Thursday, July 29, 2010

जो रईंसों के घर-आँगन में खिलने का गरूर रखते थे!

Kachnar: Photo courtsey: Wikipedia.com
पुष्पवाटिकायें जिनसे महरूम रहा आम आदमीं!

बात फ़ूलों की करना चाह्ता हूं, चूंकि मसला खूबसूरती और खुशबुओं का है, तो थोड़ा हिचक रहा हूं! प्रकृति की अतुलनीय सुन्दरता का बखान करना वर्तमान में मुश्किल और पिछड़ेपन  की निशानी है..इन महान साहित्य पुरोधाओं के मध्य…क्योंकि वह समाज की गन्दगी जो उनकी नज़र में पहले से मौजूद है, रिस्तों की कड़वाहट जो उनके घरों में विद्यमान है…दुखों, करूणाओं और प्रेम के तमाम विद्रूप आकार-प्रकारों को (जो उनके मन शाम-सबेरे हर वक्त उपजते रहते हैं) बेचते ये बुद्धि-विद्या के स्वयंभू अब प्रकृति की बात करने में शर्मसार होते है..कारण स्पष्ट है कि रेलवे स्टेशनों, बसड्डों बुक स्टालों पर प्रकृति प्रेम! नही खोजते यात्री! और राजिनीतिक गलियारों में वोट और गोट में प्रकृति समा ही नही सकती!…फ़िर कौन बेवकूफ़ इन्हे फ़ूल, पत्तियों पर लेखन के लिए पुरस्कृत कर देगा! खैर..मैं लिए चलता हूं कालीदास और उस दौर के तमाम…. प्रकृतिकारों का नाम भूल रहा हूं!!!!…..  जब सरोवरों में कमल-कमलिनियां पुष्पित होते थे और राज-कन्यायें उनमें स्नान करने आया करती थी…तो घोड़े पर सवार राज-पुरूषों के घोड़ो को अक्सर उन्ही सरोवरों पर पानी पिलाना आवश्यक होता था !! महलों और बगीचों में युनान,  मंगोलिया, अरब देशो से लाये गये वृक्षों, झाड़ियों, और लताओं की सुनहरी छटाओं का जिक्र रामायण काल से लेकर राज महलों व बौद्ध मठों तक विस्तारित था! मुगलों ने भी दुनियाभर से प्रकृति के विविध रूपों को अपने बगीचों में खूब इकट्ठा किया….फ़ुलवारियों के रूप में!…हाँ हमें अंग्रेजों को कतई नही भूलना हैं जिन्होंने दुनिया में मौजूद अपने साम्रराज्य के प्रत्येक भू-भाग पर उगने वाली सुन्दरता को भारत के विविधता पूर्ण  मौसम व जमीन में रचा-बसा दिया, जिसकी कुछ झलकें अभी भी कुछ सरकारी आवासों में दिखाई दे जाती हैं!…

मैं आप को याद दिला दूं एडविन लैंडसीयर लुटियन की जिसने नई दिल्ली का निर्माण किया और गवर्नर हाउस, रायसीना हिल जैसी जगहों को प्रकृति के इन रंगो से सरोबार….!! भारत के वन विभाग के पुराने डाक बंग्लों में कुछ योरोपीय व अफ़्रीकी वनस्पतियां अभी भी मिल जायेंगी जिन्हे अंग्रेज सुन्दरता और सुगन्ध के लिए इन जगहों पर लगाया था!….एक बात कहना चाहूंगा कि धरती पर कोई प्रजाति देशी-विदेशी नही होती…बशर्ते उसे धरती का वह हिस्सा उस प्रजाति को अपना ले…..!

अब भूमिका शायद लम्बी व निरर्थक हो रही तो चलिए आप को ले चलते है उत्तर भारत के मैनहन ग्राम में जहा सरोवर भी है और आम-जामुन व पलाश के बगीचे भी, जो धीरे-धीरे पतन की राह पर अग्रसर किए जा रहे हैं! १९८०-९० के भारत में बचपन में मैनें उन्ही गांवों में फ़ुलवारियां देखी जहां कोई मन्दिर मौजूद हुआ और उसके आस-पास पुजारी प्रवृत्ति के लोग…उन्हे रोज जो भगवान को पुष्प अर्पित करने होते थे! सो पुष्प की उप्लब्धता की व्यवस्था  भगवान की मौजूदगी पर निर्भर थी! इन फ़ुलवारियों के रूप में! नही तो पुष्प व पुष्प-वाटिकायें आदि भारत में राजा-महराजाओं, मध्य भारत में नवाबों और माडर्न ईंडिया में अफ़सरों का विषय ही रहे, एक आम व औसत हिन्दुस्तानी रोटी के जुगाड़ में ही दिन काट रहा होता था उसे तो पेट भरने के लिए रोटी की सुगन्ध ही दरकार रही बेचारा पुष्प और उनकी खुशबुओं से बावस्ता हो, इसका न तो उसे कभी मौका मिला और न ही खयाल आ पाया। हाँ इतिहास के पन्नों में जमींदारों और राजाओं की जो फ़ुलवारियां हुआ करती थी, उनमें न तो आम हिन्दुस्तानी को जाने की इजाजत थी और न ही उस फ़ुलवारी के किसी पौधें का बीज या कलम किसी अन्य को मिल सकती थी..कारण स्पष्ट था कि आम हिन्दुस्तानी के घर में पुष्प खिला, तो उन जमींदार महाशय के रसूख में धब्बा लग जायेगा….

