Friday, November 13, 2009

यह सुन्दर रचना करने वाला कौन है?


इस रचना का रचनाकार कौन?


एक रात जब मेरी उंगलियां कीबोर्ड पर जिमनास्टिक कर रही थी तभी मुझे इस अंधेरी रात में एक अपरिचित सी तेज़ आवाज सुनाई दी .........कुछ समय सन्नाटा और फ़िर वही आवाज, मैने कमरे से बाहर झांक कर देखा पर कुछ मालूम नही कर सका । किन्तु अब ये आवाज रह-रह कर तेज़ हो रही थी आखिर में मैने तय कर लिया कि अन्वेषण पूरा करना है अगल-बगल के कमरों की तलाशी ली, स्म्पूर्ण घर के अवलोकन के बाद बाथरूम के दरवाजे पर एक छोटा सा सुन्दर प्राणी दिखा जो खालिश हरे रंग का था । उससे मेरा पहले से परिचय था और जब उसे देखा था अपने जीवन में पहली बार तो कौतूहल की स्थित थी एक महीना पहले मदार के पौधे पर वृक्ष कहू तो भी अनुचित नही है ! ये प्राणी ऐसा लग रहा था जैसे किसी दूसरी दुनिया से आया हो, पत्तियों जैसा रंग और पत्तियों जैसे हरे पंख जिनमे शिरायें भी पत्ती की तरह चमक रही थी, प्रकृति का अतुल्य निर्माण, मुझे ऐसा लगा कि इस अदभुत जीव को किसने बनाया होगा और वह कितना अदभुत होगा? यहां मै रूमानी हो गया और ईश्वरवादी भी।

Who creates it ? This is God, This is Mother Nature !

मदार की हरी पत्तियों के मध्य मुझे अचानक इस धरती के एक और रत्न से परिचय हुआ, अपने Analogue SLR camera जिसमें Sigma का 300 mm Zoom lens है से तस्वीरे खींची और सोचा Negative print आ जाने पर इसको आईडेन्टीफ़ाई करूगां नही होगा तो तो अपने अन्य जीवविज्ञानी मित्रों से मदद लूंगा । किन्तु बात आई गयी हो गई।

आज जब इस अदभुत और इसकी पराग्रही सी लगने वाली आवाज ने मुझे और रोमान्टिक कर दिया फ़िर क्या था इस जीव से मेरा प्रेम और बढ़ा और इसी रात मैने इस रहस्य को जान लिया कि आखिर ये कौन है! लेकिन इसके बनाने वाले का पता नही चल सका ? यदि आप सब को कोई जानकारी मिले इस वाबत तो मुझे जरूर सूचित करे ।

एक जीवविज्ञानी होने के नाते इसका वैज्ञानिक परिचय भी दिये देता हूं।

 कैटीडिड (माइक्रोसेन्ट्रम रेटीनेर्व)

इसे अमेरिका में कैटीडिड् के नाम से पुकारते है। और ब्रिटिश शब्दावली में बुश-क्रिकेट के नाम से पहचाना जाता है । यह टैटीगोनीडी परिवार से ताल्लुक रखता है और इस परिवार का दायरा इतना बड़ा है कि इसमें 64000 से ज्यादा प्रजातियां मौजूद है। वैसे इसको इन्सानी दुनिया में एक और नाम से बुलाते है "लान्ग हार्न्ड-ग्रासहापर किन्तु वास्तव में य जीव क्रिकेट से अत्यधिक नजदीक है बजाय ग्रासहापर के।

यह जीव और इसके रिस्तेदार मौका और हालात के मुताबिक अपनी रंग-रूप को ढ़ालने की क्षमता रखते है जैसे हरी पत्तियों के मध्य हरे, सूखे पत्तो के मध्य खाकी रंग के रूप में प्रगट हो जाते है है न जादूगर जैसा, पर बात फ़िर वही अटक गयी इसे बनाने वाला कितना बड़ा जादूगर होगा?

