कि वह अपनी दोनों टांगों पर कुछ देर खड़ा हो लेने में सक्षम है फ़िर डरते हुए बिजली या केबल (अभी यह रहस्य है) के तार को डण्डे से खीचने की कोशिश करने लगा कुछ कुछ यह जानते हुए कि इससे कुछ नही होने वाला आदमी एक जगह जड़्वत खडे़ अभी भी भिनभिना रहे थे तभी एक व्यक्ति उपस्थित हुआ मोहल्ले का ही जो बिजली विभाग में कार्यरत है प्लास के साथ और झट से तार को काट दिया गाय उठ खड़ी हुई मै मुस्करा उठा इस बेह्तरीन स्टंट पर जो मानवीय था अब आदमी और भन्नाने लगे किसका तार है किस के घर गया है केबल है केबल है तब उस आदमी ने जिस ने रक्षा की उस गाय की तार को लोगो की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा लो केबल है तो हाथ में लेकर देख लो अब आदम झटके से पीछे हटे दूर करो ! दूर रहॊ !! ऐसा है मुहल्ला और मेरे मुहल्ले के लोग एक छोटी सी जगह की नियत और व्यवहार बहुत व्यापक तौर पर उस देश या इलाके के लक्षणों को उजागर करता है ।
उस व्यक्ति को धन्यवाद और किस्सा आगे बढाता हूं

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन

Saturday, September 12, 2009

मेरा गांव

मैने भारत के एक गांव का और वहां की तमाम छोटी - बडी बातें हिंदी ब्लाग के माध्यम से सब के समक्ष रखने की कोशिश कर रहा हूं। आप पढ़ सकते है
क्लिक करे
http://manhanvillage.wordpress.com