एक वाकया याद आ गया है, सुन ले….मेरे जनपद की तहसील मोहम्मदी जो कभी बरतानिया सरकार में  जिला होने का गौरव रख चुका है, वहां दिल्ली सरकार (मुगल) के समय डिप्टी कमिश्नर  टाइप की हैसियत से रहने वाले जनाब ने एक बगीचा लगाया था, उसमें केतकी (केवड़ा) का पुष्प कहीं से लाया गया, जो इस इलाके भर में अदभुत व अप्राप्त वनस्पति वन कर सैकड़ों सालों तक गौरवान्वित होता रहा…आम हिन्दुस्तानी जिसकी आज भी आदत क्या खून में यह पैबस्त है, कि राजा के घर की घास-पूस भी कुछ अतुलनीयता अवश्य रखती है…और वह मूर्ख उस सामान्य बात या वस्तु को असमान्य ढंग से पेश करता हुआ अपने को गौरवान्वित करता आया है….हाँ तो वह साधारण सा केवड़ा केतकी वन सिर्फ़ उसी बाग में खिलता रहा और हमारे लोग यहाँ तक की मीडिया गौरवगीत गा गा कर भरार्ने लगा….लेकिन सिलसिला नही टूटा….आदत में है जो…..कभी भारत की विविधिता का खयाल भी नही किया कि जहां हर देवता के सहस्र नाम हो, जहां की भाषा पर्यावाचियों से लबालब ठसी हुई हो..जहां एक कोस पर चीजों के नाम बदल जाते हों…इस बारे में भी नही सोचा…केतकी ही केवड़ा है जो हमारे गांवों में भी खिलता है!..बस केतकी जो वर्ष में एक बार  खिलती है!….दुनिया में सिर्फ़ मोहम्मदी में…संसार में नही होती…फ़लाने हसन द्वारा लाई गयी..केतकी….यह डाकूमेन्टेशन है हमारे मुल्क में…..बहुत जल्दी जहां चीजे बिना सोचे समझे अदभुत हो जाती है…और सरकार व पढ़े लिखे लोग उसे पढ़ते जाते है…बिना सोचे…जाने….साल दर साल केतकी खिलती रही….अभी भी खिलती है…….पूरे संसार में सिर्फ़ खीरी जिले को यह गौरव प्राप्त है…..आखिर फ़िर वह लाये कहां से थे इस केतकी को?..जब संसार में सिर्फ़…..मजा तो तब आया जब मेरे एक परिचित बुजर्ग ने गर्जना करते हुए मुझसे कहा कि केतकी उनके यहां खिला…..उनकी गर्जना में सदियों से गुलाम रहे हिन्दुस्तानी के भीतर चेतना व आत्म-गौरव का झरना स्फ़ुटित हो रहा था…जैसे वह तोड़ देना चाहते हो उन जंजीरों को जो सिर्फ़ यही कहती हो कि यह पुष्प सिर्फ़ राजा या नवाब के बगीचे में खिलता हो….उन्हे मैं सलाम करता हूं उनके इस जज्बे के लिए….काश…फ़िर सराहनीय है उनका प्रयास!
दरसल वो कही से केतकी का सम्पूर्ण (!) पौधा लाये और उसे रोप दिया…इसमें एक टेक्निकल मामला है, मोहम्मदी वाले केतकी का पौधा जमींदारी रहते तो आम आदमी को अपने घर लगाने की गुस्ताखी नही कर सकता था, लेकिन आजादी के बाद उसने जरूर प्रयास किए..किन्तु इस प्रजाति में नर व मादा पौधे अलग-अलग होते हैं ..इसलिए जिसने भी एक पौध उखाड़ कर अपने घरों में लगाई तो नर व मादा में से एक की अनुपस्थिति उसमे पुष्पं के पल्लवन में बाधक बनी रही। अंतत: यह मान लिया गया कि यह पौधा उसी बाग में खिल सकता है….नवाब साहब …के बाग …कोई कहता वह पौधे के साथ उस जगह से मिट्टी भी लाये थे..इसीलिए यह उसी बगीचे में खिल सकता है!….या कोई कहता भाई आदमी आदमी की बात होती है, उसके हाथों में…..
मौजूदा हालातों में अनिभिज्ञता व चलन में न होने के कारण वाटिकाओं से फ़ासला रहना जाहिर है, हमारें लोगों का, पर सबसे बड़ी दुश्वारी है, जमीन के हर टुकड़े पर खेती करने की होड़, या जमीन की कमी, जिसमें पेट पालना पहली जरूरत होती है! गाँवों का बदलता परिवेश, किन्तु मौके फ़िर भी है, हम थोड़ी सी ही जगह से सुवासित कर सकते है, गाँव की धरा को, और मौका दे सकते हैं, उन्हे जो अब हमारे आँगन व द्वारे पर नही दिखते...रंग बिरंगी तितलिया, गुनगुनाते भौरें, मकरन्द खाती चिड़ियां......वो सभी कुछ जो अब किताबी है वापस हो सकता है! इन्ही सब बातों के दरम्यान हम वापसी की तैयारी में उन सबकी जो राजाओं के घर-आँगन में खिलने का गरूर रखते थे! 
खैर अब चलिए मैनहन में जहाँ मैने अपने पूर्वजों के घर के पुनर्निर्माण के साथ-साथ दुआरे पर फ़ुलवारी की परिकल्पना पर काम कर रहा हूं..आखिर आजाद भारत का बाशिन्दा हूं और फ़िजाओं में खुसबूं और सुन्दरता तलाशने का मुझे पूरा हक है! तो मैने पहले चरण में…हरसिंगार, चम्पा, चमेली, रात के रानी, अलमान्डा, बेला, मालती,  के पौधे रोपे हैं, दूसरे चरण में मैं गन्धराज, मौलश्री, जूही, कचनार, बेल का रोपन करूंगा, साथ ही बरगद, सागौन जैसे विशाल वृक्ष भी मेरी कार में सुसज्जित है….जिन्हे कल रोपित किया जायेगा….फ़िलहाल मेरा अगला कदम गाँव के हर व्यक्ति कों तमाम खुशबुओं वाले पौधें भेट करने का निश्चय है!…लेकिन क्रमबृद्ध तरीके से…शायद रात की रानी मिशन…बेला…..चमेली….या फ़िर गन्धराज मिशन…एक वर्ष में प्रत्येक सगन्ध पुष्प वाले पौधों  में एक सुगन्धित पौधा वितरित करूंगा…जो हर घर में पल्ल्वित हो…..इसी इरादे के साथ.. पुष्पवाटिकाओं के चलन की शुरूवात करने की कोशिश…शायद रिषियों, और राज-कन्याओं और राज-पुरूषों के शैरगाह की जगहें आम हो सके आम आदमी के मध्य…जमींदारों, नवाबों और नौकरशाहों के बगीचों का मान तोड़ती ये पुष्पवाटिकायें एक औसत हिन्दुस्तानी को अपनी परेशानियों व तंगहालियों की गन्ध के मध्य विविध सुगन्धों का एहसास करा सके…और सुगन्धों व नवाबों के मध्य रिस्तों का मिथक टूट पाये….!

कृष्ण कुमा्र मिश्र
मैनहन-262727
भारतवर्ष

Tuesday, June 29, 2010

उदन्ती में गौरैया!

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित उदन्ती पत्रिका में प्रकाशित लेख जो गौरैया सरंक्षण को समर्पित हैं,



मुख्य पृष्ठ

यह लेख को जो उदन्ती पत्रिका में प्रकाशित हुआ- दुधवा लाइव के गौरैया बचाओ जनाभियान को  नुकूश-ए-कतरन में पढ़िए



Wednesday, May 19, 2010

दुधवा टाइगर रिजर्व में एक अनजानी वनस्पति!

 दुधवा टाइगर रिजर्व में एक अनजानी वनस्पति! - Calatropis acia-  कृष्ण कुमार मिश्र*
कुछ सुन्दर व दुर्लभ वनस्पतियां हमारे आस-पास मौजूद होने के बावजूद न चिन्हित होने के कारण काल के गर्त में समाती चली जा रही हैं, और हम उनके महत्व व लाभ से वछिंत रह जाते हैं। प्रकृति के इन रहस्यों में ही तो जीवन का सार है, यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसे कितना जान ले- इसी खोज की एक झलक मैं आप सब के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं, जो मुझे आनन्दित कर गई!----------------
12 जून 2006 रिंगरोड झादीताल किशनपुर वन्य जीव विहार, इस प्राकृतिक जंगल में वन्य जीवो व वनस्पतियों के मध्य मै प्रकृति दर्शन करता हुआ रिंग रोड पर चला जा रहा था। घास के मैदान से होकर गुजरती इस रोड के दोनो तरफ कांस व अन्य जंगली घासों के घने झुरमुट थे, कि अचानक मेरी नजर इस हरी-भरी घास के झुरमुट से झाँकते रक्त-वर्ण का पुष्प गुच्छ दिखाई दिया, जैसे हरे रंग के घूघट में गुलाबी आभा लिए कोईं.......................................! कुछ ही पलों में मेरे कैमरे का लेन्स उस लाल रंग के पुष्प की तरफ था, बस मै इस अनजानी वनस्पति को हमेंशा के लिए अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहता था। वैसे यह पौधा मदार के पौधे की तरह ही था, बस फर्क था, तो उस लाल पुष्प की आकृति व रंग का क्योकि इससे पहले मदार का ऐसा पुष्प पहले मैने कही नही देखा था। अपनी जंगल यात्रा से वापस आने के बाद मैने इस प्रजाति की पहचान के मुमकिन प्रयास शुरू कर दिये लेकिन नतीजा कुछ भी नही निकला। इसकी वजह थी कि दुधवा टाइगर रिजर्व में अभी तक यह प्रजाति कही दर्ज ही नही थी। बावजूद इसके की यहा कई नामी वनस्पति शस्त्रियों ने यहाँ की वनस्पति का क्रमबद्ध अध्ययन किया था। तमाम पुस्तकों व स्थानीय वैज्ञानिकों से जब कुछ भी अवगत नही हो पाया। तो विश्व प्रकृति निधि व मौजूदा समय में आई आर एस के वनस्पति विज्ञानी डा कृष्ण कुमार ने बताया कि यह प्रजाति एक नई प्रजाति हो सकती है, जो कैलाट्रापिस प्रोसेरा की नजदीकी प्रजाति होगी। इसकी बिना रोम वाली पत्तियां व सुर्ख लाल रंग का पुष्प इसे इन प्रजातियों से भिन्न करता है ।
आखिर में इस पुष्प की तस्वीरे अमेरिका स्थित विश्व प्रसिद्ध स्मिथसोनियन संस्थान के वनस्पति विज्ञान के प्रमुख डा गैरी कृपनिक को भेजी, डा गैरी ने इसे दुनिया के तमाम वैज्ञानिको को यह फोटो भेजा, जो भारत या इस प्रजाति पर शोध कर रहे है। इनके विभाग के वरिष्ठ वनस्पति शस्त्री डैन निकोलस ने बताया, कि मानव आबादी में ज्यादातर  बैगनी व सफेद रंग के पुष्पों वाली प्रजाति कैलाट्रापिस गिगैंटिया होती है। संभवता यह कैलाट्रापिस प्रोसेरा हो। किन्तु वह अनिर्णय की स्थित में थे। सो उन्होने मुझे भारतीय वैज्ञानिक डा एम शिवादासन से सम्पर्क करने के लिये सलाह दी, तभी डा गैरी के एक मित्र डा डेविड गॉयडर की एक मेल आई उसमें लिखा था, कि यह एक अलग प्रजाति है, जो भारत व अन्य स्थलो पर पाये जाने वाली उन दो प्रजातियों से भिन्न है। इन्होने बताया कि मदार की दो विस्तारित प्रजातिया प्रचुरता में पाई जाती है, जिनमें कैलाट्रापिस प्रोसेरा में कटोरानुमा पुष्प पीला-लाल व किनारों पर बैंगनी रंग का होता है। और कैलाट्रापिस गिगैंटिया के पुष्प की पंखुड़िया पीछे की ओर मुड़ी हुई दो रंगों की होती है सफेद व बैंगनी रेग की। उपरोक्त दोनो तरह की प्रजातियों में पत्तियां डण्ठल रहित होती है। जबकि मेरे द्वारा भेजे गये फोटो में मदार की पत्तियां डण्ठल युक्त है, व पत्तियों के आधार संकुचित है। यह एक तीसरी प्रजाति है, जिसे  कैलाट्रापिस एसिया कहते है। कुल मिलाकर भारत में पहली बार व दुधवा टाइगर रिजर्व में इस प्रजाति का मदार पहली बार देखा गया है। जो अभी तक कही भी रिर्काडेड नही है। प्रकृति के रहस्यो में से एक और रहस्य सामने आया है। अब देखना है कि  इस अदभुत वनस्पति के औषधीय व अन्य गुणों पर कितनें रहस्य खुलते है। यह एक शोध का विषय है, क्योकि हर प्रजाति के अपने विशिष्ठ गुण होते है, जैसे सफेद पुष्पों वाला मदार! मदार जिसे आक, क्राउन फ्लावर, सूर्य पत्र, व अर्बर-ए-सोई आदि नामों से भी जाना जाता है, यह एक ऐसी औषधीय गुणों वाली वनस्पति है। जो भारत के अतिरिक्त श्री लंका, पाक्स्तान, नेपाल, सिंगापुर, मलय द्वीप और दक्षिण चायना में पाया जाता है। भौगोलिक आधार पर यह कहा जा सकता है, कि यह प्रजाति अयनवृत्त व उपअयनवृत्तों (क्रान्तिमण्डल) में प्रचुरता में पायी जाती है। जबकि ठण्डें प्रदेशों में यह दुर्लभ है। यह एस्क्लेपियाडेसिया परिवार का है, इसमें 280 जातियां और 2000 प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती है। भारत में मदार कि मुख्यता दो प्रजातियां मिलती है। जिनमें सफेद-बैगनी व कभी-कभी सफेद रंग के पुष्प  वाला 8 फीट तक बढ़ने वाला कैलाट्रापिस गिगेंटिया व सफेद-गुलाबी रंग के खुसबूदार पुष्प वाला पौधा जो 3-6 फीट तक ऊचाई तक बढ़ने वाला कैलाट्रापिस प्रोसेरा भारतीय मदार की प्रजातियां हैं। इसकी नजदीकी उप-प्रजातियां सिल्क वीड (एस्क्लेपियाज सायिरियाका), बटरफ्लाई वीड (एस्क्लेपियाज टयूबरोजा) हैं। मदार 900 मीटर तक ऊचाई  वाले क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगते है यह विभिन्न प्रकार की मिट्टी व वातावरण में उगने की क्षमता रखता है। प्रायः यह ऐसे स्थानों पर उग आता है, जहां किसी और वनस्पति का उगना मुमकिन नही होता। मदार के पौधें रोड के किनारों, तालाबों के आस-पास व नदियों एंव समुन्द्री किनारों पर पड़ी रेत में उग आते है, ये कमजोर मिट्टी में वहां जहां बहुत अधिक चराई होने के बाद अन्य देशी प्रजातियों की वनस्पतियां उगने लगती है, वहां पर मदार अधिकता में पाया जाता है। इनके  फलों के परिपक्व होने के बाद चिटक कर रूईदार बीजो का प्रर्कीरण हवा व जल के माध्यम से  दूर दूर तक होता है अमेरिका, फ्रांसए हवाई, आस्ट्रेलिया, आदि देशों में मदार (आक) खेती के रूप में या फिर इनवैसिव यानी आक्रमणकारी विदेशी प्रजाति के तौर पर पाया जाता है।