हां एक और बात यह जीव नर था। अब आप सोचेगे ये कैसे! दरअसल इस परिवार के नर ही इस अदभुत आवाज़ को निकालने की क्षमता रखते है । यह ध्वनि स्ट्रीडुलेशन अंगों द्वारा की जाती है और यह अंग नर में ही मौजूद होते है। इस परिवार की कुछ प्रजातियों की मादाओं में भी ये ध्वनि करने वाले अंग होते है।

हां यह परिवार ग्रासहापर से यूम अलग हुआ, कि इसके एन्टीना लम्बे लगभग शरीर की लम्बाई के मुताबिक व पतले होते है जबकि ग्रासहापेर में मोटे और छोटे।

टेरोफ़ाइला जीनस (पत्ती की तरह पंख वाला) में कैटीडिड्स शब्द  इस जीव की ध्वनि उत्पन्न करने की क्षमता की वजह से अमेरिका में प्रचलित हुआ, इसमें स्ट्रीडुलेशन अंग इस जीव की पीठ पर होता है जो आपस में रगड़ने से आवाज उत्पन्न करता है।

उत्तरी अमेरिका में इस परिवार की 250 प्रजातिया है किन्तु एशिया में इसकी अत्यधिक प्रजातियां मौजूद है।

नाना प्रकार के रूप बदलने की क्षमता वाले तमाम जीव है हमारी धरती पर, ऐसा मैने उसके बारे में भी सुना है कुछ ईश भक्तो से जिसने दुनिया बनाई!

 मेरी रूमानियत बढ़ रही है शने: शने: !

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

हमें नेता नही प्रबन्धक चाहिये!


एक कविता जो मैने अपने बचपन में लिखी थी और आज मुझे एक टुकड़ा मिला है उसका जो फ़टा हुआ था बचे हुए अंश................

नेताओं के इस जंगल में
नेताओं के इस दंगल में


तिल-तिल जलता है इंसान (शोषित होता है इन्सान)


नेताओं के इस दलदल में
फ़ंसता रहता है इन्सान


नेताओं की इस नगरी में
फ़ीका है हर इक इन्सान


आपस में ये लड़ते-झगड़ते                                                                                पिसता है ये इन्सान                           
नेताओं को कौन सुधारे...............कागज फ़ट चुका है!

भाई हम आज़ाद मुल्क के बाशिन्दे है जहां प्राकृतिक संसाधन के साथ-साथ औद्योगिक विकास भी खूब हुआ है ।
नेता का पर्याय है नेतृत्व करने वाला, मुद्दों पर अटल रहकर जनहित में कार्य करना पर क्या आप को लगता है हमारे यहां अब कोई नेता बचा है जिसमे वास्तविक नेतृत्व की क्षमता है सिवाय राजिनीति करने के!

हमारे मुल्क में सहकारिता भी भृष्टाचार की भेट चढ़ गयी तो अब हम शासन को प्राईवेट लिमिटेड की तरह क्यो न ट्रीट करे जिसमे हमारे मुल्क का हर नागरिक शेयर धारक हो और नेता उस कम्पनी के प्रबन्धक हो जो सबकी भागीदारी सुनश्चित कर उनके रोज़गार और नागरिकों की जिम्मेदारी सुनिश्चित करे! यथायोग्य सभी को काम मिले । जबकि इसकी जगह पर जनता को भड़काकर अभी भी क्रान्ति और परिवर्तन की बेहुदा बाते करते है ये नेता और पांच साल के लिये बेवकूफ़ बनाते है हमें। जब सत्ता में बैठा शासक मालिकाना हक रखता है मुल्क पर तो उसे नागरिकॊं के लिए अपनी जिम्मेदारी से क्यो मुह फ़ेर लेता है ।

मुझे तो जनता शब्द में राजतन्त्र की बू आती है और शासन जैसे शब्द में तानाशाही........................

आम सहभागिता सुनिश्चित हो और अनियोजित विकास बन्द हो! और भारत के सभी प्रान्तों के लोगों को एक ही मुख्यधारा में समाहित किया जाय!

राष्ट्रवाद या विश्ववाद या फ़िर पृथ्वीवाद ! अगर दुनिया एक मुल्क हो जाये तो !

राष्ट्रवाद या विश्ववाद या फ़िर पृथ्वीवाद!





अगर दुनिया एक मुल्क हो जाये तो क्या होगा राष्ट्रवादियों, भाषावादियों, जाति-धर्मवादियों और क्षेत्रवादियों का  क्या होगा!?


ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही|


कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए|

विचारों का क्या जहां तक मन जाये वहां तक पींगें बढ़ाइये!आज़ मेरा मन भी पींगों पर पींगें ब़ढा़ रहा है! कुछ अजीब किन्तु तार्किक खयालात् के बोझ तले दबा जा रहा है सोच रहा हूं कुछ विचार आप सब भाई लोगों के फ़ौलादी कन्धों पर टांग दू।

राष्ट्रवाद जिसके लिये तमाम मुल्कों के तमाम लोगों ने अपनी जाने कुर्बान की, संघर्ष गाथायें बनी, और पाठयक्रमों मे शामिल हुई नतीजतन आने वाली पीढ़ियों ने भी उन गाथाओं से सबक लिया और नई राष्ट्रवादी खेपे वजूद में आई, इससे इतर हज़ारो, लाखों की तादाद में क्षेत्रवादी विचारधारायें पनपी और लोग मरते-कटते गये, कही किसी भौगोलिक टुकड़े के नामकरण पर तो कही अलग राज्य के नाम पर और कही-कही तो जाति के नाम पर भी लोग क्रान्ति करते रहे है और संघर्ष आज भी बदस्तूर जारी है। धर्म का जिक्र इस लिये नही किया क्योकि यह तो विस्फ़ोटक तत्व रहा ही है इतिहास में।

भाषाई दंगों के बारे में जिक्र करना मुनासिब नही समझता क्योकि हमारे अपने मुल्क में इस मुद्दे पर कटाजुज्झ जारी है और तमाम लेखनियां स्याही पोक रही है कागज़ और डिजिटल उपकरणों पर बिना रुके।

विचारधारा बर्ड फ़्लू, चिकनगुनिया,(अतीत में हैज़ा, कालरा, और चेचक)की तरह एपीडेमिक होती है बसर्ते समय-काल और परिस्थित अनुकूल हो! लेकिन हमारे मुल्क में सैकड़ों खेमों ने विचारों की फ़ैक्ट्री लगा रखी है और रोज़ ही वह इनकी लाखों प्रतियां छापते है किन्तु इन्हे पाठक नही मिलते वजह साफ़ है कि व्यक्ति सकून से अपने परिवार गांव घर में दो वक्त की रोटी खाना चहता है न कि विना वजह क्रान्ति करना! पर हमारे लोग मानते ही नही सब के सब एक तरफ़ से चेग्वेरा, लेनिन, हिटलर, मुसोलिनी, महात्मा, भगत सिंह, और नेहरू बनना चाह्ते है मगर क्यो किस वजह के लिये, वोट बटोरने के लिये ! या हथियारॊ के दम पर राज करने के लिए? ये नेता बेवक्त के भिखारी बन कर हर भले आदमी का दरवाजा खटखटाने लगते है, कोई दहाड़ कर शेर-कविता कह कर क्रान्ति की राह में ढ़केलने की कोशिश करता है तो कोई रिरियाता है, भाई बड़ी जरूरत है, बदलाव लाने की आप सब के बिना नही हो सकता आदि आदि।

सोचिये आज वैश्विक वातावरण में जहां दुनियां के हर मुल्क का बसिन्दा अपनी रोज़ी-रोटी के लिये गैर-मुल्कों मे नौकरियां कर रहा है धन और सुख दोनो ही उसके आगोश में है। हर वैश्विक समस्या पर हम एक साथ खड़े होते है धीरे-धीरे एक वक्त आ जाये जब सत्ता और शासक जैसी बाते समाप्त हो जाये कारपोरेट जगत की तरह सिर्फ़ उम्दा प्रबंधन हो और ये तमाम प्रबंधन एक साथ यू०एन०ओ० जैसी कोई साझा संस्था द्वारा संचालित हो तो फ़िर सीमा विवाद, प्रादेशिक मसले, भाषा पर हो हल्ला और इस तरह के सभी ही गैर-जरूरी वादॊं का कोई क्या करेगा। फ़िर लोग क्या सोचेगे उन नेताओं के बारे में या और क्रान्तिकारियों के बारे में जिन्होने राष्ट्रवाद के नाम पर वषों संघर्ष किये, खून बहा ! क्या वो प्रासंगिक रह जायेगें? एक उदाहरण है हमारे पास हिन्दुस्तान की जंगे आजादी का जिसमें बापू के योगदान का, फ़िर पाकिस्तान बना किन्तु वहां बापू प्रासगिक नही रहे, कुछ इसी तरह जिन्ना को ही ले भले ही उनका रोल कम रहा हो पर वह व्यक्ति भी तो इस पूरे भू-भाग की स्वतंत्रता में भागीदार थे लेकिन आज हमारे यहां उनका नाम ले लेने पर बवा; खड़ा हो जाता है!

