Monday, December 21, 2009

दुधवा के जंगल




भारत का एक राज्य जो नेपाल की सरहदों को छूता है, उन्ही सरहदों से मिला हुआ एक विशाल जंगल है जिसे दुधवा टाइगर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यह वन उत्तर प्रदेश के खीरी जनपद में स्थित है यहां पहुंचने के लिए लखनऊ से सीतापुर-लखीमपुर-पलिया होते हुए लगभग २५० कि०मी० की दूरी तय करनी होती है। दिल्ली से बरेली फ़िर शाहजहांपुर या पीलीभीत होते हुए इस सुन्दर उपवन तक पहुंचा जा सकता है।
एक फ़रवरी सन १९७७ ईस्वी को दुधवा के जंगलों को नेशनल पार्क का दर्ज़ा हासिल हुआ, और सन १९८७-८८ ईस्वी में टाईगर रिजर्व का। टाईगर रिजर्व बनाने के लिए किशनपुर वन्य जीव विहार को दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में शामिल कर लिया गया । बाद में ६६ वर्ग कि०मी० का बफ़र जोन सन १९९७ ईस्वी में सम्म्लित कर लिया गया, अब इस संरक्षित क्षेत्र का क्षेत्रफ़ल ८८४ वर्ग कि०मी० हो गया है।
इस वन और इसकी वन्य संपदा के संरक्षण की शुरूवात सन १८६० ईस्वी में सर डी०वी० ब्रैन्डिस के आगमन से हुई और सन १८६१ ई० में इस जंगल का ३०३ वर्ग कि०मी० का हिस्सा ब्रिटिश इंडिया सरकार के अन्तर्गत संरक्षित कर दिया गया, बाद में कई खैरीगढ़ स्टेट के जंगलों को भी मिलाकर इस वन को विस्तारित किया गया।
सन १९५८ ई० में १५.९ वर्ग कि०मी० के क्षेत्र को सोनारीपुर सैन्क्चुरी घोषित किया गया, जिसे बाद में सन १९६८ ई० में २१२ वर्ग कि०मी० का विस्तार देकर दुधवा सैन्क्चुरी का दर्ज़ा मिला ये मुख्यता बारासिंहा प्रजाति के संरक्षण को ध्यान में रख कर बनायी गयी थी। तब इस जंगली इलाके को नार्थ-वेस्ट फ़ारेस्ट आफ़ खीरी डिस्ट्रिक्ट के नाम से जाना जाता था किन्तु सन १९३७ में बाकयदा इसे नार्थ खीरी फ़ारेस्ट डिवीजन का खिताब हासिल हुआ।


उस जमाने में यहां बाघ, तेंदुए, गैंड़ा, हाथी, बारासिंहा, चीतल, पाढ़ा, कांकड़, कृष्ण मृग, चौसिंघा, सांभर, नीलगाय, वाइल्ड डाग, भेड़िया, लकड़बग्घा, सियार, लोमड़ी, हिस्पिड हेयर, रैटेल, ब्लैक नेक्ड स्टार्क, वूली नेक्ड स्टार्क, ओपेन बिल्ड स्टार्क, पैन्टेड स्टार्क, बेन्गाल फ़्लोरिकन, पार्क्युपाइन, फ़्लाइंग स्क्वैरल के अतिरिक्त पक्षियों, सरीसृपों, एम्फीबियन, पाइसेज व अर्थोपोड्स की लाखों प्रजातियां निवास करती थी।


कभी जंगली भैसें भी यहां रहते थे जो कि मानव आबादी के दखल से धीरे-धीरे विलुप्त हो गये।  इन भैसों की कभी मौंजूदगी थी इसका प्रमाण वन क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों पालतू मवेशियों के सींघ व माथा देख कर लगा सकते है कि इनमें अपने पूर्वजों का डी०एन०ए० वहीं लक्षण प्रदर्शित कर रहा है।


मगरमच्छ व घड़ियाल भी आप को सुहेली जो जीवन रेखा है इस वन की व शारदा और घाघरा जैसी विशाल नदियों मे दिखाई दे जायेगें। गैन्गेटिक डाल्फिन भी अपना जीवन चक्र इन्ही जंगलॊ से गुजरनें वाली जलधाराओं में पूरा करती है। इनकी मौजूदगी और आक्सीजन के लिए उछल कर जल से ऊपर आने का मंजर रोमांचित कर देता है।
यहां भी एक दुखद बात है कि इन नदियों को खीरी की चीनी मिले धड़ल्ले से प्रदूषित कर रही है जिससे जलीय जीवों की मरने की खबरे अक्सर सुनाई देती है किन्तु अफ़सरों के कानों तक इन मरते हुए दुर्लभ जीवों की कराह नही पहुंचती, शायद इन दर्दनाक ध्वनि तंरगों को सुनने के लिए उनके कान संक्षम नही है जिन्हे इलाज़ की जरूरत है और आखों की भी जो नदियों खुला बहते गन्दे नालों को नही देखपा रही है। प्रदूषण कानून की धज्जियां ऊड़ाते हुए मिलॊं के गन्दे नाले..........!