भारत में इस प्रजाति का महत्व इसलिए विशेष है, कि यह भगवान शिव का प्रिय पुष्प माना जाता है। एक पौराणिक कहानी में कहा गया है, कि प्रेम के देवता कामदेव अपने तीर पर मदार के सुन्दर पुष्प को लगाकर ही लोगो के हृदय को बेंधते थे, ताकि वह व्यक्ति काम (वासना) के वशीभूत हो जाए ! वैसे भी भंयकर हवा के झोंकों सह लेने की क्षमता वाले व तितलियों व भौंरों को आकर्षित करने वाले इस वनस्पति के अतुलनीय पांच नोकदार पंखुड़ियों वाले पुष्पों की माला यदि आप के गले में हो तो भला कैसे कोई बिना मुग्ध हुए रह सकता है। किसी राजा-रानी के ताज की शक्ल वाला यह फूल सिर्फ सम्मोहन या आर्कषण का केंद्र नही है, बल्कि भारतीय समाज में इसे तांत्रिक साधना के लिए खास अहमियत मिली हुई है। और वह भी खसतौर से सफेद व लाल पुष्प वाले मदार को।
यदि हम इस विषाक्त गुणों वाले पौधें के औषधीय गुणों को देखे, तो इसके विषाक्त होने के अवगुण को नजरन्दाज कर देगें, क्योकि आयुर्वेद में मदार को आदिकाल से पारंपरिक औषिध के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। और आज मार्डन साइन्स ने भी इस औषधीय गुणो से भरपूर वनस्पति को मान्यता दी है। मदार का प्रयोग अकेले या अन्य औषिधियों के मिश्रण का उपयोग बुखार,गठिया,अस्थमा,कफ,एक्जीमा,फाइलेरिया,उल्टी,डायरिया आदि बीमारियों में किया जाता है, आयुर्वेद के अनुसार मदार का एक सूखा पौधा एक टानिक के रूप में किया जा सकता है। इसका प्रयोग कफ व पेट के कीड़े निकालने में भी होता है  इसकी जड़ के बने पाउडर से अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और डाइरिया का इलाज होता है पत्तियों से पैरालिसिस, ज्वर व सूजन को ठीक करने के लिये किया जाता रहा है मदार का कवकरोधी व कीटरोधी गुण कृषि में विषेष महत्व रखता है यदि इसके तने व पत्ती के रस से शोधित बीजो की बुआई की जाय तो उनमे अकुरण जल्दी व अच्छा होता है साथ ही कोई बीमारी व कीड़े लगने की गुजांइश बिल्कुल नही रहती। इस पौधे से निकाला गया फाइबर चटाई,कारपेट व मछली पकड़ने वाले जाल के तौर पर किया जाता रहा है साथ ही अतीत में इससे बने धागां से धनुष की न टूटने वाली मजबूत कमान भी बनाई जाती थी।


कृष्ण कुमार मिश्र
77, कैनाल रोड शिव कालोनी
लखीमपुर खीरी-262701
भारतवर्ष
फोन- 091-5872-263571
09451925997

Wednesday, February 17, 2010

सती गीधिन

सती गीधिन: 1972 में अवधी सम्राट  पण्डित बंशीधर शुक्ल जी द्वारा रचित कविता जो पक्षी-व्यवहार की सच्ची घटना पर आधारित है।
है बात अभी परसों (the day after tomorrow) की
जो नही भुलाने वाली
सत्प्रीति गीध-गीधिन की
नही भुलाने वाली

सप्तमी दिसम्बर पन्द्रह
सन उन्नीस सौ इकहत्तर
शुभ पौष बुद्ध दिन पूर्वा
धन प्राप्ति योग का सुखकर।

दिग सड़क कोन मौजा (hamlet) के
पूर्वोत्तर शहर किनारे
है उसी जगह पर भठ्ठा(brick-field)
इक मरा गीध (Vulture) बिन मारे

वह मृत मांसों का भक्षी (flesh-eater)
ढिग जीव न कोई आया,
तालाब निकट मृत लेटा
वह पथिकों को दिखलाया।

उसकी प्रिय अर्द्धागिनि ने
जब दिन भर पता न पाया
व्याकुल चिंतित संध्या को
बस मरा हुआ ही पाया।

आ गिरी चरण पर व्याकुल
टोंटों से तन सहलाया,

मृत लख चीखी चिल्लाई
शव पंखों तले छिपाया।

बैठे-बैठे नौ दिन तक
अंतर में व्यथा दबाये,
त्यागी निद्रा जल भोजन,
पति पार्थिव तन दुलराये।

कुछ बच्चे कौतूहल बस
मारने पकड़ने आते,
कुछ उड़ती फ़िर आ जाती
पग पंख न आगे जाते।

यदि कोई तन छू लेता,
तो स्नान ताल में करती,
औ शीघ्र उसी विधि आकर
बस वही बैठ तप करती।