शायद इस तरह के राष्ट्रवादी लोग न होते तो भारत का विभाजन नही होता दुनिया एक मुल्क होती और हम सब उसके बाशिन्दे!

हम अब वैश्विक सोच के दायरे में है हम शान्ति से रहना चाहते है! हमें राजिनीति का दखल नही चाहिये!

जीवन की उत्पत्ति और विकास वाद को देखे तो हम सब एक ही पूर्वज की सन्तान है और इस धरती पर जितने प्रकार के जीव मौजूद है सभी से हमारा रिस्ता है। 
 "we are from same kinship"

प्रासंगिकता न हो तो इस तरह के विचार गैर-जरूरी लगते है। परिवर्तन को बर्दाश्त करने की माद्दा होनी चाहिये, नही कर सकते तो कबूल कर लो, अगर कुछ कर सकते है तो समाज की नब्ज को हासिल कर उनके मुताबिक खयालातों के साथ निकल पड़िये मशाल लेकर यकीन मानिये लोग आप के साथ होगें और आप हीरो होगें उस समाज़ के लिये इतिहास में जितने भी लोग महान कहे जाते है उन्हो ने समाज की जरूरतो के मुताबिक काम किये और जिन्होने इनके खिलाफ़ अपने खालिश व गैर जरूरी विचारो को लादने की कोशिश कि वह खत्म हो गये दुनिया से भी और दिलों से भी..........................

कुछ ऐसा ही हो रहा है हमारे यहां हिन्दी को लेकर कुछ इसके खिलाफ़ मोर्चा बांधे हुए है तो कुछ इसके पक्ष में ढो़ल पीट रहे है पर इन दोनो के कुछ करने से हिन्दी नही प्रभावित होती है, यदि लोगो को इस भाषा की जरूरत है तो इसके फ़ैलाव को कोई नही रोक सकता और यदि यह प्रासंगिक नही है वर्तमान में तो इसे विलुप्त होने से कोई बचा नही सकता!

प्रत्येक वाद की जरूरत पर उपस्थित ठीक लगती है किन्तु हर वक्त लाऊडस्पीकर लगा कर जनता को गुमराह किया जाय ये काबिले बर्दाश्त नही है

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

Wednesday, November 11, 2009

"हिन्दी के प्रति उनकी चिन्ता मात्र उनका रोज़गार है"



भैया हिन्दी का विकास ऐसे नही होगा आप सब का भले हो जाये !
"कही ऐसा तो नही है कि हिन्दीकारों की हिन्दी के प्रति उनकी चिन्ता मात्र उनका रोज़गार है"

ब्लाग पर हिन्दी की धूम देखकर ह्रदय पुलकित हो उठता है । किन्तु एक डर हमेशा मुहं बाये खड़ा है ? कि यदि गूगल ने या अन्य मुफ़्त की सेवायें देने वाली साइटस जो हिन्दी ब्लागिग की सुविधा दे रही है कही उन्होने अपनी पालिशी में फ़ेरबदल दिया तो क्या होगा ! आप कह सकते हो कि ब्लाग को सुरक्षित रखने के तमाम तरीके है .जैसे.........एच टी एम एल कोड को सेव कर लेना आदि-आदि पर क्या ये मुनासिब हल है इस समस्या का ! फ़िर क्या होगा इन पोस्ट्स का और चटकाकारी का !!
आज हम आदी हो चुके है हिन्दी ब्लागिग के और उन तमाम सुविधाओं के जो ये वेबसाइट हमें प्रदान कर रही है !
कोई यहां अपना हिन्दी गुबार निकाल रहा है कोई अपने पन्थ का प्रचार प्रसार ! ब्लाग्स पर आप को सभी इज्म मिल जायेगें और सभी तरह के इज़्मकार भी फ़ुलझड़िया छोड़ते हुए ।
वही कुछ बेहतरीन ब्लोग्स हिन्दी में दुर्लभ नालेज को संकलित किये हुए है जो हमारे समाज के लिये जरूरी है।
यहां तक कि जो जानकारी हिन्दी की किताबों में अभी तक उपलब्ध नही है वह सब ब्लाग पर आप पढ़ सकते हो, लोगो की दिन रात की मेहनत, जो कीबोर्ड पर उंगलियों के जिमनास्टिक का नतीजा है

