Wednesday, April 2, 2014

तितली वाला फूल.....



ऊँट-कटैया जो मलेरिया को कर सकती है ख़त्म

ये है मैक्सिकन पॉपी, इसका वैज्ञानिक नाम है आर्जीमोन मेक्सिकाना, पेपवेरेसी कुल का यह पौधा भारत में कब आया यह तो सुनश्चित नहीं है, किन्तु आर्यवेद में इसके औषधीय महत्वों का वर्णन संकलित होने से यह बात तो पुख्ता हो जाती है, कि यह प्रजाति भारत में पुरानी है, आयुर्वेद में इसे स्वर्ण-क्षीरी कहते है, वजह यह कि इसके डंठलों व् पत्तियों को तोड़ने से इसमें पीले रंग का गाढ़ा द्रव निकलता है, और इस द्रव में वो जहरीले रसायन मौजूद है, जो तमाम रोगों के मूल-विनाश की खासियत रखते है, आर्जीमोन मेक्सिकाना का एक प्रचलित नाम और है सत्यानाशी, शायद इस पौधे की नुकीली कांटेदार पत्तियाँ, और इसके जहरीले द्रव के कारण ये नाम पड़ा हो, इसी जहरीले होने की वजह से यह पौधा जानवरों से सुरक्षित रहता है, और यह किसी भी प्रकार की पारिस्थितिकी में अपनी जड़े जमा लेने की कूबत रखता है, खासकर सूखी व् रेतीली जमीनों पर यह प्रजाति अपने सुन्दर पीले फूलों को खिला लेती है, प्रत्येक दशा में,  मुर्दा जमीन में सूखे की स्तिथि में  रेगिस्तानी जमीन  में भी इस प्रजाति का उग आना ही इसके ऊँट-कटैया नाम का कारण बना.  

आयुर्वेद में एक ही पौधे के तमाम हिस्सों का इस्तेमाल तमाम बीमारियों में औषधि के तौर पर किया जाता है, ऊँट-कटैया की पत्तियाँ, पुष्प और जड़ का भी अलग अलग इस्तेमाल है. यहाँ एक बात बता देना जरूरी है, कि आर्जीमोन मेक्सिकाना के फलों से प्राप्त होने वाले दानेदार बीज सरसों के बीजों से मिलते जुलते है, जिस कारण इन बीजों का इस्तेमाल मिलावट खोरो द्वारा सरसो के बीजों के साथ कर दिया जाता है, यही वजह नहीं की भारत में बीसवीं सदी के नवे दशक में लोगों में ड्राप्सी की बीमारी ने महामारी का रूप धारण कर लिया था, इन जहरीले बीजों से निकाला हुआ तेल मनुष्य के शरीर में जहरीले प्रभाव छोड़ता है जिसमे सारे शरीर पर सूजन पैदा हो जाती है विशेषकर पैरों में.…। 

मैक्सिको के निवासी पारम्परिक तौर पर ऊँट-कटैया का इस्तेमाल किडनी से सम्बंधित बीमारियों में, प्लेसेंटा को बाहर निकालने में, और जन्म के पश्चात बच्चे की साफ़ सफाई में करते आये है, इस पौधे का  इस्तेमाल मनुष्य और जानवरों दोनों पर होता है. स्पेन के लोगो द्वारा भी आर्जीमोन मेक्सिकाना का  बड़ा रोचक इस्तेमाल किया गया, उन लोगों ने इस पौधे को सुखाकर उसका चूर्ण बनाकर नशे के लिए इस्तेमाल किया। महिलाओं के जननांगों से सम्बंधित समस्यायों में इस ऊँट-कटैया की जड़ अतयधिक लाभदायक होती है.

माली में ऊँट-कटैया मलेरिया रोधी के तौर पर प्रयोग में लाई जाती है पारम्परिक तौर पर. प्लाज्मोडियम फैल्सीपैरम प्रोटोजोआ जो की मलेरिआ का कारक है, और क्लोरोक्विन जैसी दवावों से प्रतिरोध हो गया है ऐसी स्तिथि में आर्जीमोन मेक्सिकाना के रस  में पाये जाने वाले रसायन में प्लाज्मोडियम फैल्सिपेरस को नष्ट कर देने की क्षमता देखी गयी, यह प्रयोग स्विस ट्रापिकल इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए.