इक चिता बनाई चुन-चुन
टोंटों से लकड़ी लाकर
पति शव पंखों से ढ़ँककर
बैठाया उसी चिता पर।

ग्रामीणों ने पहचाना
पति-प्रेम प्रबल पक्षी का
आश्चर्य चकित थे लखकर
अक्षय सतीत्व गिद्धी का।

फ़िर नवें दिवस पक्षी ने
नौ बज़े प्राण निज छोड़े
पति के वामांग चिता में
पति पग पर चोच मरोड़े।

निज धर्म चिता पर दोनों
मृत अंग देख विहगों के
दर्शक विमुग्ध बेसुध थे
आश्रित दैवी-गतियों के।

वे चले गये दुनिया से
निज प्रेमादर्श दिखाकर
इस क्षणभंगुर जगती को
युग देश धर्म सिखलाकर।

ग्रामीणों ने मुतकों का
वस्त्रों से अंग सजाया
चंदन-घृत गंगाजल से
नहला ठेला बिठलाया।

निकला जुलूस सड़कों पर
दोनों खग तपस्वियों का
दर्शक प्रसून(flower) बरसाते
गाते चरित्र सतियों का।

फ़िर उसी चिता पर रखकर
दोनों शव गये जलाये
निकली शुचि ज्योति अलौकिक
दर्शक विमुग्ध हरषाये।

यह भारतीय संस्कृति है
खग-मृग में पतिव्रत है
इसके विनाश करने को
सरकारें क्यों उद्यत हैं?

पर यह न कभी मिट सकती
सरकारें मिट जायेंगी
सद-धर्म ध्वजायें यों ही
भारत की लहरायेंगी।

तप-तेज जहाँ खग-मृग में
जो राग त्याग पर आश्रित
मिट जाय मिटाने वाले
पर अमिट हमारी संस्कृति।
सती गीधिन पर लेख पढ़ने के लिये दुधवा लाइव  पर क्लिक करें।
कृष्ण कुमार मिश्र

Wednesday, February 10, 2010

वन्य-जीव सरंक्षण की एक मुहिम है- दुधवा लाइव


प्रिय मित्र

भारत की जैव-विविधिता के अध्ययन व संरक्षण के लिए दुधवा लाइव न्यूज
पोर्टल http://www.dudhwalive.com की शुरूवात हो रही है। जहाँ आप सभी उन्मुक्त विचारों की नितान्त
आवश्यकता है। यह पोर्टल वन्य-जीवन, ग्रामीण अंचल, पशु-क्रूरता, औषधीय
वनस्पति, पारंपरिक ज्ञान, कृषि व इतिहास के मुद्दों पर बेबाक खबर/लेख
प्रकाशित करेगा।
ताकि जो बाते भ्रष्टाचार व आज के मीडिया मैनेजमेन्ट के कारण दब जाती है
उन्हे प्रकाश में लाया जा सके। हम सिर्फ़ वर्चुअल बाते नही करेगें, जमीन
पर संघर्ष भी करेंगे, अपनी प्राकृतिक संपदा के संरक्षण व संवर्धन के लिए।
आप सभी के सहयोग के बिना यह संभव नही होगा।
लेख/खबर आमंत्रित है कृपया dudhwalive@live.com पर भेजें।
संपादक/माडरेटर

Wednesday, January 6, 2010

टाइगर हावेन



टाइगर हावेन के बरामदे में पड़ी अठारहवीं सदी की विक्टोरियन कुर्सी पर बैठे बिली अर्जन सिंह मुझे हमेशा पढ़ते हुए मिले, आस-पास तमाम मेजों पर ढ़ेरो देशी-विदेशी किताबें व पत्रिकायें। जंगल के मध्य एक बेहद जीवन्त व खूबसूरत बसेरा  बाघों एंव मनुष्य दोनों का। यह आदमी और जानवर के मध्य सहजीविता का अदभुत नमूना था, पर अब न ही वहां विक्टोरियन फ़र्नीचर है और न किताबें, यदि कुछ बचा हुआ दिखाई देता है तो टाइगर हावेन की दीवारों पर लगी "काई" जिसे इस बार की आई भीषण बाढ़ अपने साथ वापस ले जाना भूल गयी, या यूं कह ले की सुहेली नदी व जंगल को यह मालूम हो चुका था कि अब उनका रखवाला उनसे अलविदा कहने वाला है! हमेशा के लिए।
इसी लिए उस रोज टाइगर हावेन  खण्डहर सा बस धराशाही होने को तैयार दिखाई दे रहा था, और सुहेली ठहरी हुई नज़र आ रही थी।

बिली जवानी के दिनों में यह जगह कभी नही छोड़ते थे, चाहे जितनी बारिश हो, फ़िर उस वक्त सुहेली में गाद (सिल्ट) भी नही थी। पर उम्र बढ़ने की साथ-साथ सुहेली में सिल्ट बढ़ती गयी, हर बारिश में दुधवा व टाइगर हावेन दोनों जल-मग्न होने लगे, नतीजतन बिली बरसात के चार महीने जसवीन नगर फ़ार्म पर बिताने लगे और टाइगर हावेन से पानी निकल जाने पर फ़िरपने प्रिय स्थान पर वापस लौट आते अपनी किताबों के साथ।
लेकिन इस बार बाढ़ के चले जाने के बाद भी अब बिली कभी नही लौटेगें, यही नियति है इस स्थान की। बिली की उम्र के साथ ही टाइगर हावेन ने भी अपनी जिन्दगी पूरी कर ली। जहां इस इमारत में आजकल आतिश-दान में आग जलती थी, बिली के प्रिय तेन्दुओं व बाघिन तारा और कपूरथला के राज-परिवार की तस्वीरें लगी थी, कमरों मे पुस्तके समाती नही थी, वही सब-कुछ वीरान है । अगर कुछ है तो बाढ़ के द्वारा छोड़े गये वीभत्स निशान।


इस वर्ष बिली की तबियत खराब होने के बावजूद वो बाढ़ गुजर जाने के बाद दो बार यहां आये, और कहा कि लगता है, मेरे साथ ही टाइगर हावेन भी नष्ट हो जायेगा!...............नियति की मर्ज़ी वह इस वर्ष यहां नही लौट पाये...........अब यह जगह की अपनी कोई तकदीर नही है जिसके हवाले से इसके वजूद को स्वीकारा जा सके।
बिली के सेवकों के मुताबिक बिली अर्जन सिंह के उत्तराधिकारियों का इरादा यहां एक बेहतरीन इमारत बनाने का है, जोकि बिली के द्वारा जिम कार्बेट की तरह स्वंम बनाई गयी इस रचना का अस्तित्व मिटा देगी।
रामनगर में जिस तरह जिम कार्बेट का घर हूबहू एक स्मारक में तब्दील किया गया है उसी तरह बिली की इस प्रयोगशाला के साथ होना चाहिए। यह थाती है बिली की जिस पर उन सभी का अधिकार है जो प्रकृति की प्रयोगशाला को अपनी इबादतगाह मानते है।

मेरी कुछ स्मृतियां है उस महात्मा के सानिध्य की जिनका जिक्र जरूरी किन्तु भावुक कर देने वाला है। वो हमेशा नीबू पानी पिलाते, दुधवा और उसके बाघों को कैसे सुरक्षित रखा जाय बस यही एक मात्र उनकी चिन्ता होती। दुधव के वनों की जीवन रेखा सुहेली नदी की बढ़ती सिल्ट को लेकर एक विचार था उनका- सुहेली कतरनिया घाट वाइल्ड-लाइफ़ सैंक्चुरी में बह रही गिरवा नदी से जोड़ दिया जाय। इससे दो फ़ायदे थे, एक कि दुधवा में आती बाढ़ पर नियन्त्रण और दूसरा दुधवा में गैन्गेटिक डाल्फ़िन एंव घड़ियाल की आमद हो जाना।

चूंकि अभी तक दुधवा टाइगर रिजर्व में ये दोनॊं प्रजातियां नही है जबकि कतरनियां घाट डाल्फ़िन और घड़ियाल की वज़ह से आकर्षण का केन्द्र है। साथ ही इन प्रजातियों के आवास को भी विस्तार मिल सके, यही ख्वाइस थी बिली की। उन्होंने मुझसे कहा था संपर्क में रहना वह कई संस्थाओं और सरकार को इस बारे में लिख चुके हैं। एक आस्ट्रेलियाई संस्था का पत्र भी मुझे दिखाया था। वो अक्सर कहते यदि  दुधवा के लिए कुछ करना है, तुम यहां आकर रहो लखीमपुर बहुत दूर है, मैनें नौकरी करने की बात बताई तो बोले तबादला करवा लो।
ट्रेन से बाघों का कटना उनके लिए कौतूहल की बात थी, मैं और दुधवा के निदेशक जी०सी मिश्र से इस बारे में चर्चा करते हुए कहा, कि बाघ जैसा समझदार जानवर ट्रेन की दूर से आती गड़गड़ाहट को कैसे नही भांप पाता है! वह अचम्भित थे।
बिली के बाघिन व तेन्दुओं का दुधवा के जंगलों में सफ़ल पुनर्वासन एक महान वैश्विक घटना थी ्जिसे कुछ लोगों ने बदनाम करने की कोशिश की, जबकि आनुंवशिकी विज्ञान की नज़र में उनका यह प्रयोग दुधवा के बाघों को इन-ब्रीडिंग से बचाकर जीन-विविधिता का कारण बना। जिससे यहाम के बाघों की प्रजाति और बेहतर होगी।