एक लिखने की बेहतर आदत ! पर क्या हमारा पूर्ण अधिकार है हमारी इस मेहनत पर ?

क्या हम स्वतंत्र राष्ट्र के स्वतंत्र ब्लागर्स है ? क्या यह अन्तरजाल जहां हिन्दी लहरा रही है विशाल तंरगों में !
क्या हमने अपना कोई हिन्दी वर्जन वाला आपरेटिग सिस्टम बना पाये या बनवा पाये जैसा कि चाइना व अन्य देशो ने मजबूर कर दिया दुनिया की बड़ी कम्पनी को कि वह चाइनीज OS बनाये !

क्या हमने कोई वेबसर्वेर स्थापित किया जो सिर्फ़ हमारी हिन्दी चिठठाकारी को सजों सके ?


क्या हमने  ब्लाग्स की  कोई वार्षिकी प्रकाशित की जो इस असीम विग्यान व ज्ञान को वर्चुअल दुनिया के अलावा भौतिक रूप से हमारे समक्ष प्रस्तुत कर सके व उन लोगो के समक्ष भी जो कम्प्यूटर का इस्तेमाल नही जानते या नही करते ?


क्या हम दुनिया के तमाम साहित्य या यूं कह ले की अपने भारतीय साहित्य, इतिहास, भूगोल, विग्यान को हिन्दी में ढ़ाल पाये

ब्लाग पर रिरियाने, चिल्लाने, और दहाड़ने से कुछ नही होगा सब आये एक साथ और सार्थक पहल करे मै जानता हूं सब सक्षम है इन सब बातॊं के लिये और ब्लागर्स अपना पूर्ण सहयोग देगे हिन्दी के इस सघर्ष में 

भाषा वही समृद्ध व विकसित होती है जिसमें सारे संसार का सार हो ।..................................अन्यथा बातों व व्याखानों से कुछ नही होता ।


कहा सुना माफ़ करियेगा 


आप का
कॄष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

क्या भारत एक राष्ट्र है ?


शब्द के मायने और उसके गुण-दोष परिस्थित और काल के अनुसार बदलते रहते है अब सोचना आप को है कि इस शब्द का इस्तेमाल कैसे और कहां करना है ?
उपमहाद्वीप,. हिन्दुस्तान,......... भारत, राष्ट्र,. गणराज्य, देश
देशद्रोहियों की सजाये सुनिश्चित की जाय


अभी हाल में चाइना ने इसी तरह कुछ कहा था कि भारत कोई राष्ट्र जैसी चीज नही, या वह यह कहना चाहता है कि भारत एक तरफ़ हिमालय से घिरा और तीन तरफ़ से समुन्दर से घिरा सिर्फ़ एक भूभाग है , जहां भाषाई तौर पर अलग-अलग टुकड़ें राज्य कहलाते है और इन जगहों पर तमाम संस्कृति, धर्म के लोग रहते है जो रोज आपस मे लड़ते है सिर्फ़ इस लिये कि उनकी ज़बान इलाहिदा है, धर्म जुदा-ज़ुदा है। उनके म़सायल अलग-अलग है !

 इस जमीन के टुकड़ों को सियासिती तौर पर  अग्रेज हुक्मरानों ने एक कर इण्डिया बना या ! और बापू  ने इस मुल्क को भावनात्यामक तौर से जोड़कर भारत बनाया । सियासत ने हमें भौगोलिक सीमाओं के भीतर समेट कर एक कर दिया किन्तु क्या हम "अनेकता में एकता" वाले सूत्र में गुथ पाये ?

