आदम की कहानी में स्त्री पुरुष का यह राजनैतिक, सामाजिक, एवं वैक्तिक भेद के अफसानों से पहले "दिन" की परिभाषा पर बात करना चाहूंगा, सूरज के निकलने और डूबने के मध्य का वक्त, तारीखों से पहले की बात है, जब आदमी को दिन के अतरिक्त समय की कोइ गणित नहीं मालूम थी, जब तारीख नहीं थी तो तवारीखों की बात करना बेमानी होगा, और तब आज के साइबेरिया कहे जाने वाले जैसे किसी इलाके में किसी जगह कोइ औरत हाथ में पत्थरों के औजार लेकर अपने अन्य स्त्री-पुरुष व् पुत्रों और पुत्रियों के साथ अपने कुटुंब की भूख मिटाने के लिए निकलती थी, उन बर्फीले पहाड़ों में, उसे यह नहीं पता होता था की इस शिकार यात्रा के बाद लौटते हुए उसमे से कितने अपने प्रवास स्थल पर वापस लौटेंगे, और उस नेतृत्व करने वाली औरत की पूरी जिन्दगी, जब तक उसकी हड्डियों में इतना बल रहता की वह जंगली जानवरों से लड़ सके, मौसम की मार को सहन कर सके तब तक वह अपने कुटुंब का भरण पोषण करती रहती और उसके बाद उसकी पुत्री इस नेतृत्व को आगे बढाती....पिता जैसी किसी परिभाषा ने अब तक जन्म ही नहीं लिया था...एक मातृ सत्ता के सरंक्षण में जीवन संघर्ष में रचा बसा आदमी...
कहानी आगे बढ़ती है, स्त्री नेतृत्व में शिकार दल जब मांस के अतिरिक्त जंगलों से फल फूल लाता और अपनी गुफाओं के आस पास खाए जा चुके फलों के बीजों को फेक देता तो कुछ समय बाद वहां पौधे उगते दिखाई देते, और उनमे उन्ही फलों की तरह फल, जिन्हें वह जंगलों से खोज कर लाते थे, बस यही वक्त था कृषि के आविष्कार का, और शायद इस आविष्कार की जननी भी कोई नेतृत्व करने वाली स्त्री ही रही होगी,...वक्त गुजरने के साथ ही आदमी की संख्या भी बढ़ने लगी और शिकार के लिए आपसी संघर्ष भी,...इलाके बांटे जाने लगे समुदायों के...आवश्यकताओं ने जब अपना असर जोर किया तो आदमी खेती और पशु-पालन की जुगत में लग गया, फिर क्या था आदमी प्रवासी से निवासी बन गया, साथ ही जमीन और पशुओं पर मालिकाना हक़ भी...स्त्री अभी भी स्वन्त्रत थी किन्तु जमीन और पशुधन पर अधिकार के भावों का प्रादुर्भाव हो चुका था, अभी जो बाकी था वह, धातुओं की खोज और आदम समुदायों में उनकी बढ़ती मांगों ने पूरा कर दिया, अभी तक जो जमीन जंगल जानवर और जरूरी हथियार मानव के पास अपनी जीविका चलाने के लिए ही थे, वह अब संपत्ति के रूप में तब्दील हो गए...आवश्यकता व्यापार में बदल गयी.....और धन का प्रादुर्भाव हो गया.....बस यही वह छड थे इतिहास में जब आदमी की स्वाभाविक स्वछंदता में भय उत्पन्न हुआ संपत्ति के सरंक्षण और अधिकार के खो जाने का.....जो मानव धरती पर प्रकृति की सत्ता में खुद को आनन्दित पाता था बिना तेरा-मेरा के, वही आदमी अब खुद स्वामी बनने को आकुल हो उठा, यही पहला चरण था स्त्री के संपत्ति बनने का...जमीन, पशुधन को तो आदमी पहले ही अपने अधिकार क्षेत्रों में ले चुका था, बस उसे इस संपत्ति का वारिस चाहिए था! और संपत्ति के दाखिल खारिज के पश्चात उसका मालिक कौन हो? इस बात के लिए आदमी को अब स्त्री को भी अपने अधिकार क्षेत्र में लाने की कवायदे करनी थी....अंतत: हुआ भी ऐसा, जो स्त्री नेतृत्व करती थी अपने समुदाय के भरण पोषण के लिए, जो स्वछंद थी आदेशित करने के लिए वह अब एक पुरुष के संसर्ग में आने वाली थी जीवन पर्यंत के लिए...अतीत की इस घटना ने एक मौजूदा कहावत को चरितार्थ कर दिया था...जर जोरू और जमीन..!