Friday, September 11, 2009

मातृ नवमी और जीवों के प्रति दया- एक महान संस्कृति


अतुल्य भारत और इसके लोग जिनमे तमाम विविधिताओं के बावजूद इन्हे जोडती है हमारी संस्कृति जो हज़ारों वर्षों से लगातार पीढी दर पीढ़ी संचरित हो रही है और इसी का एक पारंपरिक उदाहरण बता रहा हूं आप सभी को जो आज़ मेरी मां ने मुझे बताया १३ सितम्बर २००९ को मातृ नवमी है उस दिन माताओं का श्राद्ध होता है मुझे आर्यों की यह पितृ प्रधान व्यवस्था कही कही बहुत अखरती है कि पितृ पक्ष के १५ दिनों में माताओं को श्रद्धांजली देने का एक दिन ही मुकर्रर किया गया और पूर्वजों को श्राद्ध देने का नामकरण पितृ पक्ष कह कर पिता प्रधान बनाया ना कि मातृ पक्ष इसका नामकरण ऐसा भी किया जा सकता था जिनमें मां और पिता दोनों को समानधिकार से सम्बोधित किया जा सके !! पर मुझे जो खास लगा वह ये कि उत्तर भारत के खेरी जनपद के मैनहन गांव जो मेरा पैतृक ग्राम है वहां उस रोज महिलायें तालाब में घाट पर स्नान करने के बाद माताओं के स्मरण में कथायें कहती है जिनमें एक कथा का जिक्र मैं यहां करना चाह्ता हूं महिलायें कहती है कि बहुत पुरानी बात है पितृ पक्ष का समय था सारे गृहस्थ अपने अपने पितरों के श्राद्ध अपनी अपनी क्षमता व श्रद्धानुसार कर रहे थे एक किसान जो अपने बैलों के साथ खेतों में हल चला रहा था और उसकी पत्नी घर पर श्राद्ध की तैयारी कर रही थी सो उसने भोजन दुग्ध आदि का बंदोंबस्त किया था तभी एक कुतिया घर में घुसी जो हमेशा इसी किसान के घर के आस पास रह्ती थी और उसने दुग्ध के बर्तन में जो आंगन मे रखा हुआ था अपना मुहं डाल दिया यह देख कर घर की मालकिन आग-बबुला होकर दौड़ी और कुतिया को मारने लगी कुतिया वहां से बदहवास होकर भागी और अपने निवास यानी एक कच्ची घारी (मिट्ती और फ़ूस से बनी बंद झोपड़ी)में जाकर छुप गयी वास्तव में किसान के बैलों के बांधने की यह अधिकारिक जगह थी जहां एक कोने में यह कुतिया ने भी अपना बसेरा बना लिया था!
उस रोज किसान कुछ देर में घर वापस लौटा खेतों में अधिक काम होने की वज़ह से उसे देर हो गयी पर घर आते ही पत्नी को आक्रोशित देख कारण पूछा पत्नी बोली आज़ कुत्ते ने दूध झूठा कर दिया और अब कैसे श्राद्ध आदि का प्रबंध हो और तुम भी इतनी देर में आये हो पत्नी के गुस्से को देखकर पति ने कहां कोइ बात नही अब शाम को भोजन बनाना
दोपहर की इस कहासुनी और अव्यव्स्था के चलते किसान ने बैल को भी न तो कुछ खिलाया और न ही पानी पिलाया शाम हो गयी पति पत्नी ने भोजन किय और विश्राम करने लगे रात्रि में किसान लघु शंका के लिये जब बाहर आया तो उसने घारी से आती हुयी आवाज़े सुनी जहां वह कुतिया और बैल रह्ते थे कुतिया बैल से कह रही थी कि आज़ बडा़ गलत हुआ आज़ बहू ने मुझे बहुत मारा जबकि मेरी कोइ गलती नही थी हुआ ये कि मै घर मे घुसी तो एक चील सांप को मुहं मे दबाये आसमान मे उड़ रही थी अचानक सांप उसकी पकड़ से छूट कर आंगन में रखे दूध में गिर गया मैने सोचा यदि भैया और बहू ने इसे खा लिया तो क्या होगा अब मै इस दूध को जूठा कर दू यही एक विकल्प था किन्तु मेरी वजह से भैया और बहू ने आज भोजन नही किया अब बैल कह रहा था कि आज़ भैया ने मुझसे बहुत काम लिया और कुछ खाने पीने को भी नही दिया कोई बात नही तुम्हे दुखी नही होना चाहिये तुमने उनकी जान बचाने के लिये ऐसा किया! हमारी भाग्य में ही दुख है ईस्वर ने हमें इस योनि में धरती पर भेजा है पर मेरा परिवार सुखी रहे यही कामना है उस किसान ने जैसे उनकी बात सुनी वह भागा घर की तरफ़ और पत्नी को जगा कर बोला उठॊ और जितना बेह्तेर से बेह्तर भोजन बना सको बनाओ पत्नी बोली आखिर बात क्या है उसने कहा बड़ा अनर्थ हो गया हमसे आज श्राद्ध का दिन था और वह कुतिया जिसको तुमने मारा वह मेरी मां है और बैल मेरे पिता जी है और उन दोनों को हमने दुख दिये इसके बावजूद वो हमारी भलाई की हि बात कर रहे है और उन्होने आज हम सब की जान बचाई उस दूध में सांप था इसी लिये उन्होने उसे जूठा कर दिया.हे भगवान ...........

रात्रि में किसान के घर भोजन बना कुतिया और बैल को प्रेम से भोजन व जल दिया और क्षमा मांगी जीवन पर्यन्त इस किसान ने उन जीवों की सेवा की और साथ ही साथ उसने किसी भी जीव को कष्ट न देने की शपथ ली कि पता नही किन में मेरे पितरों कि आत्मा का वास हो!

मै यहां ये कहना चाहूंगा की हमारी बेह्तरीन परंपराओं की यह एक झलक है हमारी परंपराओं में ८४ लाख प्रजातियों का जिक्र है और यह माना जाता है कि हम सभी कभी न कभी इन प्रजातियों के रूप में धरती पर आते है और यही धारणा बल देती है जीव संरक्षण को और यही कारण है की बच्चों को बचपन मेम सिखाया जाता था की बेटा चींटी मत मारना इसमें हमारे पूर्वजों का अंश हो सकता है बिल्ली को मौसी कौआ को मामा कटनास को भगवान शिव और न जाने कितने उदाहरण है जो पृकति से जोड्ते है हमें वैदिक परंपरा में तो जिससे हम कुच लेते है उसके प्रति कृतग्यता प्रगट करने के लिये रिचायें, सूक्तियां व मंत्र लिखे गये चाहे फिर वह वृक्ष हो या नदी या फिर गऊ माता...........मां गंगा, यमुना, ............


कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन- खीरी-२६२७२७
०९४५१९२५९९७

Wednesday, May 20, 2009

संविधान निर्माताओं में से एक मेरे घर से भी- पं० बंशीधर मिश्र


१६ राजा बनाम पं०वंशीधर मिश्र- अपने समय के बेहतरीन राजनीतिज्ञ

संविधान निर्मात्री सभा के लखीमपुर खीरी से पं० बंशीधर मिश्र जी सद्स्य थे , जब गुलाम भारत के नेताओं ने ब्रिटिश कैबिनेट मिसन के नेताओं ने एक निगोसिएसन के तहत संविधान सभा का चुनाव प्रदेशीय विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा किया गया उसमे भारत की तमाम रियासतों के राजा महराजाओं को भी हक था अपने वोट का प्रयोग करने का इस प्रकार संविधान सभा की प्रथम बैठक ९ दिसम्बर १९४६ को दिल्ली में हुई ब्रिटिश राज़ में, तब पाकिस्तान की विधान सभायें भी इसमे सम्मलित थी और वहां के राजा महाराजा भी कान्ग्रेस बहुमत मे थी, १५ अगस्त १९४७ के बाद जब पाकिस्तान भारत से अलग हुआ तब संविधान सभा में कुल २०७ सदस्य थे जिनमें २८ सदस्य मुस्लिम लीग़ के, १५ महिला सदस्य और ९० नामित विभिन्न रियासतों के नामित राजा-महाराजा, शेष कान्ग्रेस के सदस्य कांग्रेस पूर्ण बहुमत में थी ८२ % वोट कांग्रेस के पास थे। १५ अगस्त १९४७ को भारत (डोमेनिअन)की आज़ादी के बाद यही संविधान सभा लोकसभा के रूप में जानी गयी इस लिहाज़ से पं० बंशी धर मिश्र खीरी से पहले संसद सदस्य भी थे। खीरी के लोगों को फ़क्र होना चाहिये की यहां से किसी व्यक्ति ने भारत के संविधान पर हस्ताक्षर किये।
इस तरह से लखीमपुर खीरी का संविधान निर्माण में योगदान होने का गौरव हम सभी को होना चाहिये और इस गौरव को देने वाले व्यक्ति का पर इसे विडंबना ही कहेगे कि पं० जी की कोई फ़ोटो या प्रतिमा खीरी के किसी भी यथा उचित स्थान पर नही है और अब न ही लोग उन्हे जानते हैं यह दुखद है कि हम अपने गौरवशाली अतीत को भूलते जा रहे है तो फ़िर भविष्य कैसे बेह्तर होगा!

