भारत का एक राज्य जो नेपाल की सरहदों को छूता है, उन्ही सरहदों से मिला हुआ एक विशाल जंगल है जिसे दुधवा टाइगर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यह वन उत्तर प्रदेश के खीरी जनपद में स्थित है यहां पहुंचने के लिए लखनऊ से सीतापुर-लखीमपुर-पलिया होते हुए लगभग २५० कि०मी० की दूरी तय करनी होती है। दिल्ली से बरेली फ़िर शाहजहांपुर या पीलीभीत होते हुए इस सुन्दर उपवन तक पहुंचा जा सकता है।
एक फ़रवरी सन १९७७ ईस्वी को दुधवा के जंगलों को नेशनल पार्क का दर्ज़ा हासिल हुआ, और सन १९८७-८८ ईस्वी में टाईगर रिजर्व का। टाईगर रिजर्व बनाने के लिए किशनपुर वन्य जीव विहार को दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में शामिल कर लिया गया । बाद में ६६ वर्ग कि०मी० का बफ़र जोन सन १९९७ ईस्वी में सम्म्लित कर लिया गया, अब इस संरक्षित क्षेत्र का क्षेत्रफ़ल ८८४ वर्ग कि०मी० हो गया है।
इस वन और इसकी वन्य संपदा के संरक्षण की शुरूवात सन १८६० ईस्वी में सर डी०वी० ब्रैन्डिस के आगमन से हुई और सन १८६१ ई० में इस जंगल का ३०३ वर्ग कि०मी० का हिस्सा ब्रिटिश इंडिया सरकार के अन्तर्गत संरक्षित कर दिया गया, बाद में कई खैरीगढ़ स्टेट के जंगलों को भी मिलाकर इस वन को विस्तारित किया गया।
सन १९५८ ई० में १५.९ वर्ग कि०मी० के क्षेत्र को सोनारीपुर सैन्क्चुरी घोषित किया गया, जिसे बाद में सन १९६८ ई० में २१२ वर्ग कि०मी० का विस्तार देकर दुधवा सैन्क्चुरी का दर्ज़ा मिला ये मुख्यता बारासिंहा प्रजाति के संरक्षण को ध्यान में रख कर बनायी गयी थी। तब इस जंगली इलाके को नार्थ-वेस्ट फ़ारेस्ट आफ़ खीरी डिस्ट्रिक्ट के नाम से जाना जाता था किन्तु सन १९३७ में बाकयदा इसे नार्थ खीरी फ़ारेस्ट डिवीजन का खिताब हासिल हुआ।
उस जमाने में यहां बाघ, तेंदुए, गैंड़ा, हाथी, बारासिंहा, चीतल, पाढ़ा, कांकड़, कृष्ण मृग, चौसिंघा, सांभर, नीलगाय, वाइल्ड डाग, भेड़िया, लकड़बग्घा, सियार, लोमड़ी, हिस्पिड हेयर, रैटेल, ब्लैक नेक्ड स्टार्क, वूली नेक्ड स्टार्क, ओपेन बिल्ड स्टार्क, पैन्टेड स्टार्क, बेन्गाल फ़्लोरिकन, पार्क्युपाइन, फ़्लाइंग स्क्वैरल के अतिरिक्त पक्षियों, सरीसृपों, एम्फीबियन, पाइसेज व अर्थोपोड्स की लाखों प्रजातियां निवास करती थी।
कभी जंगली भैसें भी यहां रहते थे जो कि मानव आबादी के दखल से धीरे-धीरे विलुप्त हो गये। इन भैसों की कभी मौंजूदगी थी इसका प्रमाण वन क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों पालतू मवेशियों के सींघ व माथा देख कर लगा सकते है कि इनमें अपने पूर्वजों का डी०एन०ए० वहीं लक्षण प्रदर्शित कर रहा है।
मगरमच्छ व घड़ियाल भी आप को सुहेली जो जीवन रेखा है इस वन की व शारदा और घाघरा जैसी विशाल नदियों मे दिखाई दे जायेगें। गैन्गेटिक डाल्फिन भी अपना जीवन चक्र इन्ही जंगलॊ से गुजरनें वाली जलधाराओं में पूरा करती है। इनकी मौजूदगी और आक्सीजन के लिए उछल कर जल से ऊपर आने का मंजर रोमांचित कर देता है।
यहां भी एक दुखद बात है कि इन नदियों को खीरी की चीनी मिले धड़ल्ले से प्रदूषित कर रही है जिससे जलीय जीवों की मरने की खबरे अक्सर सुनाई देती है किन्तु अफ़सरों के कानों तक इन मरते हुए दुर्लभ जीवों की कराह नही पहुंचती, शायद इन दर्दनाक ध्वनि तंरगों को सुनने के लिए उनके कान संक्षम नही है जिन्हे इलाज़ की जरूरत है और आखों की भी जो नदियों खुला बहते गन्दे नालों को नही देखपा रही है। प्रदूषण कानून की धज्जियां ऊड़ाते हुए मिलॊं के गन्दे नाले..........!
