एक कविता जो मैने अपने बचपन में लिखी थी और आज मुझे एक टुकड़ा मिला है उसका जो फ़टा हुआ था बचे हुए अंश................
नेताओं के इस जंगल में
नेताओं के इस दंगल में
तिल-तिल जलता है इंसान (शोषित होता है इन्सान)
नेताओं के इस दलदल में
फ़ंसता रहता है इन्सान
नेताओं की इस नगरी में
फ़ीका है हर इक इन्सान
आपस में ये लड़ते-झगड़ते पिसता है ये इन्सान
नेताओं को कौन सुधारे...............कागज फ़ट चुका है!
भाई हम आज़ाद मुल्क के बाशिन्दे है जहां प्राकृतिक संसाधन के साथ-साथ औद्योगिक विकास भी खूब हुआ है ।
नेता का पर्याय है नेतृत्व करने वाला, मुद्दों पर अटल रहकर जनहित में कार्य करना पर क्या आप को लगता है हमारे यहां अब कोई नेता बचा है जिसमे वास्तविक नेतृत्व की क्षमता है सिवाय राजिनीति करने के!
हमारे मुल्क में सहकारिता भी भृष्टाचार की भेट चढ़ गयी तो अब हम शासन को प्राईवेट लिमिटेड की तरह क्यो न ट्रीट करे जिसमे हमारे मुल्क का हर नागरिक शेयर धारक हो और नेता उस कम्पनी के प्रबन्धक हो जो सबकी भागीदारी सुनश्चित कर उनके रोज़गार और नागरिकों की जिम्मेदारी सुनिश्चित करे! यथायोग्य सभी को काम मिले । जबकि इसकी जगह पर जनता को भड़काकर अभी भी क्रान्ति और परिवर्तन की बेहुदा बाते करते है ये नेता और पांच साल के लिये बेवकूफ़ बनाते है हमें। जब सत्ता में बैठा शासक मालिकाना हक रखता है मुल्क पर तो उसे नागरिकॊं के लिए अपनी जिम्मेदारी से क्यो मुह फ़ेर लेता है ।
मुझे तो जनता शब्द में राजतन्त्र की बू आती है और शासन जैसे शब्द में तानाशाही........................
आम सहभागिता सुनिश्चित हो और अनियोजित विकास बन्द हो! और भारत के सभी प्रान्तों के लोगों को एक ही मुख्यधारा में समाहित किया जाय!
2 comments:
बहुत अच्छी कविता के साथ आपने अपनी बात रखी है |
विडम्बना पर किसका बस है ...
फिर भी ...
''हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या '' ...
धन्यवाद् ... ...
..कागज फ़ट चुका है!
बचपन की कविता..और समस्याओं का शाश्वत होते जाना...
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