स्त्री पुरुष के इन स्थाई? संबंधों ने सभ्यता को एक नया रूप दिया, पिता और बंधु-बांधवों के रिश्तों का प्रादुर्भाव हुआ, घर बने, नगर विकसित हुए, व्यवसाय में क्रान्ति आई, और साथ ही संघर्ष बढ़ा आदमी और आदमी के बीच, जो आज भी अनवरत जारी है, इतिहास के कालखंडों में इसी जार जोरू जमीन के लिए बड़ी बड़ी क्रांतियाँ हुई जिन्हें महाभारत जैसे तमाम महा-काव्यों में पढ़ा जा सकता है, ...हालांकि इस मातृ सत्ता से पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के बीच के समय में सभ्यता में बहुत से संक्रमण हुए....आदमी जंगलों अर्थात प्रकृति से दूर होता गया भौतिकता के पथ पर चलते चलते उसने कई कीर्तिमान गढ़े...तकनीक और विज्ञान के आज तक के सफ़र में ये वही सदियों पुराना मानव अब भी बिना पीछे मुड़ कर देखे हुए आगे बढ़ता जा रहा है, अब माता-पुत्र के संबंधों के बजाए पिता-पुत्र के रिश्तों की सामाजिक पहचान होने लगी, समुदायों में, परिवारों में और सरकारों में, पिता के नाम से उसकी अगली पीढी जाने जानी लगी और दर्ज भी होने लगी, सरकारी तौर पर तो माता अप्रासंगिक ही हो गयी, गाँव का पटवारी व् जिले का कलेक्टर या अस्पताल का डाक्टर अपने दस्तावेजों में पुरुष का ही नाम दर्ज करता स्त्री की यदि बात आती तो कोइ भी नाम दर्ज कर दिया जाता, क्योंकि जर और जमीन पर स्त्री का कही कोइ अधिकार नहीं था, बस वह कथित गृह स्वामिनी और समाज में कथित तौर पर जानी पहचानी जाने वाली किसी की पत्नी या माता के रूप में स्थापित होती रही, यहाँ तक की मताधिकार के लिए मत सूचियों और परिवार रजिस्टरों में भी फर्जी नामों से जानी जाती रही ये स्त्रियाँ, यदि इन्हें मताधिकार प्रयोग करने के लिए जाना होता तो पति के नाम से ही इनकी पहचान होती...विडम्बना के क्षण थे ये और वजह थी संपत्ति में मालिकाना हक़ का न होना, पता नहीं इतिहास के उन कैसे क्षणों में स्त्री ने अपनी सत्ता को पुरुषों के हवाले किया और साथ ही अपने उन सारे हुनर भी हवाले कर दी पुरुषों के, स्त्री अब यदि कलाकार होती तो उसके उस हुनर को तमाशा मान लिया जाता, चाहे फिर वह नृत्य कला में पारंगत हो या गायन में या फिर घुड़सवारी में और या हथियारों के चलाने में, स्त्री की इन तमाम खूबियों को राज दरबारों से लेकर धर्म के गलियारों तक तमाशबीनों के मध्य तमाशा बनाया जाता रहा, पर कहानी के दूसरे पहलूँ में यह स्त्री बंधू बांधवों, पुत्र-पुत्रियों, नाते-रिश्तेदारों के मध्य सम्मानित व् गरिमामयी भी रही, इस घरेलू स्त्री के अपने कुछ विशेषाधिकार भी रहे.....कन्या के रूप में भी और देवी के रूप में भी यह तमाम सभ्यताओं में पूज्य रही...मानव प्रजाति के यह दो रूप विघटित कब से होने लगे यह जरूर शोध का विषय है, समाज की किन मनोदशाओं ने यह अलगाववादी मानसिकता को जन्म दिया? कब ये टकराव सामने आये, उस एक ही मानव में ...स्त्री पुरुष के अलाहिदा हक व् हुकूक के ....