महाराष्ट्र में जो हुआ, भाषा के नाम पर, वह क्या बेहूदा संदेश देना चाह्ता है,  दुनिया को । या दक्षिणपंथी, वामपंथी या फ़िर नक्सलवादी किस बात की लड़ाई लड़ रहे है इस राष्ट्र से, कभी मन्दिर के नाम तो कभी संस्कृति के नाम, सर्वहारा के नाम पर, जायज मुद्दों पर सरकार से लड़ाई तो समझ आती है पर राष्ट्र से लड़ाई लड़ना ,,,,,,,,,,,,,देश की अखण्डता, गौरव, सुरक्षा और संस्कृति को क्षति पहुचाना किस तरह की क्रान्ति का परिचायक है! 

आज राजनीति और राजनेता जिस तरह की गैरजिम्मेदाराना हरकते कर रहे हैं उनके लिये एक और प्रियदर्शिनी इन्दिरा की जरूरत, ताकि इन्हे इनकी राष्ट्रदोही गतिविधियों का सबक मिल सके, मै इमरजेन्सी या तानाशाही का समर्थक नही हूं लेकिन जब बात राष्ट्र की अखण्डता और उसकी संस्कृति पर कुठराघात की आये तो सज़ा सुनिश्चित होनी चाहिये!, और शासक को निरूकुंश  होना चाहिये !


हमारे मुल्क तमाम सिरफ़िरे लोग आयातित विचारधारा का चोला पहने घूम रहे है जो गरीबी, भुखमरी, और समानता की सवेंदनशील बाते करते है मशाले लेकर क्रान्ति की बात करते है पर क्या उन्होने अपने दामन को कायदे से निहारा है कि इन तमाम वर्षों में उनकी क्या उपलब्धता रही सिवाय इसके "कि भारत के खुशग़वार मौसम में भी छाता लगा लेने के यदि बीजिंग या मास्को में पानी बरस रहा हो तो ।"

और कुछ ऐसा ही है उन कथित राष्ट्रभक्तो के लिये जो दम भरते है विशुद्ध भारतीयता और इसके दर्शन का कभी-कभी तो वही अपने आप को भारतीय मानते है और सब कूड़ा-करकट, झाड़ू लगाने की बेहूदी बात भी कर देते है सियासी मैदानों में! अब इनकी भी देशभक्ति सुन लीजिये, जब आजादी की लड़ाई  में भारत हर खास ओ आम आदमी उस नेक-माहौल में अपना - अपना योगदान दे रहा था तब ये सब अग्रेजों की मुखबरी और बापू की हत्या करने के प्रयास में तल्लीन थे ! मुल्क आज़ाद हुआ तो ये सब जमीदारों-राजाओं के एजेन्ट बन कर उनकी रियासतॊं को बचाने में लग गये, उसमे विफ़ल हुए तो जनता पर क्रूरता और जोर-जबरदस्ती से शाशन करने वाले इन अग्रेजी एजेन्टों का पेन्शन-भत्ता ही बच जाय इसकी पुरजोर कोशिश .............किन्तु विफ़लता ही लगी इन कथित ...................को.............


विचारधारा को हथकण्डा बनाकर राजनीति करने वालों ने तो इस देश की जमीन पर अपने-अपने टुकड़ों का नक्शा भी ख़ीच लिया और सशस्त्र लड़ाईयां भी जारी है। पर सियासत दा जो सरकार में है वो भी किसी तरह पांच साल गुजारना चाहते है बिना किसी विवाद के और इस ख्वाइस के साथ कि आने वाले पांच साल भी हमारे हो जाय ।




इस मुल्क में तो राष्ट्रभक्तों पर गीत लिखने वाले व्यक्ति भी सुरक्षित नही रहे  एक पूर्व राजा ने  जिसकी  पीढ़ियां सियासत में आज भी राजा का दर्जा हासिल किये है, ने कविता की उन लाइन्स को खारिज़ करने की बात कही जिनमे उनके पुरखो के देशद्रोही होने का जिक्र था कवियत्री नही मानी तो उनका रोड-एक्सिडेन्ट करा दिया जाता है??????