बिली के अन्तिम सम्मान में दुधवा टाइगर रिजर्व के प्रशासन ने बिली अर्जन सिंह, (जो प्रणेता थे इस पार्क के), से अपने संबधों का दायित्व बड़ी खूबसूरती से अदा कर दिया उन्हे गार्ड-आफ़-आनर देकर, किन्तु हमारी सरकारों ने कोई आदर्श नही स्थापित किए इस महान शख्सियत की अन्तिम विदाई में यह दुखद व निन्दनीय है।


वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्शन सोसाइटी की प्रमुख बेलिन्डा राइट ने मुझे संदेस भेजकर खुसी जाहिर की, कि बिली साहब के की अन्तिम विदाई में वन-विभाग ने महती भूमिका अदा की।
प्रसिद्ध वन्य-जीव विशेषज्ञ अशोक कुमार ने भी दिल्ली में इस बात पर आवाज़ उठाने की बात की है कि बिली का स्मारक स्थापित किया जाय।
एक और सन्देश था मेरे लिए कि " बिली जी के बाद हर नया साल तुम्हे तुम्हारी जिम्मेदारी याद दिलायेगा, जहां तुम अपने आप को और मजबूत पाओगे।
वन्य-जीव संरक्षण विधा के द्रोणाचार्य कुंवर अर्जन सिंह को मेरी भाव-भीनी श्रद्धांजली।

पद्म भूषण, पद्म श्री कुंवर बिली अर्जन सिंह



92 वर्ष की आयु में इस महात्मा ने नववर्ष 2010 के प्रथम दिवस को अपने प्राण त्याग दिये। मगर आज इनके जीवों व जंगलों के प्रति किये गये महान कार्य समाज को सुन्दर संदेश देते रहेंगे एक दिगन्तर की तरह।
भारतीय बाघों के व वनों के संरक्षण में आप ने जो मूल्य स्थापित किए वह इनकी विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकों के माध्यम से सारे संसार को प्रेरणा देगे। और बिली अर्जन सिंह हमेशा जिन्दा रहेंगे लोगों के ह्रदय में, जो प्रकृति से प्रेम करते है।

15 अगस्त सन 1917 को गोरखपुर में जन्में बिली  कपूरथला रियासत के राजकुमार थे। इनका बिली नाम इनकी बुआ राजकुमारी अमृत कौर ने रखा था जो महात्मा गांधी की सचिव व नेहरू सरकार में प्रथम महिला स्वास्थ्य मंत्री रही ,  आप की शिक्षा-दीक्षा ब्रिटिश-राज में हुई,  राज-परिवार व एक बड़े अफ़सर के पुत्र होने के कारण आप ने ऊंचे दर्जे का इल्म हासिल किया और ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती हो गये, द्वितीय विश-युद्ध के बाद इन्होंने खीरी के जंगलों को अपना बसेरा बनाना सुनश्चित कर लिया। पूर्व में इनकी रियासत की तमाम संपत्तियां खीरी व बहराइच में रही थी जिन्हे अंग्रेजों ने इनके पुरखों को रिवार्ड के तौर पर दी थी। चूंकि बलराम पुर रियासत में इनके पिता को बरतानिया हुकूमत ने कोर्ट-आफ़-वार्ड नियुक्त किया था, सो इनका बचपन बलरामपुर की रियासत में गुजरा। बलरामपुर के जंगलों में इनके शिकार के किस्से मशहूर रहे और 12 वर्ष की आयु में ही इन्होंने बाघ का शिकार किया।
एक बार बिली अपने पिता के साथ शिकार पर थे, मचान से ज्यों ही इनके पिता ने राइफ़ल से निशाना साधा तो एक के बाद एक........चार खूबसूरत तेन्दुएं दिखाई दे गये और इसी पल नियति ने  इनके पिता का ह्रदय परिवर्तन कर दिया। शायद इस बड़े व भयानक पशु-संहार के भय ने दया का प्रदुर्भाव कर दिया।

1960 में बिली की जीप के सामने एक तेन्दुआ गुजरा अंधेंरी रात में जीप-लाइट में उसकी सुन्दरता ने बिली का मन मोह लिया, ये प्रकृति की सुन्दरता थी जिसे अर्जन सिंह ने महसूस किया !! इसी वक्त उन्होंने शिकार को तिलांजली दे दी।
यू०पी० वाइल्ड-लाइफ़ बोर्ड व इंडियन वाइल्ड लाइफ़ बोर्ड के सद्स्य रहे बिली श्रीमती गांधी के निकट संबधियों में थे, इन्होने अपनी पुस्तक तारा- ए टाइग्रेस, श्रीमती इन्दिरा गांधी को समर्पित की है।
इन्दिरा जी  की वजह से ही टाइगर हावेन में बाघों व तेन्दुओं के पुनर्वासन का प्रयोग संभव हुआ। यह वह दौर था जब देश-विदेश के फ़िल्म-निर्माताओं में होड़ मची थी कि कौन बिली के इन अनूठे प्रयोगों पर अपनी बेहतरीन डाक्यूमेंटरी बना ले। भारत के किसी भी अभयारण्य की चर्चा इतनी नही थी जितनी बिली के इस प्राइवेट फ़ारेस्ट की थी जिसे सारी दुनिया टाइगर हावेन को जानती है।

खीरी में जंगलों के मध्य रहने का व खेती करने का निश्चय दुधवा नेशनल पार्क के अस्तित्व में आने का पहला कदम था। 1946 में अपने पिता के नाम पर जसवीर नगर फ़ार्म का स्थापित करना और फ़िर 1968 में टाइगर हावेन का, यह पहला संकेत था नियति का कि अब खीरी के यह वन अपना वजूद बरकरार रख सकेगे, नही तो आजाद भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थान्तरित किए गये शाखू के विशाल वन बेतहाशा काते जा रहे थे, जाहिर सी बात है हमने आजादी तो ले ली थी किन्तु हमारी निर्भरता प्राकृतिक संसाधनों पर ही थी और शायद आज भी है!
और इस बात को बिली हमेशा मझ से कहते रहे कि जो जंगल अंग्रेज हमें दे गये कम से कम उन्हे तो बचा ही लेना चाहिए। क्योंकि आजादी के बाद वनों के और खासतौर से शाखू के वनों का रीजनरेशन कराने में हम फ़िसड्डी रहे है वनस्पति गोरों के।


अर्जन सिंह हमेशा कहते रहे की फ़ारेस्ट डिपार्टमेन्ट से वाइल्ड-लाइफ़ को अलग कर अलग विभाग बनाया जाय, वाइल्ड-लाइफ़ डिपार्टमेन्ट! क्योंकि उस जमाने में फ़ारेस्ट डिपार्टमेन्ट जंगल बचाने के बजाए कटाने के प्रयास में अधिक था, सरकारे जंगलों का टिम्बर माफ़ियाओं के द्वारा इनका व्यवसायी करण कर रही थी। यदि यह अलग विभाग बना दिया जाय तो इसमें शामिल होने वाले लोग वन्य-जीवन की विशेषज्ञता हासिल करके आयेंगे।
जंगलों की टूटती श्रंखलाएं बिली के लिए चिन्ता का विषय रही, क्योंकि बाघों का दायरा बहुत लम्बा होता है और यदि जंगल सिकुड़ते गये तो बाघ भी कम होते जायेंगे! कभी आदमी के न रहने योग्य इस इलाके में "द कलेक्टिव फ़ार्म्स एंड फ़ारेस्ट लिमिटेड ने १०,००० हेक्टेयर जंगली भूमि का सफ़ाया कर दिया और लोग पाकिस्तान से आ आ कर बसने लगे, बाद में भुदान आंदोंलन में बसायें गये लोगों ने घास के मैदानों को गन्ने के खेतों में तब्दील कर दिया। और दुधवा जंगल का वन-टापू में तब्दील हो गया। जो बिली को सदैव परेशान करता रहा। आजादी के बाद जिस तरह इस जंगली क्षेत्र में लोगों ने रूख किया और वन-भूमि को कृषि भूमिं में तब्दील करते चले गये वही वजह अब बाघों और अन्य जीवों के अस्तित्व को मिटा रही है।
बाघों के लिए अधिक संरक्षित क्षेत्रों की उनकी ख्वाइस के कारण ही किशनपुर वन्य-जीव विहार का वजूद में आना हुआ जो अब दुधवा टाइगर रिजर्व का एक हिस्सा है।
जिम कार्बेट और एफ़० ड्ब्ल्यू० चैम्पियन से प्रभावित बिली अर्जन सिंह ने आठ पुस्तके लिखी जो उत्तर भारत की इस वन-श्रंखला का बेहतरीन लेखा-जोखा हैं।
भारत सरकार ने उन्हे १९७५ में पदम श्री, २००६ में पदम भूषण से सम्मनित किया। वैश्विक संस्था विश्व प्रकृति निधि ने उन्हे गोल्ड मैडल से सम्मानित किया। सन २००३ में सैंक्चुरी लाइफ़-टाइम अवार्ड से नवाज़ा गया।
सन २००५ में आप को नोबल पुरूस्कार की प्रतिष्ठा वाला पाल गेटी अवार्ड दिया गया जिसकी पुरुस्कार राशि एक करोड़ रुपये है। यह पुरूस्कार सन २००५ में दो लोगों को संयुक्त रूप में दिया गया था।
उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसी वर्ष सन २००७ में बिली अर्जन सिंह को यश भारती से सम्मानित किया।

इतने पुरस्कारों के मिलने पर जब भी मैने उन्हे शुभकामनायें दी, तो एक ही जवाब मिला के पुरस्कारों से क्या मेरी उम्र बढ़ जायेगी, कुछ करना है तो दुधवा और उनके बाघों के लिए करे ये लोग!
बाघ व तेन्दुओं के शावकों को ट्रेंड कर उन्हे उनके प्राकृतिक आवास यानी जंगल में सफ़लता पूर्वक पुनर्वासित करने का जो कार्य बिली अर्जन सिंह ने किया वह अद्वितीय है पूरे संसार में।
प्रिन्स, हैरिएट और जूलिएट  इनके तीन तेन्दुए थे जो जंगल में पूरी तरह पुनर्वासित हुए, बाद में इंग्लैड के चिड़ियाघर से लाई गयी बाघिन तारा भी दुधवा के वनों को अपना बसेरा बनाने में सफ़ल हुई। इसका नतीज़ा हैं तारा की पिढ़िया जो दुधवा के वनों में फ़ल-फ़ूल रही हैं।
कुछ लोगों ने बिली पर तारा के साइबेरियन या अन्य नस्लों का मिला-जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया "आनुवंशिक प्रदूषण" जबकि आनुवशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबध हानिकारक नही होता है बल्कि बेहतर होता हैं। यदि ऐसा होता तो कोई अंग्रेज किसी एशियायी देश में वैवाहिक संबध नही स्थापित करता और न ही एशियायी किसी अमेरिकी या अफ़्रीकी से। हमारी परंपरा में भी समगोत्रीय वैवाहिक संबध अमान्य है और विज्ञान की दृष्टि में भी, फ़िर कैसे साइबेरियन यानी रूस की नस्ल वाली इस बाघिन का भारत के बाघों से संबध आनुंवशिक प्रदूषण हैं।
हम इन-ब्रीडिगं के खतरों से बचने के लिए भिन्न-भिन्न समुदायों के जीवों के मध्य संबध स्थापित कराते है ताकि उनकी जीन-विविधिता बरकार रहे, और बिली ने यदि दुधवा के बाघों में यह विविधिता कायम की तो हम उन्हे धन्यवाद देने के बज़ाय विवादित बनाते रहे।
तारा की वशांवली निरन्तर प्रवाहित हो रही है  दुधवा के बाघों में इसे एक वैज्ञानिक संस्थान भी मान चुका है किन्तु अधिकारिक तौर पर इसे मानने में इंतजामियां डर रही है। आखिर सत्य को मानने में गुरेज़ क्यों! क्यों नही मान लेते दुधवा के जंगल में बाघ साइबेरियन-रायल बंगाल टाइगर की जीन-विविधिता के साथ इस नस्ल को और मजबूत बना रहे हैं। जिससे यह साबित होता है कि हमारे बाघों की नस्ल अब और बेहतर है। नही तो  सिकुड़ चुके जंगलों में ये बाघ आपस में ही संबध कायम करते...एक ही जीन पूल में.........और इन-ब्रीडिंग इनकी नस्ल को कमज़ोर बना देती। और तब होता आनुंवशिक प्रदूषण!

बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीज़ा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नही है। पर उनकी यादे है जो हमें प्रेरणा देती रहेगी।

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-भारत

Monday, January 4, 2010

आज सुहेली ठहर गयी थी

KK Mishra at Tiger Haven
Originally uploaded by manhan2009



03-01-2010---आज़ सुहेली नदी की जल धारा शिथिल हो गयी थी, जंगल मुरझा गये थे, पक्षियों का चहकना बन्द हो गया था, जंगल के जानवर मानों कही गायब हो गये थे........बिल्कुल ऐसा ही मंजर था टाइगर हावेन का, ये वो जगह है जिसे सारी दुनिया जानती है। भारत-नेपाल सीमा पर घने जंगलों में स्थित ये जगह जो रिहाइशगाह थी तेन्दुओं, बाघों और उनके संरक्षक बिली अर्जन सिंह की। जहां कभी बाघ और तेन्दुए दहाड़ते थे, हज़ारों पक्षी यहां के खेतों में बोई फ़सलों से दाना चुगते और प्रकृति की धुन में गाते, सुहेली की जलधारा अपने घुमावदार किनारों से होकर कुछ यूं गुजरती थी कि आप उस सौन्दर्य से मुग्ध हो जाते। लेकिन आज सबकुछ शान्त और बोझिल सा था!


क्यों कि अब वह जंगलों का चितेरा कभी न खत्म होने वाली निंद्रा में है। जिसने इन सब को एक स्वरूप दिया था किसी चित्रकार की तरह।और इस रचनाकार की यह अदभुत रचना मानो जैसे अपने रचने वाले के साथ ही नष्ट हो जाना चाहती हो!

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस अन्तर्राष्ट्रीय शख्सियत बिली अर्जन सिंह ने ब्रिटिश-भारतीय सेना का दामन छोड़ खीरी के विशाल जंगलों को अपना मुस्तकबिल बना लिया और उसे एक खूबसूरत अंजाम भी दिया, जिसे आज हम दुधवा नेशनल पार्क के नाम से जानते है। शुरूवाती दिनों में पलिया से सम्पूर्णानगर जाने वाली सड़क पर अपने पिता जसवीर सिंह के नाम पर एक फ़ार्म हाउस का निर्माण किया, और खेती को अपना जरिया बनाया। कभी शिकारी रह चुके बिली जब एक दिन अपनी हथिनी पर सवार हो जंगल में दाखिल हुए तो सुहेली और नेवरा नदियों के मध्य भाग को देखकर स्तब्ध रह गये, अतुलनीय प्राकृतिक सौन्दर्य से आच्छादित थी ये धरती जिसके चारो तरफ़ शाखू के विस्तारित वन। यही वह घड़ी थी जिसने टाइगर हावेन के प्रादुर्भाव का निश्चय कर दिया था ।

सन १९६९ ई० में यह जंगल बिली ने खरीद लिया, जिसके दक्षिण-उत्तर में सरितायें और पश्चिम-पूर्व में घने वन।


इसी स्थान पर रह कर इन्होंने दुधवा के जंगलों की अवैतनिक वन्य-जीव प्रतिपालक की तरह सेवा की, फ़िर इन्दिरा सरकार में बिली के प्रयास सार्थक होने लगे। नार्थ खीरी के जंगल संरक्षित क्षेत्र का दर्ज़ा पा गये और बिली सरकार की तरफ़ से अवैतनिक वन्य-जीव प्रतिपालक बनाये गये।


अर्जन सिंह के निरन्तर प्रयासों से सन १९७७ में दुधवा नेशनल पार्क बना और फ़िर टाइगर प्रोजेक्ट की शुरूवात हुई, और इस प्रोजेक्ट के तहत सन १९८८ में दुधवा नेशनल पार्क और किशनपुर वन्य जीव विहार मिलाकर दुधवा ताइगर रिजर्व की स्थापना कर दी गयी। टाइगर हावेन से सटे सठियाना रेन्ज के जंगलों में बारहसिंहा के आवास है जिसे संरक्षित करवाने में बिली का योगदान विस्मरणीय है।


जंगल को अपनी संपत्ति की तरह स्नेह करने वाले इस व्यक्ति ने अविवाहित रहकर अपना पूरा जीवन इन जंगलों और उनमें रहने वाले जानवरों के लिए समर्पित कर दिया।


टाइगर हावेन की अपनी एक विशेषता थी कि यहां तेन्दुए, कुत्ते और बाघ एक साथ खेलते थे। बिली की एक कुतिया जिसे वह इली के नाम से बुलाते थे, यह कुतिया कुछ मज़दूरों के साथ भटक कर टाइगर हावेन की तरफ़ आ गयी थी, बीमार और विस्मित! बिली ने इसे अपने पास रख लिया, यह कुतिया बिली के तेन्दुओं जूलिएट और हैरियट पर अपना हुक्म चलाती थी और यह जानवर जिसका प्राकृतिक शिकार है कुत्ता इस कुतिया की संरक्षता स्वीकारते थे । और इससे भी अदभुत बात है, तारा का यहां होना जो बाघिन थी, बाघ जो अपने क्षेत्र में किसी दूसरे बाघ की उपस्थित को बर्दाश्त नही कर सकता, तेन्दुए की तो मज़ाल ही क्या। किन्तु बिली के इस घर में ये तीनों परस्पर विरोधी प्रजातियां जिस समन्वय व प्रेम के साथ रहती थी, उससे प्रकृति के नियम बदलते नज़र आ रहे थे।


विश्व प्रकृति निधि की संस्थापक ट्रस्टी व वन्य-जीव विशेषज्ञ श्रीमती एन राइट ने बिली को पहला तेन्दुआ शावक दिया, ये शावक अपनी मां को किसी शिकारी की वजह से खो चुका था, लेकिन श्रीमती राइट ने इसके अनाथ होने की नियति को बदल दिया, बिली को सौप कर।


बिली को श्रीमती इन्दिरा गांधी के द्वारा दो तेन्दुए प्राप्त कराये गये जिनका नाम जूलिएट और हैरिएट था। बाद में तारा नाम की बाघिन का बसेरा बना टाइगर हावेन। फ़िसिंग कैट, रीह्सस मंकी, भेड़िया, हाथी और न जाने कितने जीव इस जगह को अपना बसेरा बनायें हुए थे। और इन सभी बिली से एक गहरा रिस्ता था जो मानवीय रिस्तों के सिंद्धान्तों और उनकी गन्दगियों बिल्कुल जुदा था। इन रिस्तों को नियति या प्रकृति ने तय किया था।



आज बिली की इच्छा के मुताबिक उनका अन्तिम संस्कार उसी जगह पर किया गया जहां इली, जूलिएट और प्रिन्स को दफ़नाया गया था। इस जगह से कुच दूरी पर अर्जन सिंह की मां मैबेल का भी अन्तिम संस्कार किया गया था। मैने जब श्रीराम (बिली के ड्राइबर या यूं कहूं कि परिवार का सदस्य) से पूंछा कि बिली साहब की अस्थियां प्रयाग राज ले जायेंगें या कही और, तो जवाब आया साहब सुहेली है न, इससे साहब को बहुत प्रेम था।

श्रीराम ने ही बताया कि बिली की मां की अस्थियां भी सुहेली में प्रवाहित की गयी थी।


जगदीश उर्फ़ हपलू जिसके नाना जैक्सन नें बिली के बाघ और तेन्दुओं को पालने में अपना पूरा जीवन लगाया था, जब बात की तो...............टाइगर मैन की इच्छा थी कि जब मर जाऊ तो किसी बाघ के आगे डाल देना कम से कम उसका पेट भर जायेगा!


पदम भूषण, पदम श्री, कपूरथला रियासत के कुंअर बिली अर्जन सिंह आज अकेले सोये हुए थे चिर निंद्रा में वहां कोई मौजूद था तो सिर्फ़ उनके नौकर जिनके आंखे अश्रुधारा छोड़ रही थी और चेहरों पर शोक के सारे चिन्ह शक्लों को बेरौनक किए जा रहे थे। इनके अलावा अगर कोई था तो वनधिकारी, कर्मचारी और स्थानीय लोग।

इतनी बड़ी शखसियत लेकिन आंसू बहाने वाला अपना कोई नही। लेकिन यकीन मानिए जो लोग थे वही उनके थे ! जसवीर नगर से जब बिली को अन्तिम विदाई दी गयी तो वन-विभाग गार्ड आफ़ आनर देकर बिली से अपने लम्बे व गहरे रिस्तों का कर्ज़ चुका दिया। खीरी जनपद के लोगों और वन-विभाग ने इस अन्तर्राष्ट्रीय शख्सियत को सम्मान जनक विदाई दी ।

किन्तु अफ़सोस इस बात का है कि प्रदेश सरकार और देश की इन्तज़ामियां की तरफ़ से अब-तक कोई सरकारी शोक संदेश जारी नही हुआ। बात सिर्फ़ बिली अर्जन सिंह की नही है, बात हमारे उन हीरोज़ की जो अपना जीवन समर्पित करते है राष्ट्र सेवा में, फ़िर वह समर्पण चाहे देश की सुरक्षा का हो या पर्यावरण की रक्षा का, यदि हम उन्हे सम्मान नही देगे तो पीढ़िया क्या सबक लेगी, और कौन चलेगा इन दुरूह पथों पर जहां कागज़ के टुकड़ों पर सम्मान लिख कर दे दिया जाता है बस पूरी हो गयी जिम्मेदारी। जब कभी जरूरत पड़ी जनता को दिशा देने की तो आदर्श स्थापित करने के लिए हेरोज़ को इतिहास की किताबों में तलाशा जाता है...............



दो वर्षों से आ रही भयानक बाढ़ ने दुधवा के वनों व टाइगर हावेन को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया है यदि जल्दी कोई हल न निकाला गया तो बिली का यह घर जो अब स्मारक है हम सब के लिए के साथ-साथ हमारी अमूल्य प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जायेगी।

बिली अर्जन सिंह के संघर्षों का नतीज़ा है दुधवा टाइगर रिजर्व और टाइगर हावेन, और इन दोनों को सहेजना अब हमारी जिम्मेदारी।

Saturday, January 2, 2010

आनरेरी टाइगर का निधन


Billy Arjan Singh
Originally uploaded by manhan2009

2010 का पहला दिन भारत ही नही दुनिया के वन्य जीव संरक्षण जगत के लिए सबसे दुखद रहा- पदम भूषण बिली अर्जन सिंह का रात नौ बजे ह्रदयघात से निधन हो गया। और इसी के साथ ढह गया एक विशाल स्तम्भ जिसने भारत में वन्य जीव संरक्षण की एक बेमिशाल मुहिम चलाई। टाइगर प्रोजेक्ट और खीरी की विशाल वन श्रंखला को संरक्षित क्षेत्र का दर्ज़ा बिली अर्जन सिंह के प्रयासों से ही हासिल हो सका।
बिली अर्जन सिंह से मेरी पहली मुलाकात सन १९९९ ई में हुई, इसी वक्त मैने जन्तुविज्ञान में एम०एससी० करने की बाद वन्य जीवों पर पी०एचडी० करने का निर्णय किया । बिली से मैं अपने परिचय का श्रेय दुधवा के प्रथम निदेशक रामलखन सिंह को दूंगा, क्यों कि इन्ही कि एक आलोचनात्मक पुस्तक "दुधवा के बाघों में आनुवंशिक प्रदूषण" पढ़ने के बाद हुई।
और पहली मुलाकात में बिली से इस पुस्तक की चर्चा की तो उन्होने ने कहा क्या तुमने मेरी किताबें नही पढ़ी।