राजनीति का महारथी- पंडित वंशीधर मिश्र
आज भारत के चुनावी महापर्व पर मुझे कुछ पुराने समय के बेह्तरीन महापुरषों का स्मरण बरबस होता है जो मैने अपने पिता से दादा से, नाना से और मां से सुना आप सभी को बताता हूं!
सन १९५२ के प्रथम चुनाव जब लोकसभा और विधान सभा के चुनाव साथ साथ हुआ करते थे आजादी की लडाई का ताजा ताजा खुमार अभी बाकी था लोगो मे देश प्रेम के जज्बे अभी बाकी थे और इस प्रथम उत्सव में लोग बड़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे ......एक आज़ाद मुल्क के आज़ाद लोग !!
कांग्रेस जो प्रतीक थी आज़ादी की और भारत का गरीब तबका शायद राजा महाराजाओं को छोड कर धन के मामले में सभी गरीब थे। और ये सभी कांग्रेस के साथ थे उस समय खीरी से पण्डित वन्शीधर मिश्र विधान सभा का चुनाव लड रहे थे और लोक सभा से कुंवर खुसवक्त राय ! वंशीधर मिश्र असल में वह नाम था जिसके नाम से कांग्रेस और कांग्रेस के नाम से पंडित जी, उनकी तस्वीर देख कर ऐसा मालूम पड़्ता है वो नेता जी से प्रभावित थे उनका ऎनक सुभाष बाबू की तरह और उनका पहनावा भी सु्भाष जैसा और क्यो ना हो नेता जी पूरे भारत के हीरो थे भले वह कांग्रेस की राजनैतिक व्यवस्था से अलग रहे हो!
लक्ष्मीपुर यानी लखीमपुर खीरी जहां वन संपदा बहुतायात में थी तो वंशीधर जी के १९५२ के चुनाव जीतने के उपरान्त उत्तर प्रदेश सरकार का वन मंत्री बनाया गया, राजनीति में माहिर यह व्यक्ति किताबों के भी शौकीन थे और खीरी में इनसे ज्यादा किसी पुस्तकालय में भी पुस्तकेंनही थी कांग्रेस के बडे़ नेता कमलापति त्रिपाठी जैसे लोग इन्हे भेट में पुस्तके दिया करते थे पंडित जी के स्वर्गवास के पश्चात् इनकी बहुमूल्य किताबे अब लखीमपुर के गांधी विद्यालय में मौजूद है इन्होने कई पुस्तके लिखी जो अब गुमनामी में है|
शिव प्रकाश शुक्ल जी एडवोकेट बताते है कि सन १९५२ के प्रथम चुनाव मे पंडित जी के खिलाफ़ १६ स्थानीय कथित राजा चुनाव लड़ रहे थे (क्यो कि वे सिर्फ़ नाम के राजा थे अंग्रेजों ने सब को अपना नौकर बना रखा था ठेकेदार या तालुकेदार या छोटे जमींदार) और सभी राजाओं की जमानत जब्त हो गई। वजह साफ़ थी पंडित जी ने आज़ादी की लड़ाई मे अपनी उम्र के तमाम वर्ष जेल मे गुजारे और वह नेहरू के करीबी थे, अंग्रेजी राज में राजाओं और जमींदारो के जुल्मों से लहुलुहान हो चुका जनमानस अब आज़ाद भारत की प्रणेता कांग्रेस के साथ परिवर्तन चाहती थी ।
१९५७ के द्वतीय चुनाओ में कुछ स्थानीय राजशाही मानसिकता के लोगों ने वंशीधर जी पर चारित्रिक आरोप लगाये और इन संदेशों को पं नेहरू तक पहुचाया नतीजा ये हुआ कि ५७ के चुनाव में मिश्र जी को कांग्रेस ने टिकट नही दिया, इसका परिणाम ये हुआ कि ५७ में खीरी में कांग्रेस का लगभग सफ़ाया हो गया और प्रज़ा सोसियालिस्ट पार्टी की जीत हुई। मात्र शिकायत करने पर इस महान नेता का टिकट काटा गया पर आज नेताओं पर सैकड़ों मुकदमें लदे होने के बावजूद टिकट भी दिया जाता है और वह जीतते भी है।
उस दौर के चुनाव में जनता और नेता जिस चाव और इमानदारी से हिस्सा लेते थे जिसका पता मुझे मेरी मां की बातॊ से लगता है "मेरे नाना पं० रामलोटन मिश्र शास्त्री निवासी मुरई ताजपुर जो उस समय के कांग्रेस के बडे़ लीडरों मे से एक थे सहकारिता की राजिनीति में उनका सानी नही था वो छोटे जिमींदार की हैसियत रखते थे और बहुत ही मह्त्वाकाक्षी उनकी मह्त्वाकाक्षा इससे पता चलती है कि वह रसियन ट्रेक्टर तब रखते थे जब यहां के राजाओं के पास ट्रेक्टर नही थे हरगांव चीनी मिल के कई वर्षो डाइरेक्टर रहे, एक संस्मरण वंशीधर जी के भतीजे शिवप्रकाश शुक्ल जी बताते है कि मेरे नाना और मिश्र जी चुनाव प्रचार के दौरान लईया और चना साथ साथ बैठकर खाया करते थे और यही तब नेताओं का फ़स्ट फ़ूड हुआ करता था।
और कांग्रेस पार्टी के नेता, अम्मा बताती है जब पं० वंशीधर मिश्र घर आते थे तो मेरे नाना जी घर की महिलाओं से बडे़ वर्तनों मे लगातार पानी गर्म करने को कहते ताकि नेता जी और उनके समर्थकों को तुरन्त चाय पिलाई जा सके, अम्मा कहती है कि तब वह सिर्फ़ सात-आठ वर्ष की थी उन्हे याद है मेरे नाना जी माला पहनाकर स्वागत करते मिठाई खिलाते फ़िर चाय!! उन दिनों के चुनाओं मे मेरे नाना जी खेती के सारे पैसे जनता की सेवा में लगाते और पार्टी के प्रचार - प्रसार में उनकी इस आदत से घर मेम हमेशा दिक्कते रहती थी।
खीरी की राजिनीति में पं० वंशीधर मिश्र का नाम आज भी सर्वोपरि है और पूराने लोग उन्हे आज भी याद करते है इस दूषित राजिनीति के दौर में।
संविधान निर्माताओं में से एक मेरे घर से भी- पं० बंशीधर मिश्र
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन

Saturday, May 2, 2009

बचपन बचाओ पर कैसे ?

आज रात में मेरी मुलाकत एक बचपन बचाओ आंदोलन से जुड़े व्यक्ति से हुई काफ़ी चर्चा के बाद मैं घर आया और लगा सोचने इस समस्या को जो रोज़ हि मेरी आंखो से दो-चार होती रह्ती है!!
आखिर क्या करे हम जो भारत या धरती पर अन्य देशों में जहां बच्चों का बचपन मां की गोद, स्कूल, बाग-बगीचों, खेल के मैदानों के बज़ाये होटलों, खदानों, या लोगों के घरों चाकरी करते हुए गुजरता है!
दरसल हम समस्या की जड़ को नही तलाशते या यूं कह ले कि तलाशना नही चाहते, जो मैने समझा वह कह रहा हूं!

क्या विचारों, आंदोलनों और बाल गॄहों

Sunday, January 25, 2009

अवधी सम्राट पं बंशीधर शुक्ल

समाज वादी प्रकृति वादी व् देश प्रेमी कवि पं बंशीधर शुक्ल
कभी काव्य की बेह्तरीन भाषा रही अवधी अब मानो विलुप्ती के कगार पर है ऐसे में पं बंशीधर शुक्ल और प्रासंगिक हो जाते है हालांकि महाकवि तुलसीदास की रामचरित मानस युगों युगों तक इस भाषा को जीवित रखने में अकेले सक्षम है किन्तु आम जनमानस में इसका प्रचलन व वर्तमान परिस्थितियों पर लेखन लगभग समाप्त ही हो चुका है और खास बात ये कि अवधी क्षेत्र के वासी अपनी भाषा के प्रति कतई जागरुक नही है यहां पर मै आप सभी को बताना चाहूंगा कि बंशीधर शुक्ल ने अपना साहित्यिक सफ़र सन १९२५ से शुरु किया और इस लम्बे सफ़र का अन्त उनकी अंतिम सांस पर (१९८०) खत्म हुआ इस दौरान उन्होने साहित्य सेवा के साथ साथ अपनी कविताओं को देश प्रेम से सुसज्जित कर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दिया पं बंशीधर शुक्ल ने आज़ादी के उपरांत अपनी प्रिय राजनैतिक पार्टी कांग्रेस को अलविदा कह समाज़वादी विचारधारा से जुड गये और प्रजा सोसलिस्ट पार्टी से एम०एल०ए० चुने गये इस दौरान आप ने कांग्रेस शाही के खिलाफ़ खुब लिखा आप का मत था कि कांग्रेस अब वह पार्टी नही रही जिसने भारत को आजादी दिलायी और कांग्रेस अब शासक के रूप में आम आदमी को नज़रंदाज़ कर रही है और इसमें भ्रस्टाचार व्याप्त हो चुका है किंतु शुक्ल जी का राजिनीतिक सफ़र कांग्रेस से ही शुरु हुआ था पर पार्टी के सत्ता में आ जाने के बाद इनका कांग्रेस से मोहभंग हुआ अंततः आप ने जननायक जय प्रकाश नरायन के नेत्रत्व में आम आदमी की लडायी लडना शुरु किया!
आप की दो रचनायें हिन्दोस्तान के जनमानस में खूब प्रचारित हुई जिसमें एक रचना नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्च गीत बनी तो दूसरी बापू के सबरमती आश्रम की प्रातः काल की प्रार्थना ।

आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्च गीत
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पर लुटाये जा
उडी तमिस्र रात है , जगा नया प्रभात है,
चली नयी जमात है, मानो कोइ बरात है,
समय है मुस्कराये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पर लुटाये जा।
जो आ पडे कोइ विपत्ति मार के भगाये गे,
जो आये मौत सामने तो दांत तोड लायेंगे,
बहार की बहार में,
बहार ही लुटाये जा।
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा,
जहाम तलक न लक्ष्य पूर्ण हो समर करेगे हम,
खडा हो शत्रु सामने तो शीश पै चडेगे हम,
विजय हमारे हाथ है
विजय ध्वजा उडाये जा
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा
कदम बढे तो बढ चले आकाश तक चढेंगे हम
लडे है लड रहे है तो जहान से लडेगे हम,
बडी लडाईया है तो
बडा कदम बडाये जा
खुसी के गीत गाये जा
निगाह चौमुखी रहे विचार लक्ष्य पर रहे
जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ़ नज़र रहे
स्वतंत्रता का युद्ध है
स्वतंत्र होके गाये जा
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पर लुटाये जा।