तमाम सियासत दां के सफ़ेद चेहरों के पीछे छिपी है काली रात की भयानक करतूते किन्तु वों धरती के देवता का ओहदा प्राप्त किये लाल-बत्तियों वाले रथों में विराजमान  होकर देश की छाती पर मूंग दल रहे है बिना किसी डर या शर्म के ।

भारत सरकार को ऐसे "anarchists" ????????को राज्य-सत्ता की अस्मिता पर हमला बोलने के जुर्म में सजा-ए-मौत देना सुनिश्चित करे -----------इससे कम बिल्कुल नही ! यह राज्य का अधिकार भी है और दायित्व भी !


यदि सरकार अपने दायित्वों का निर्वहन सही ढ़ग से नही करती तो उसके खिलाफ़ आवाज उठाना यकीनन उचित है इसे आप "Anarchist Revolt" नाम दे सकते है महात्मा गांधी को भी ब्रिटिश सरकार कभी-कभी इसी शब्द से नवाजती थी ।




कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष



Tuesday, November 10, 2009

हिन्दी को हिन्दुस्तानी बनाये !


Photo & Text by Krishna Kumar Mishra


हिन्दी को हिन्दुस्तानी बनाये


भाषा की लोकप्रियता के लिये उस भाषा का शब्दकोष और उस लिपि में लिखा गया ज्ञान इस बात के लिये उत्तरदायी होता है कि वह भाषा कितना राष्ट्रीयकृत या ग्लोबल होगी ।


अग्रेजों ने अपनी भाषा में संसार के सम्पूर्ण ज्ञान को समेटा और परोसा आज आप जिस मुल्क की सभ्यता, ज्ञान व विज्ञान की खिड़की खोलना चाहे खोल ले और देख ले उस देशकाल की परिस्थित बिना अटके और उलझे।
लेकिन हम वैश्विक स्तर की बात छोड़ दे तो हम अपने देश का ही साहित्य जो तमाम अन्य भारतीय भाषाओं में है उसे ही हिन्दी के रंग में नही रंग पाये। आप सोचिये मास्को प्रकाशन ने हमारे लोगो को रूस का बेहतरीन साहित्य पढ़ने का जो मौका दिया था वह सराहनीय है.रूसी का हिन्दी में सुन्दर अनुवाद !

नतीजा ये है कि हमारे लोग तमिल एवं उड़िया के उम्दा साहित्य व साहित्यकारो को नही जानते लेकिन यहां हर युवा पर लेनिन, टाल्स्टाय, गोर्की और दोस्तोविस्की की छाप पड़ी और साम्यवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार भी !

अग्रेजॊं ने हमारे संस्कृत, और अन्य क्षेत्रिय भाषाओं में लिखे प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद कर उन्हे सुरक्षित रखने का अपरोक्ष तौर से एहसान तो किया ही , और अपनी अग्रेजी भाषा को भारतीय जान से और अधिक ओत-प्रोत कर संमृद्ध कर लिया। नही तो हम...............
जब तक हम भाषा को समाज, देश की मुख्य धारा से नही जोड़ेगे तब तक हम इस बात का इल्जाम किसी पर थोप नही सकते कि फ़ला व्यक्ति या संस्था  ्हिन्दी को मान्यता नही दे रहा है
दिल्ली की गलियों से लेकर सिनेमा तक में बोली जाने वाली हिन्दुस्तानी जो पारसी, अरबी, तुर्की, अग्रेजी, अवधी, ब्रज, बुन्देली, व राजपूताना की भाषाओं का संगम थी वही सर्वमान्य हुई हमारे समाज में न कि क्लिष्ट संस्कृत प्रधान हिन्दी !

आज जब अग्रेजी का शब्दकोश दुनिया की तमाम भाषाओं के शब्दों से अमीर हो रहा है हम तब भी अपने क्षेत्रीय शब्दों को साहित्य में शामिल करने से गुरेज करते है

शैव, नागा, ये दो शब्द दुनिया के प्राचीन भारतीय सम्प्रदाय के शब्द है किन्तु अग्रेजी शब्दकोष ने इन्हे अपनाया और अब जब कोई भारतीय बच्चा इन्हे विदेशी भाषा के शब्द कोष में पढ़ेगा तो क्या वह इन शब्दो को भारतीय मान सकेगा । नितान्त कमी है हमारे देश में एक बेहतर हिन्दी-शब्दकोश की जो प्रचलित हो और सर्वसुलभ हो

६० बरस बहुत होते है किसी देश की सरकार और वहां के निवासियों के लिये कुछ बेहतर करने के लिये । इस लिये कोई बहाना नही चलेगा!
सारे जहां के इल्म का हिन्दी में  तरजुमा  हो। इन्ही शुभकामनाओं के साथ

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारतवर्ष

Wednesday, November 4, 2009

मिठ्ठू लाल जी और प्रवासी पक्षी


ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है|

"मुनव्वर राना"


४ नवम्बर २००९ मै शाह्जहांपुर पहुंचा कार की मरम्मत करवाने किन्तु मेरे इरादे और भी थे जिसमें एक था मिठ्ठू लाल जी से मुलाकात करना, अब पूछिये ये मिठ्ठूलाल कौन है ?

ये ७५ वर्ष के बुजुर्ग है जो अपनी रिवाल्वर "Webley & Scott" डालकर प्रत्येक सुबह उस बगीचे में आ जाते है जिसके ठीक सामने एक तालाब है जो मिठ्ठूलाल जी द्वारा ही निर्मित है और इसी जगह कुछ कमरे भी निर्मित है और बगल में एक शिवाला, यानी मिठ्ठूलाल जी महादेव की शरण में भी है !आप कभी राइस मिल और ईट भट्टा मालिक थे, इसी भट्टे से ईट के लिये निकाली गयी मिट्टी से बना गढ्ढा अब तालाब में तब्दील हो गया है, और प्रवासी पक्षी  वर्ष के चार महीने के बसेरे के लिये हजारों मील दूर से यात्रा करके मिठ्ठू लाल के इस तालाब को अपना घर बनाते है------"ईट भट्टे का यह गढ्ढा अब तब्दील हो गया है रंग-बिरंगे पक्षियों का स्वर्ग"

गौर तलब बात यह कि मानव बस्ती के निकट हज़ारों विदेशी चिडियों का प्रवास स्थल सुरक्षित है जहां कोई इन्हे हानि नही पहुंचा सकता। क्योकि मिठ्ठूलाल जी जो है ।
यहां रह रहे मिठ्ठूलाल जी के नौकर भी इनके सरंक्षण में अपना योगदान देते है!
एक वाकया मिठ्ठूलाल जी ने बताया कि एक दरोगा इन पक्षियो का शिकार करने आया उनके मना करने पर बोला ये तो "आवारा चिड़ियां" है मिठ्ठूलाल बोले अच्छा ! ये आवारा है ! ये मेरी चिड़िया है ! ये तालाब मेरा है ! तो वह दरोगा बोला अच्छा जब ये उड़ेगी तब इन्हे मै मार दूंगा, मीठ्ठूलाल् ने रिवाल्वर निकालकर कहा मै तुम्हे मार दूंगा !
देखिये अब आप लोग ही देखिये ये मनुष्य कितना बेवकूफ़ व जालिम हो चुका है वह प्रकृति की हर वस्तु को अपना गुलाम बनाना चह्ता है और खुद उस वस्तु का मलिक चाहे वह सजीव क्यो न हो उसे वस्तु ही लगती है!
इस धरती पर जितना मनुष्य का हक है उतना किसी और जीव का भी फ़िर चाहे वह हिरन हो चिड़िया हो या सांप किन्तु हम सबके मालिक बनना चाह्ते है या किसी न किसी के अधिकार में उस जीव को स्वीकार करना चाहते है तभी तो मिठ्ठूलाल को दरोगा से कहना पड़ा कि ये मेरी चिड़ियां है! तब जा के इस स्वंतंत्र पक्षियों की जान बच सकी !!
खैर मीठूलाल जैसे व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी होगी समाज़ को, तभी प्रकृति के विनाश को रोका जा सकता है और सरकार को भी ऐसे लोगो को प्रोत्साहन देना होगा " पक्षी मित्र" जैसे पुरस्कारों से अलंकृत करके ! ताकि अन्य लोग संरक्षण के महत्व को समझ सके!

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-262727
भारतवर्ष
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