 वैसे इस पौधे की एक बड़ी खासियत यह है कि इसके चूर्ण व् धुए से दीमक और अन्य कीट समाप्त हो जाते है, इसलिए यह  बेहतरीन बायो-पेस्टीसाइड के रूप में भी प्रयोग में लाया जा सकता है.

मुर्दा जमीनों में भी आर्जीमोन मेक्सिकाना के पौधों को सड़ाकर डालने से यह उर्वरक का कार्य करता है, और मृदा की क्षारीयता को नष्ट कर देता है. इस प्रकार भूमि सुधार में भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है.

यहाँ एक गौरतलब बात यह है, कि तमाम देशी-विदेशी पंजीकृत अथवा अपंजीकृत कम्पनियां बेवसाइट बनाकर इन औषधीय वनस्पतियों से बने चूर्ण, अवलेह या पूरे सूखे हुए पौधों को बेंच रही है, और बीमारियों के शर्तिया इलाज की घोषणा करते हुए ये आयुर्वेद की वैज्ञानिक पद्धितियों को धता बताते हुए लोगों को गुमराह कर रही है, सरकार को अवश्य इस सन्दर्भ में कानूनी प्रक्रियाएं अपनानी चाहिए ताकि देश की अमूल्य वनस्पतियों का दोहन रुक सके और आयुर्वेद की गुणवत्ता बरकरार रह सके.

प्रकृति सदैव सुन्दर होती है, धरती की यही खासियत है अगर उसमे कोइ घातक जीव उत्पन्न होता है तो निश्चित जान लीजिए की उसका एंटीडोट प्रकृति ने पहले से तैयार कर रखा है, बशर्ते आप की नज़ारे उसे खोज पाए, प्लाज्मोडियम फैल्सिपेरस जैसा प्रोटोजोआ अगर प्रकृति में उत्पन्न हुआ तो आर्जीमोन मेक्सिकाना भी।

भारत में यह प्रजाति खूब मौजूद है और इसका पारम्परिक इस्तेमाल भी, साथ इसके षष्ठ-पत्रों वाले पीत  वर्ण के पुष्प बृहस्पति भगवान् अर्थात गुरू भगवान् की आराधना में भी प्रयुक्त किये जाते है जनमानस में.

 चरक ने उद्धत किया है कि स्वर्ण क्षीरी या कनक क्षीरी को नारायण चूर्ण और क्षार गुटिका के साथ लेने से उदर के तमाम रोग दूर हो जाते है, साथ ही इसके पुष्प पत्रों को ल्यूकोडर्मा जैसे रोग में लाभदायक बताया है. परंपराओं में  स्वर्ण क्षीरी की जड़ बाल धुलने में प्रयुक्त होती रही है इसमें मौजूद रसायन बालों के परजीवियों को नष्ट कर देने की क्षमता रखते है,

सुश्रुत ने कनक क्षीरी को उदर में सूजन, आहार नाल के पक्षाघात में लाभप्रद बताया, साथ ही इसे त्वचा रोगों को दूर कर देने की अद्भुत क्षमता का गुणगान किया है.

यहाँ एक बात महत्त्व पूर्ण है कि प्राचीन आयुर्वेद में स्वर्ण क्षीरी या कनक क्षीरी आर्जीमोन मेक्सिकाना नहीं है, मूल वनस्पति के स्थान पर कालान्तर में वास्तविक कनक क्षीरी की अनुलपब्धता के कारण आयुर्वेदाचार्यों ने आर्जीमोन मेक्सिकाना का प्रयोग वास्तविक कनक क्षीरी के स्थान पर करना शुरू कर दिया था, क्योंकि वास्तविक कनक क्षीरी के सभी गुण इस वनस्पति से मिलते जुलते थे.