किन्तु उस समय राजाओं और अंग्रेजों ने अपने अधिकारों के रुतबें में न जाने कितने बाघ, तेन्दुए, हाथी व गैंड़ों को अपने क्रूर खेल यानी अपना शिकार बनाया फ़लस्वरूप दुधवा से गैंड़े व हाथी विलुप्त हो गये, इसके अलावा दोयम दर्ज़े के मांसाहारी जीवों को परमिट देकर मरवाया जाता था, इसका परिणाम ये हुआ कि हमारे इस वन से जंगली कुत्ते विलुप्त हो गये। जंगल के निकट के ग्रामीण बताते है उस दौर में हुकूमत उन्हे चांदी का एक रुपया प्रति जंगली कुत्ता मारने पर पारितोषिक के रूप में देती थी।

परमिट और भी जानवरों को मारने के लिए जारी होता था, उसका नतीजा ये हुआ कि अब  चौसिंघा, कृष्ण मृग, हाथी भी दुधवा से गायब हो चुके है। कभी-कभी हाथियों का झुंड नेपाल से अवश्य आ जाता है खीरी के वनों में,

इन सरकारी फ़रमानों ने और अवैध शिकार ने दुधवा के जंगलों की जैवविविधिता को नष्ट करने में कोई कसर नही छोड़ी, लेकिन मुल्क आज़ाद होते ही सरकारी शिकारियों का भी अन्त हो गया और तमाम अहिंसावादियों ने जीव संरक्षण की मुहिम छेड़ दी नतीजतन खीरी के जंगलों को प्रोटेक्टेड एरिया के अन्तर्गत शामिल कर लिया गया और प्रकृति ने फ़िर अपने आप को सन्तुलित करने की कवायद शुरू कर दी।

अफ़सोस मगर इस बात का है कि आज़ भी अवैध शिकार, जंगलों की कटाई, और मानव के जंगलों में बढ़ते अनुचित व कलुषित कदम हमारे जंगलों को बदरंग करते जा रहे है।




पक्षियों की लगभग ४०० प्रजातियां इस जंगल में निवास करती है, हिरनों की प्रज़ातियां, रेप्टाइल्स, मछलियों की और बाघ, तेन्दुए, और १९८४-८५ ई० में पुनर्वासित किए गये गैन्डें अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे है, लालची मानव प्रजाति से।


दुधवा के डाक बंग्लों जिनमें सोनारीपुर, सलूकापुर, सठियाना, चंदन चौकी, किला घने जंगलों के मध्य अपनी ब्रिटिश-भारतीय शैली की बनावट की सुन्दरता से किसी का भी मन मोह ले।


इतने झंझावातों के बावजूद दुधवा की अतुल्य वन्य संपदा जिसका एक भी हिस्से का अध्ययन नही हो पाया है ढ़ग से, उस सुरम्य प्राकृतिक वन को देखकर किसी का भी ह्रदय पुलकित हो उठेगा।


कृष्ण कुमार मिश्र
७७-शिव कालोनी लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश, भारत

Wednesday, December 9, 2009

राहुल गांधी और दुधवा नेशनल पार्क, क्या रिस्ता है इनमें!


92 वर्ष की बूढ़ी आखें जिन्हे कही न कही अपेक्षा थी कि राहुल गांधी उनकी आखों से देखेंगे हाल दुधवा का और सुनेंगे उन समस्याओं को जिनसे दुधवा के जीव संघर्ष कर रहे है अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए।

ये कोई साधारण व्यक्ति की आंखे नही है, इन नज़रों में ६० वर्षों का वन्य-जीवन पर गज़ब का अनुभव हैं, इन्होंने ही आज़ादी के बाद एक दसक तक हुए अन्धाधुन्ध कटान से चिन्तित हो कर, टाइगर, लेपर्ड, हिरन, और अन्य प्रजातियों के आवासों को सुरक्षित करने की मुहिम चलाई, नतीजतन आज इन वनों का विशाल हिस्सा दुधवा टाइगर रिजर्व के रूप में मौजूद है। उनकी इन मुहिमों में श्रीमती इन्दिरा गांधी का अतुलनीय सहयोग रहा, जो उस वक्त भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री थी।
दुनिया इन्हे बिली अर्जन सिंह के नाम से पहचानती है। इन्हे पदम श्री, पदम भूषण, पाल गेटी (पर्यावरण के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार की तरह हैसियत रखता है), और तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है।

