राष्ट्रवाद या विश्ववाद या फ़िर पृथ्वीवाद!
अगर दुनिया एक मुल्क हो जाये तो क्या होगा राष्ट्रवादियों, भाषावादियों, जाति-धर्मवादियों और क्षेत्रवादियों का क्या होगा!?
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही|
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए|
विचारों का क्या जहां तक मन जाये वहां तक पींगें बढ़ाइये!आज़ मेरा मन भी पींगों पर पींगें ब़ढा़ रहा है! कुछ अजीब किन्तु तार्किक खयालात् के बोझ तले दबा जा रहा है सोच रहा हूं कुछ विचार आप सब भाई लोगों के फ़ौलादी कन्धों पर टांग दू।
राष्ट्रवाद जिसके लिये तमाम मुल्कों के तमाम लोगों ने अपनी जाने कुर्बान की, संघर्ष गाथायें बनी, और पाठयक्रमों मे शामिल हुई नतीजतन आने वाली पीढ़ियों ने भी उन गाथाओं से सबक लिया और नई राष्ट्रवादी खेपे वजूद में आई, इससे इतर हज़ारो, लाखों की तादाद में क्षेत्रवादी विचारधारायें पनपी और लोग मरते-कटते गये, कही किसी भौगोलिक टुकड़े के नामकरण पर तो कही अलग राज्य के नाम पर और कही-कही तो जाति के नाम पर भी लोग क्रान्ति करते रहे है और संघर्ष आज भी बदस्तूर जारी है। धर्म का जिक्र इस लिये नही किया क्योकि यह तो विस्फ़ोटक तत्व रहा ही है इतिहास में।
भाषाई दंगों के बारे में जिक्र करना मुनासिब नही समझता क्योकि हमारे अपने मुल्क में इस मुद्दे पर कटाजुज्झ जारी है और तमाम लेखनियां स्याही पोक रही है कागज़ और डिजिटल उपकरणों पर बिना रुके।
विचारधारा बर्ड फ़्लू, चिकनगुनिया,(अतीत में हैज़ा, कालरा, और चेचक)की तरह एपीडेमिक होती है बसर्ते समय-काल और परिस्थित अनुकूल हो! लेकिन हमारे मुल्क में सैकड़ों खेमों ने विचारों की फ़ैक्ट्री लगा रखी है और रोज़ ही वह इनकी लाखों प्रतियां छापते है किन्तु इन्हे पाठक नही मिलते वजह साफ़ है कि व्यक्ति सकून से अपने परिवार गांव घर में दो वक्त की रोटी खाना चहता है न कि विना वजह क्रान्ति करना! पर हमारे लोग मानते ही नही सब के सब एक तरफ़ से चेग्वेरा, लेनिन, हिटलर, मुसोलिनी, महात्मा, भगत सिंह, और नेहरू बनना चाह्ते है मगर क्यो किस वजह के लिये, वोट बटोरने के लिये ! या हथियारॊ के दम पर राज करने के लिए? ये नेता बेवक्त के भिखारी बन कर हर भले आदमी का दरवाजा खटखटाने लगते है, कोई दहाड़ कर शेर-कविता कह कर क्रान्ति की राह में ढ़केलने की कोशिश करता है तो कोई रिरियाता है, भाई बड़ी जरूरत है, बदलाव लाने की आप सब के बिना नही हो सकता आदि आदि।
सोचिये आज वैश्विक वातावरण में जहां दुनियां के हर मुल्क का बसिन्दा अपनी रोज़ी-रोटी के लिये गैर-मुल्कों मे नौकरियां कर रहा है धन और सुख दोनो ही उसके आगोश में है। हर वैश्विक समस्या पर हम एक साथ खड़े होते है धीरे-धीरे एक वक्त आ जाये जब सत्ता और शासक जैसी बाते समाप्त हो जाये कारपोरेट जगत की तरह सिर्फ़ उम्दा प्रबंधन हो और ये तमाम प्रबंधन एक साथ यू०एन०ओ० जैसी कोई साझा संस्था द्वारा संचालित हो तो फ़िर सीमा विवाद, प्रादेशिक मसले, भाषा पर हो हल्ला और इस तरह के सभी ही गैर-जरूरी वादॊं का कोई क्या करेगा। फ़िर लोग क्या सोचेगे उन नेताओं के बारे में या और क्रान्तिकारियों के बारे में जिन्होने राष्ट्रवाद के नाम पर वषों संघर्ष किये, खून बहा ! क्या वो प्रासंगिक रह जायेगें? एक उदाहरण है हमारे पास हिन्दुस्तान की जंगे आजादी का जिसमें बापू के योगदान का, फ़िर पाकिस्तान बना किन्तु वहां बापू प्रासगिक नही रहे, कुछ इसी तरह जिन्ना को ही ले भले ही उनका रोल कम रहा हो पर वह व्यक्ति भी तो इस पूरे भू-भाग की स्वतंत्रता में भागीदार थे लेकिन आज हमारे यहां उनका नाम ले लेने पर बवा; खड़ा हो जाता है!
शायद इस तरह के राष्ट्रवादी लोग न होते तो भारत का विभाजन नही होता दुनिया एक मुल्क होती और हम सब उसके बाशिन्दे!
हम अब वैश्विक सोच के दायरे में है हम शान्ति से रहना चाहते है! हमें राजिनीति का दखल नही चाहिये!
जीवन की उत्पत्ति और विकास वाद को देखे तो हम सब एक ही पूर्वज की सन्तान है और इस धरती पर जितने प्रकार के जीव मौजूद है सभी से हमारा रिस्ता है।
"we are from same kinship"
प्रासंगिकता न हो तो इस तरह के विचार गैर-जरूरी लगते है। परिवर्तन को बर्दाश्त करने की माद्दा होनी चाहिये, नही कर सकते तो कबूल कर लो, अगर कुछ कर सकते है तो समाज की नब्ज को हासिल कर उनके मुताबिक खयालातों के साथ निकल पड़िये मशाल लेकर यकीन मानिये लोग आप के साथ होगें और आप हीरो होगें उस समाज़ के लिये इतिहास में जितने भी लोग महान कहे जाते है उन्हो ने समाज की जरूरतो के मुताबिक काम किये और जिन्होने इनके खिलाफ़ अपने खालिश व गैर जरूरी विचारो को लादने की कोशिश कि वह खत्म हो गये दुनिया से भी और दिलों से भी..........................
कुछ ऐसा ही हो रहा है हमारे यहां हिन्दी को लेकर कुछ इसके खिलाफ़ मोर्चा बांधे हुए है तो कुछ इसके पक्ष में ढो़ल पीट रहे है पर इन दोनो के कुछ करने से हिन्दी नही प्रभावित होती है, यदि लोगो को इस भाषा की जरूरत है तो इसके फ़ैलाव को कोई नही रोक सकता और यदि यह प्रासंगिक नही है वर्तमान में तो इसे विलुप्त होने से कोई बचा नही सकता!
प्रत्येक वाद की जरूरत पर उपस्थित ठीक लगती है किन्तु हर वक्त लाऊडस्पीकर लगा कर जनता को गुमराह किया जाय ये काबिले बर्दाश्त नही है।
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष
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