आर्जीमोन मेक्सिकाना यानि ऊँट कटैया या कनक क्षीरी का विकल्प है, इसमें आईसक्युनोलिन अल्केलायडस मौजूद होता है जो ओपियम पॉपी (अफीम) में भी पाया जाता है,  इसका ताजा लैटेक्स यानी निकलने वाला गाढ़ा पीला द्रव प्रोटीन को पिघलाने की क्षमता होती है इस कारण ऊँट कटैया के द्रव को मस्से, गाँठ व् होंठों पर धब्बे आदि को गलाने में प्रयुक्त करते है, ये पूरा पौधा दर्द निवारण की क्षमता रखता है. इसके बीज अस्थमा में और पुष्प कफ जैसी व्याधियों में गुणकारी है, परन्तु ऊँट कटैया का प्रयोग बिना डाक्टर की अनुमति के न करे उसका परामर्श आवश्यक है, क्योंकि की ऊँट कटैया का विषाक्त लक्षण के कारण सही से उपयोग न करने पर नुक्सान भी पहुंचा सकता है.

लखीमपुर खीरी उत्तर भारत का तराई जनपद जहां ये ऊँट कटैया के पुष्पों की पीतवर्ण आभा मेरे घर के आस पास मौजूद है, मार्च में यहाँ इस प्रजाति में पुष्पं आरम्भ हो जाता है. यह एक वर्षीय पौधा है, जो बीजों के परिपक्व होने के साथ ही सूख जाता है, फलों के फटने से बीजों का प्रकीर्णन आरम्भ होता है, हवा पानी और जीवों के द्वारा, धरती पर दोबारा अपना जीवन चक्र शुरू करने के लिए. इसके पुष्प की चटक पीली पंखुड़िया तितली के झीने पंखों की तरह होती है, इस लिए इन चमकीले व् पतले पुष्प पर्णों को देखकर बच्चो के मुख से बरबस निकल जाता है "तितली वाला फूल"....

ऊँट -कटैया यानि आर्जीमोन मेक्सिकाना को मैक्सिको की धरती का पौधा माना जाता है, और दुनिया में कही और इसके पाये जाने पर इसे विदेशी मूल का होने का दर्जा दे दिया जाता है, क्या पता हमसे पहले जिन लोगों ने वनस्पतियों का अध्ययन किया हो तो उन्हों ने जिस प्रजाति को अपने आस पास देखा हो उसे अपने मूल का बता दिया, किन्तु यह जरूरी तो नहीं कि वह उसी धरती का पौधा हो, प्रकृति के अध्ययन में देशवाद को शामिल नहीं करना चाहिए नहीं तो सुन्दर व् गुणवान वनस्पति भी सुन्दर नहीं दिखेगी और हैम उनके गुणो से वांछित रह जायेगे। ।

धरती पर जैव-विकास की प्रक्रियाओ के वक्त भूभागों के विघटन और जुड़ाव दोनों हुए कौन सी प्रजाति अचानक अलाहिदा हो गयी अपने समुदायों से और कब इसका अध्ययन हुआ होगा और हो भी रहा है, मनुष्य के द्वारा तमाम प्रजातियां एक भूभाग से दुसरे भूभाग ले जाईं गयी और उन वांछित प्रजातियों के साथ तमाम अवांछित प्रजातियां भी आ गयी। ।कह्ते है वनस्पतियों के साथ क्वारंटाइन जैसी स्थिति नहीं होती, वे अपनी जमीन तलाश लेती है, और वो भी भूमंडलीकृत होकर। देशों की सीमाए उन्हें नहीं बाँध पाती। शायद इसलिए देशी विदेशी प्रजाति के मसले को मुद्दा न बनाकर वनस्पतियों के गुणों से रूबरू हो, जिस वनस्पति को आपकी जमीन ने अपना लिया उसके साथ आखिर विदेशी मूल का मुद्दा क्यों?

हमारी पीढ़ी के ग्रामीण बच्चों को जरूर याद होगा स्वर्ण क्षीरी यानि ऊँट कटैया के पीले पुष्पों की पंखुड़ियों से सीटी बजाना। …एक ग्रामीण खेल प्रकृति के खिलौनों के साथ ! जो अब नदारद है!


कृष्ण कुमार मिश्र 
krishna.manhan@gmail.com


3 comments:

Mukesh kumar sudhanshu said...

k k Mishra धन्यवाद, महोदय! अभी अभी तुरत मैंने यह संपूर्ण लेख अपने बच्चों को पढ़ाया |सटीक जानकारी | यह पौधा आपके परिवेश में है, कृपा करके उसका वीडियो डालें |

Unknown said...

Very usefull palnt for human life.

Anonymous said...

Is podha ke tane ka ras dad par lagane se dad jesa charm rog theek hota he