साबरमती आश्रम का प्रार्थना गीत

उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है
जो सोवत है सो खोवत है
जो जागत है सो पावत है
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है

टुक नींद से अंखियां खोल जरा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीति करन की रीति नही
जग जागत है तू सोवत है

तू जाग जगत की देख उडन,
जग जागा तेरे बंद नयन
यह जन जाग्रति की बेला है
तू नींद की गठरी ढोवत है

लडना वीरों का पेशा है
इसमे कुछ भी न अंदेशा है
तू किस गफ़लत में पडा पडा
आलस में जीवन खोवत है

है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा
उसमें अब देर लगा न जरा
जब सारी दुनियां जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है

इस गीत से मेरा परिचय बहुत पुराना है क्यो कि जब मै बहुत छोटा था तो मेरे पिता जी मुझे येह गीत गवाते थे और कहां करते थे ये पं बंशीधर शुक्ल जी का है और रेडियो पर भी ये गीत उन दिनों सुबह सुबह प्रसारित होता था

मेरे पिता श्री रमेश चंद्र मिश्र ने शुक्ल जी के कई संस्मरण सुनाये जिनमे मुझे एक आज़ भी बहुत प्रभावित करता है पिता जी बताते थे कि शुक्ल जी जब विधायक थे तो उन्हे उनके क्षेत्र में गरीब जनता को कंबल आदि वितरित करने के लिये दिये जाते थे पंडित जी लखनऊ से रेल द्वारा यह सामग्री लेकर चलते और रास्ते भर में जो भी गरीब जन मिलते वो कंबल उन्हे दे देते और लखीमपुर आते आते उनके पास कुछ नही बचता जिसे वह अपने क्षेत्रवासियों मे बांटते यहां तक कि जो उनका अपना वस्त्र भी गरीबों मे बांट देते।
प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी को शुक्ल जी के गांव मन्योरा जिला लखीमपुर खेरी उत्तर प्रदेश में शुक्ल जी की जयंती मनायी जाती है इस अवसर पर साहित्यकार, नेता और प्रशासक सभी उपस्थित होते है कभी शुक्ल जी के जीवनकाल के आयोजनों मे उनके गांव अमृतलाल नागर जैसे महान व्यक्तित्व अपनी उपस्थित देते थे
खीरी जिले के वरिष्ठ पत्रकार व सुभाषवादी श्री विद्यासागर जी जो शुक्ल जी के काफ़ी नजदीक लोगों में से थे बतते है कि शुक्ल जी मुझ से कहां करते थे कि मेरे जिंदा रहने तक मेरी उपियोगिता किसी को नज़र नही आती पर जब मै मर जाऊ गां तो लोग समाज और सरकार सब में बडा उपियोगी हो जाउगां ......................शायद वोह सही ही कहते थे दुनिया कि यही रीति है॥!!!

अंत में मुझे जिस चीज़ ने शुक्ल जी के साहित्य का काय;ल बना दिया उसका जिक्र करता हूं शुक्ल जी की रचनायें देश प्रेम किसान की व्यथा गावं की माटी और समाज की मौजूदा समस्याओं का प्रतिनिधित्व तो करती ही है पर सबसे अधिक निरीह जीव जंतुओं, के प्रति लिखी गयी रचनायें उनके प्रकृति प्रेमी होने का प्रमाण देती है पक्षियों नीलगाय, वृक्ष, नदियां व मादा गिद्ध के सती यानी अपने साथी की मृत्यु के उपरांत शोक में देह त्याग देने का जो भाव पूर्ण वर्णन किया है वह किसी के भी मन को द्रवित कर देगा जंगल व जंगल के जीवों के बारे मे शुक्ल जी ने जो कुछ लिखा है वह एक पृकतिवादी के ही विचार हो सकते है उनकी इन रचनाओं को कनमानस के मध्य प्रसारित होना चाहिये जिससे भौतिक वादी अपने वस्तविक पथ से भटका हुआ स्वार्थ लोलुप मनुष्य प्रकृति की ओर सन्मुख हो सके।

कृष्ण कुमार मिश्र
लखीमपुर खेरी
९४५१९२५९९७