और स्वंम बरामदे से लाइब्रेरी तक जाते और तमाम पुस्तके लाते और फ़िर कहते देखों यह पढ़ॊ। फ़िर ये सिलसिला अनवरत जारी रहा, मुझसे वो हमेशा कहते कि मिश्रा जब तक भ्रष्ट प्रशासन-शासन से लड़ाई नही लड़ोगे तब तक कुछ नही होने वाला। मैं उनसे कहता आप से मुलाकात बहुत देर में हुई, क्योंकि मेरा आगमन ही धरती पर देर में हुआ और आप के स्वर्णिम संघर्ष के दिनों को नही देख पाया। तो उनका जवाब था कुछ भी देर नही हुई, तुम यहां आ जाओं मेरे साथ रहो लखीमपुर दुधवा से बहुत दूर है। मैंने नौकरी का बहाना बनाया तो झट से कहा कि ट्रान्सफ़र करवा लो यहां।
यहां एक जिक्र बहुत जरूरी हो जाता है, दुधवा के उपनिदेशक पी०पी० सिंह जिनका दुधवा के जंगलों से काफ़ी लम्बा रिस्ता रहा एक उप-निदेशक के तौर पर और बिली साहब से नज़दीकियां भी। मुझे एक रोज़ पी०पी० सिंह ने बताया कि बिली ने उनसे कहा था कि पिनाकी तुम मुझे सठियाना(दुधवा टाइगर रिजर्व की रेन्ज) में थोड़ी जगह दे देना मेरे मरने के बाद, मेरी कब्र के लिए। बिली का टाइगर हावेन सठियाना रेन्ज से सटा हुआ है और यह वन क्षेत्र बारहसिंघा के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। अर्जन सिंह ने इन्ही बारहसिंहा व बाघों को के लिए इस वन को संरक्षित कराने की सफ़ल लड़ाई लड़ी।
कानून इसकी इज़ाजत नही देता लेकिन हालातों के मुताबिक हमेशा कानून में गुंजाइश की जाती रही है। क्या बिली को दो-चार गज़ जमीन उनके प्रिय सठियाना में नही मिल सकती जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया।
बिली की तेन्दुओं व बाघों के साथ तमाम फ़िल्में बनाई गयी जिनका प्रसारण डिस्कवरी  आदि पर होता रहता है।
बिली अर्जन सिंह को पहली बार मैने लखीमपुर महोत्सव में बुलाया और उन्हॊंने शिरकत भी की, जबकि जनपद में कभी किसी कार्यक्रम में वे कभी नही शामिल हुए। मैं रात में जब पहुंचा टाइगर हावेन तो सभी ने कहा कि आप का प्रयास सार्थक नही होगा। किन्तु बिली साहब मान गये मुझे डाटने के बाद, उनके शब्द थे कि क्या लखीमपुर ले जाकर मेरी कब्र खोदना चाहते हो" वह बीमार रहते थे लेकिन महोत्सव वाले दिन वह अपने कहे गये वक्त पर आ गये, मैने एक टाई लगा रखी थी जिस पर बाघ बना हुआ था, बिली साहब मेरी टाई पकड़ कर खीचने लगे, मैं उनका मंतब्य समझ गया था, कि आनरेरी टाइगर का मन इस बाघ-टाई पर आ गया है, मैने बड़े सम्मान से वह टाई बिली साहब को पहना दी, यह मेरी तुच्छ भेट थी उनको। इस कार्यक्रम में पार्क के निदेशक एम० पी० सिंह  व उपनिदेशक पी०पी० सिंह व दुधवा टाइगर रिजर्व के तमाम लोगों ने शिरकत कर कार्यक्रम का मान बढ़ाया। इसकी वीडियों मैं यहा प्रस्तुत कर रहा हूं।
प्रिन्स, जूलिएट, हैरिएट तीन तेन्दुए थे जिन्हे बिली ने टाइगर हावेन में प्रशिक्षित किया और दुधवा के जंगलों में सफ़लता पूर्वक पुनर्वासित किया। तारा नाम की बाघिन जिसे वह इंग्लैन्ड के ट्राइ-क्रास जू से लाये थे जब वह शावक थी उसका अदभुत प्रशिक्षण फ़िल्मों व फ़ोटोग्राफ़्स में अतुलनीय है, तारा के पुनर्वासन में बिली साहब क विवादित भी होना पड़ा, क्योंकि उनकी इस बाघिन पर तमाम लोगों के मारने के आरोप लगे, और इसे आदमखोर साबित कर मार दिया गया। किन्तु बिली अन्त तक इस बात को नही स्वीकार पाये।
आज दुधवा में बिली द्वारा पुनर्वासित किए गयी बाघिन व तेन्दुओं की नस्ले फ़ल-फ़ूल रही है।

मैंने बिली साहब की किताबों से दुधवा के अतीत को देखा सुना, और यही से मैने बिली को अपना आदर्श मान लिया, नतीजा ये हुआ कि मैं एक शोधार्थी से एक्टीविस्ट बन गया, अब उन वन्य-जीवों के लिए लड़ाई लड़ता हूं जिन्हे इस मुल्क की नागरिकता नही हासिल है, क्योंकि लोकतंत्र में वोट देने वाला ही नागरिक माना जाता है।

बिली ने मुझसे एक दिन कहा था कि उनके पिता जसवीर सिंह लखनऊ के पहले भारतीय डिप्टी कमिश्नर हुए।
मेरे लिए ये एकदम नयी जानकारी थी।

आज मैं इतना जरूर कहूंगा कि दुधवा टाइगर रिजर्व जो कर्मस्थली थी बिली की उसका नाम बिली अर्जन सिंह टाइगर रिजर्व कर दिया जाय और यही हमारी सच्ची श्रद्धाजंली होगी बिली साहब को।

क्योंकि जब एक अंग्रेज यानी जिम कार्बेट के नाम पर आज़ाद भारत में हेली नेशनल पार्क  तब्दील होकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क हो सकता है तो बिली अर्जन सिंह के नाम से क्यों नही।

भारत में वन्य जीव संरक्षण में और खासतौर से बाघ संरक्षण के क्षेत्र में बिली अर्जन सिंह के कद का कोई व्यक्ति न तो कभी हुआ और न ही मौजूदा समय में है।
कुंवर अर्जन सिंह कपूरथला रियासत के शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे, इनका जन्म १५ अगस्त सन १९१७ को गोरखपुर में हुआ। और इनका बिली नाम इनकी आन्टी राजकुमारी अमृत कौर ने किया।

बिली के पिता जसवीर सिंह, दादा राजा हरनाम सिंह, परदादा महाराजा रन्धीर सिंह थे जिन्हों ने सन १८३० से लेकर सन १८ ७०ई० तक कपूरथला पर स्वंतंत्र राज्य किया। महाराजा रंधीर सिंह को गदर के दौरान अंग्रेजों की मदद करने के कारण खीरी और बहराइच में तकरीबन ७०० मील की जमीन रिवार्ड में मिली थी।

बिली का बचपन बलराम पुर के जंगलों में गुजरा, इनके पिता को अंग्रेजी हुकूमत ने बलराम पुर रियासत का विशिष्ठ प्रबन्धक नियुक्त किया। बिली ने यही १४ वर्ष की उम्र मे बाघ का शिकार किया। हाकी, क्रिकेट और शिकार इनके प्रिय खेल हुआ करते थे किन्तु बाद में जिम कार्बेट की तरह इनका ह्रदय परिवर्तन हुआ, और यही से इन्होंने शुरुवात की वन्य जीव संरक्षण की।

बिली ब्रिटिश-भारतीय सेना में भी रहे द्वतीय विश्वयुद्ध के दौरान। सेना की नौकरी छोड़ने के बाद अर्जन सिंह पहली बार एक ३० अप्रैल सन १९४५ को आये। अपने पिता के नाम पर इन्होंने जसवीर नगर नाम का फ़ार्म बनाया। जंगल भ्रमण के दौरान सुहेली नदी के किनारे घने जंगलों के मध्य एक सुन्दर स्थान को अपने नये निवास के लिए चुना और यही वह जगह थी जहां बिली ने बाघ और तेन्दुओं के साथ विश्व प्रसिद्ध प्रयोग किए। यानी बाघ और तेन्दुओं के शावकों को ट्रेंड कर उनके प्राकृतिक आवास में भेजना।

बिली को पदम श्री, पदम भूषण, पाल गेटी, विश्व प्रकृति निधि से स्वर्ण पदक और कई लाइफ़ टाइम एचीवमेंट पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

भारत की तत्कालीन प्रधान मन्त्री श्रीमती गांधी का विशेष सहयोग मिला इन्हे अपने प्रयोगों में और नतीजतन उत्तर खीरी के जंगल को दुधवा टाइगर रिजर्व बनाया गया और बिली को उसका अवैतनिक वन्य-जीव प्रतिपालक।
बिली की नज़र से इन जंगलों और इनमें रहने वाली प्रकृति की सुन्दर कृतियों को देखने और जानने का बेहतर तरीका है उनकी किताबे जिनके शब्द उनके अदभुत व साहासिक कर्मों का प्रतिफ़ल है।

बिली अर्जन सिंह के द्वारा लिखित विश्व प्रसिद्ध किताबें।

१-तारा- ए टाइग्रेस

२-टाइगर हावेन

३-प्रिन्स आफ़ कैट्स

४-द लीजेन्ड आफ़ द मैन-ईटर

५-इली एन्ड बिग कैट्स

६-ए टाइगर स्टोरी

७-वाचिंग इंडियाज वाइल्ड लाइफ़

८-टाइगर! टाइगर!


कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-खीरी, दुधवा टाइगर रिजर्व