कही न कही मताधिकार के प्रयोग से वंचित रखना, युद्ध व् खेल के मैदान में सिर्फ पुरुषों का होना, तथा लेखन आदि कलाओं में पुरुषों को ही महत्त्व मिलना, ये सब का कारण एक ही लगता है की व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी पुरुष के हाथ में होना, प्रासंगिक भी वही होता है जिसके हाथ में जिम्मेदारिया होती है और जो उन्हें पूरा करता है, जाहिर है की तमाम अच्छे बुरे दोनों हालातों से स्त्रियाँ वंचित रही जिनसे पुरुष को ही दो चार होना था..आज वक्त बदला रहा सामाजिक व्यवस्थाएं भंग हो रही है, और स्त्री पुरुष के मध्य क़ानून की रेखाएं भी खींची जा रही है, एक पूर्णतया सरकारी व्यवस्था का अंग हो रहा है यह स्त्री पुरुष, और अब जब स्त्री पुरुष के बराबर दुनियाबी सभी कामों में शिरकत कर रही है, तो उसे भी दो चार होना पड़ रहा है उन कठिनाइयों से, जिनसे अभी तक पुरुष ही सामना करता आ रहा था, फिर चाहे वह आफिस में किया जाने वाला बुरा बर्ताव या फिर जंग के मैदान में दुश्मन की गोली, अब जो स्त्रियाँ इन कार्य क्षेत्रों में है जहां सिर्फ पुरुष ही थे कभी तो उन्हें भी उन सबसे गुजरना पड़ रहा है, कुलमिलाकर व्यवस्था में स्त्री पुरुष के समावेश से दोनों को को अब वह लाभ और हानि उठाने पड़ रहे है जिन्हें अभी तक पुरुष ही भोगता और झेलता आया है, फिर यह हल्ला क्यों....जब एक सी जिम्मेदारियां होगी तो जाहिर है टकराव होगा, जिम्मेदारियां जब बांटी गयी थी तब ये टकराव नहीं थे फिर चाहे वह माता की सत्ता की व्यवस्था हो या पिता की, हाँ स्वीकार्यता थी यहाँ पर स्त्री और पुरुष दोनों की एक दूसरे की सत्ता की......
आदि मानव से चलकर आदमी का कारवां जब देवत्व की अवधारणा तक पहुंचा, देव-भाषाएँ गढ़ी गयी और उनमे देवी देवताओं की महिमा का गुणगान भी, वहां भी देवी अर्थात स्त्री सर्व-पूज्य रही, इसी देव भाषा अर्थात संस्कृत का एक शब्द है "महिला" जिसका पर्याय होता है "जो तमाम शक्तियों से विभूषित हो" बिनोवा भावे ने अपनी पुस्तक "स्त्री शक्ति" में इस ब्रह्मचारी ने प्रकृति में महिला तत्व की बहुत सुन्दर व्याख्या की...किन्तु यदि आज के अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मनाये जा रहे दिवसों की तरफ दृष्टी डाले तो यह सिर्फ दुनिया का सारा जिम्मा अपने ऊपर लेने वाली कुछ संस्थाओं की एक राजनैतिक कवायद है, बहुत से फंड को खर्च कर विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा खुद की प्रासंगिकता सिद्ध करना ज्यादा जाहिर होता है इनमे, हालांकि इसी बहाने कुछ लाभ अवश्य मिल जाता है उस विषय वस्तु को जिस पर यह कथित दिन आधारित होते है !