किन्तु उस समय राजाओं और अंग्रेजों ने अपने अधिकारों के रुतबें में न जाने कितने बाघ, तेन्दुए, हाथी व गैंड़ों को अपने क्रूर खेल यानी अपना शिकार बनाया फ़लस्वरूप दुधवा से गैंड़े व हाथी विलुप्त हो गये, इसके अलावा दोयम दर्ज़े के मांसाहारी जीवों को परमिट देकर मरवाया जाता था, इसका परिणाम ये हुआ कि हमारे इस वन से जंगली कुत्ते विलुप्त हो गये। जंगल के निकट के ग्रामीण बताते है उस दौर में हुकूमत उन्हे चांदी का एक रुपया प्रति जंगली कुत्ता मारने पर पारितोषिक के रूप में देती थी।
परमिट और भी जानवरों को मारने के लिए जारी होता था, उसका नतीजा ये हुआ कि अब चौसिंघा, कृष्ण मृग, हाथी भी दुधवा से गायब हो चुके है। कभी-कभी हाथियों का झुंड नेपाल से अवश्य आ जाता है खीरी के वनों में,
इन सरकारी फ़रमानों ने और अवैध शिकार ने दुधवा के जंगलों की जैवविविधिता को नष्ट करने में कोई कसर नही छोड़ी, लेकिन मुल्क आज़ाद होते ही सरकारी शिकारियों का भी अन्त हो गया और तमाम अहिंसावादियों ने जीव संरक्षण की मुहिम छेड़ दी नतीजतन खीरी के जंगलों को प्रोटेक्टेड एरिया के अन्तर्गत शामिल कर लिया गया और प्रकृति ने फ़िर अपने आप को सन्तुलित करने की कवायद शुरू कर दी।
अफ़सोस मगर इस बात का है कि आज़ भी अवैध शिकार, जंगलों की कटाई, और मानव के जंगलों में बढ़ते अनुचित व कलुषित कदम हमारे जंगलों को बदरंग करते जा रहे है।
पक्षियों की लगभग ४०० प्रजातियां इस जंगल में निवास करती है, हिरनों की प्रज़ातियां, रेप्टाइल्स, मछलियों की और बाघ, तेन्दुए, और १९८४-८५ ई० में पुनर्वासित किए गये गैन्डें अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे है, लालची मानव प्रजाति से।
दुधवा के डाक बंग्लों जिनमें सोनारीपुर, सलूकापुर, सठियाना, चंदन चौकी, किला घने जंगलों के मध्य अपनी ब्रिटिश-भारतीय शैली की बनावट की सुन्दरता से किसी का भी मन मोह ले।
इतने झंझावातों के बावजूद दुधवा की अतुल्य वन्य संपदा जिसका एक भी हिस्से का अध्ययन नही हो पाया है ढ़ग से, उस सुरम्य प्राकृतिक वन को देखकर किसी का भी ह्रदय पुलकित हो उठेगा।
कृष्ण कुमार मिश्र
७७-शिव कालोनी लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश, भारत