इनकी तमाम किताबें पूरी दुनिया को हमारे खीरी जनपद व दुधवा के जंगलों की रोचक कहानी सुनाती है और इन्ही किताबों ने  दुनिया की नज़र में, पूरे भारत वर्ष में इस क्षेत्र को एक विशिष्ठ जगह का दर्ज़ा हासिल करवाया है ।

राहुल गांधी की यह यात्रा सियासी जरूर थी किन्तु वह जिस तरह की हैसियत इस मुल्क में रखते है, उससे लाज़मी है कि उनसे यह आशा की जाए कि वह अपनी दादी और पिता की तरह वनों और उसके बाशिन्दों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे।

बिली ने  इस बार राहुल को पत्र लिखवाया था कि वह दुधवा के बाघों और उनके आवासों यानी जंगलों की समस्याओं के लिए कोई कदम उठाए, लेकिन राहुल गांधी की पलिया में मौजूदगी के बावजूद उन्होंने न तो दुधवा की बात की और न ही उनमें बसने वाले जानवरों की। जो कि अपेक्षित थी!

क्या खीरी के पलिया कस्बे में आकर वहां से चन्द कदमों पर स्थित दुधवा नेशनल पार्क के हालातों का जायजा लेना आप की जिम्मेदारी नही?
क्या जनाब को दुधवा के बाघों का हाल नही जानना चाहिए था, क्या बिली अर्जन सिंह जैसे महान लेखक, वन्य-जीव संरक्षक से विचार-विमर्श नही करना था?
सात दिसम्बर २००९ वक्त तकरीबन शाम के ४ बजे,  पलिया हवाई अड्डे पर  सांसद राहुल गांधी का चार्टर प्लेन उतरा, आप ने पलिया में सभायें की जिसमें युवाओ और किसानों को संबोधित किया, कांग्रेस में युवाओं की भागेदारी अधिक से अधिक सुनश्चित की जाय, बस सारी कवायदें इसी बात की थी।

अब सवाल ये है कि राहुल गांधी खीरी जनपद के जिस भूभाग पर ये सभायें कर रहे थे उसी धरती पर भारत की जैवसंपदा का खज़ाना यानी दुधवा टाइगर रिज़र्व मौजूद है, जिसमें करोड़ों जीव अपनी ईह-लीला जारी रखे हुए है, उनमें भी जीवन है, वो भी अपना और अपनी संतति का भरण-पोषण करते हैं, वो भी इस धरती के लिए उतना ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि मनुष्य, बल्कि उससे भी अधिक, किन्तु मानव और उनमे बस फ़र्क इतना है कि वो  सब भारत निर्वाचन विभाग में सूचीबद्ध नही हैं, लिहाज़ा वो मताधिकार का प्रयोग नही कर सकते, और यही कारण रहा कि राहुल गांधी ने धरती के उन महत्वपूर्ण जीवों के बावत कोई बात नही की और न ही उनका हाल जानने और देखने की जहमत उठाई।

यहां ये गौरतलब हैं कि आप की दादी श्रीमती इन्दिरा गांधी ने खीरी के इन जंगलों को संरक्षित क्षेत्र का खिताब दिलाया और फ़रवरी १९७७ ईस्वी में दुधवा नेशनल पार्क का उदभव हुआ। बाद में सन १९८८ई० में खीरी के अन्य वन-श्रखंलाओं को जोड़कर इसे और विस्तृत दुधवा टाइगर रिजर्व में तब्दील किया गया।

कपूरथला रियासत के राजकुमार पदमभूषण (मेज़र) श्री बिली अर्जन सिंह जो भारत के एकमात्र वन्य-जीव संरक्षक है जिनके बारे में ये कहा जा सकता है कि पूरे देश में टाइगर संरक्षण के क्षेत्र में कोई व्यक्ति उनके समकक्ष नही है। इन्ही के प्रयासो से श्रीमती गांधी  इन जंगलों और उनमें रहने वाले जीवों से परिचित हुई, और बिली को प्रोत्साहन और मदद देती रही उनके तमाम वन्य-जीव सरंक्षण सम्बन्धी प्रयोगों में।



बिली अर्जन सिंह इंडियन बोर्ड फ़ार वाइल्ड लाइफ़ के मेंबर भी रहे और दुधवा के जंगलों के मुद्दे जोरदार ढ़ग से उठाए, यहां तक एक मीटिंग के दौरान उन्होने मैडम प्राइमिनस्टर से ये तक कह डाला कि वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्सन आप के लिए सिर्फ़ स्कीम हो सकती है..............................।