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आठ मार्च मुख्यता योरोप में सन २००९ में महिलाओं द्वारा किये गए आन्दोलन जो कि कपड़ों के व्यवसाय में सलग्न कामगार महिलाओं ने किया था, की स्मृति में मनाया जाता है, यह आन्दोलन भी सोशियालिज्म से प्रभावित था, बाद में सन २०१४ में जर्मनी में मताधिआर के लिए महिलाओं ने आन्दोलन किए और रूस में भी तमाम कामगार महिलाओं ने आवाज बुलंद की, सच्चाई ये थी की ये आन्दोलन दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ थे और साम्यवाद के उद्भव की यह शुरूवात थी. बस २६ फरवरी और आठ मार्च के मध्य जो असमंजस है वह जूलियन कैलेण्डर व् ग्रेगेरियन कैलेण्डर के बीच की गणनाओं की रस्सा-कसी का नतीजा है....अब भारत ने भी पिछले वर्ष से सरोजनी नायडू के जन्म दिवस पर राष्ट्रीय महिला दिवस मनाना शुरू ए किया है ....भारत में ही नहीं दुनिया में तमाम जीव जंतुओं के लिए दिवस घोषित किए है, सयुक्त राष्ट्र में बड़ी बड़ी योजनाए और कार्यक्रम बनते है, किन्तु बाघ दिवस हाथी दिवस आदि दिवसों की जगह पर उनके दिवसों को लिंग के आधार पर दिवस मनाने की परम्परा अभी नहीं शुरू हुई, यहाँ लिंग भेद नहीं है, प्रजाति पर फोकस है!...
फिर मौजूदा वक्त में ये दिवस उल्ल्हास का प्रतीक नहीं रहे, जिस भी जीव पर संकट मँडराता है, उसके नाम से दिवस घोषित कर दिए जाते है, यह दिवस प्रतीक है उस विषय के लिए जिसके लिए दिवस मनाया जा रहा है, तो फिर संस्कृत का यह शब्द क्या झूठा जिसमे स्त्री को महिला शब्द से चिन्हित किया गया, जो शक्तियों से विभूषित है, जिसकी सत्ता घर और समाज दोनों में है, नजरिया बदलने की आवश्यकता है समाज को संस्कार देने की भी, क्योंकि कोई भी क़ानून किसी के अधिकार पूर्णतया नहीं दिला सकता जब तक उसकी सामाजिक मान्यता नहीं और न ही अपराधों को रोक सकता है, स्त्री या पुरुष दोनों की पहचान समाज में उसके कुल जाति धर्म से होती थी, अब सरकारी दस्तावेजों में सामान्य पिछड़ी और अनुसूचित जाति में होती है, बस हमने पुराना तानाबाना ख़त्म कर एक नई व्यवस्था लागू कर दी, किन्तु क्या इन सभी अगड़ों या पिछड़ी जातियों में एकता आ गयी ..एक जगह नाम दर्ज कर देने से ...खैर सरकारी अधिकार महिला पुरुष दोनों के बराबर हो यह जरूरी है किन्तु इनके बीच सरकारी लकीर न खींची जाए और न ही इन्हें सामाजिक व्यवस्था से अलाहिदा किया जाए....क्योंकि क़ानून समाज के बाद का मुद्दा होता है....और सामाजिक न्याय सरकारी न्याय से बड़ा ...
दिवसों के पीछे छुपी बेचारगी और आडम्बर युक्त करुणा से दूर ही रहे तो अच्छा है, क्रान्तियाँ हो पर मुद्दों पर फिर वो चाहे महिला के मताधिकार की हो यह उसके नौकरी या व्यवसाय से जुडी हो, तभी शायद मैंने कही लिखा था की "अब पुरुष दिवस कब मनाया जाएगा" उसके पीछे भी यही वजह थी ! एक व्यंग जिसके पीछे वो तथ्य है जो कमजोरी बयान करते है दिवसों को आक्षेपित करने वाले जीव या वस्तु की !
प्रकृति को सब मालूम होता है तभी तो उसने विद्धुत ऊर्जा के आविष्कार से करोड़ो वर्ष पहले पक्षियों के पंजों को रक्तहीन बनाया ताकि बिजली के तारों में दौड़ते करंट से वह बच सके, और एकलिंगी पुष्पों के अलावा द्विलिंगी पुष्प भी ताकि महिला पुरुष जैसे पुष्प अलाहिदा होने लगे कानून की किताबों से लेकर यथार्थ में भी तब भी प्रकृति की गति यूं ही चलती रहे....!!
शुभकामनाएं और महिलाओं से क्षमा यदि कुछ यथोचित न लगे मेरे लेखन में !
कृष्ण कुमार मिश्र
krishna.manhan@gmail.com