सन १९७० में आई०यू०सी०एन० और डब्ल्यू०डब्ल्यू०एफ़० की सयुंक्त मीटिंग हुई जिसमें एक मिलियन डालर भारत को टाइगर संरक्षण के लिए प्रदान किए जाने की बात हुई, तभी श्रीमती गांधी ने एक टास्क फ़ोर्स का गठन कर भारत के नौ वन क्षेत्रों की पहचान व अध्ययन करने के निर्देश दिए ये टास्क फ़ोर्स का प्रमुख महाराजा काश्मीर के पुत्र डा० करन सिंह को बनाया गया जो तब भारत के पर्यटक मन्त्री व वाइल्ड लाइफ़ बोर्ड के चेयरमैन थे।
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अर्जन सिंह को दो तेंदुए  जूलिएट और हैरिएट प्रदत्त करवाए और इस आशा के साथ कि बिली के प्रयोगों से अनाथ हो चुके शावक या चिड़िया घरों के शावक दोबारा अपने प्राकृतिक माहौल में रहने के काबिल हो सकेंगें।  और ऐसा हुआ भी बिली ने इससे पूर्व श्रीमती एन राइट (ट्रस्टी डब्ल्यू० डब्ल्यू०एफ़०) द्वारा दिए गये तेंदुआ शावक प्रिन्स को पाला और वह जंगली माहौल में रहने के काबिल हो गया था।

इन प्रयोगों की सफ़लता के बाद श्रीमती गांधी से बाघ शावक को ट्रेंड कर जंगल में रहने के काबिल बनाने के प्रोजेक्ट शुरू करने की इच्छा जाहिर की, जिसे उन्होने माना और बिली लन्दन से एक बाघिन शावक लेकर अपने टाइगर हावेन (बिली का प्राइवेट फ़ारेस्ट) ले आये। इस बाघिन के साथ इनका प्रयोग भी सफ़ल रहा और दुधवा में इस बाघिन की पीढ़ियां मौजूद हैं।

सन १९७२ ई० में जब टाइगर हावेन, खीरी में मैडम प्राइमिनिस्टर के आने की संभावना हूई तो बिली ने अपने टाइगर हावेन के निवास को संसोधित किया, जैसे इंग्लैड में पुराने घरों में एक अलग अट्टालिका बनाई जाती थी जब वहां की महारानी किसी नागरिक के घर स्वंम आकर उसे सम्मानित करती थी।

सन १९८५ ई० में भी राजीव गांधी के आने की प्रबल संभावना थी क्योंकि बिली के प्रयासों से इस बार इंडियन बोर्ड फ़ार वाइल्ड लाइफ़ की बैठक दुधवा में आयोजित होने वाली थी किन्तु सिख-आंतकवाद के चलते वह बैठक रद्द कर दी गई, इस तरह हमारा दुधवा दो-दो बार प्रधानमंत्रियों की उपस्थित से वंचित रह गया।

दुधवा के पूर्व निदेशक व टाइगर हावेन के अधिकारी जी०सी० मिश्र ने बताया कि उन्होंने बिली के हवाले से राहुल गांधी को दुधवा की कथा-व्यथा के संदर्भ में पत्र लिखा पर उसका कोई जबाव नही आया, इसके बाद उन्होने श्रीमती सोनिया गांधी को राहुल को भेजे पत्र का जिक्र करते हुए लिखा, इस बार जबाव आया और उसमे लिखा यह था कि इस संदर्भ में वो राहुल गांधी से बात करेगीं और उनके द्वारा आप को अवश्य जबाव दिया जाएगा किन्तु फ़िर कोई खत नही आया, राहुल गांधी की तरफ़ से।
खीरी जनपद में इस बार आई बाढ़ ने सिर्फ़ मनुष्यों को बेहाल नही किया जानवर भी पीड़ित है इस प्राकृतिक विभीषिका से।

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिस पंरपरा के लोगों ने खीरी के जंगलों को अस्तित्व प्रदान किया, १९७२ ई० में वाइल्ड लाइफ़ एक्ट बनवाया, पर्यावरण मंत्रालय की शुरूवात की, उसी परंपरा के लोग इन वनों को और उनमें रहने वाले जीवों को नज़रदाज कर रहे हैं।

जो लोग इस देश को चलाने का दम भरते है क्या उनकी जिम्मेदारी उस देश के भूभाग पर रहने वाले मनुष्यों के प्रति ही है! उन लाखों-करोड़ों प्रज़ातियों के प्रति नही जिनके बिना मनुष्य का अस्तित्व इस धरती पर सम्भव ही नही।

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारत