Saturday, December 8, 2007

रोड एक्सीडेन्ट में एक वाघ की मौत







तारीख ४ दिसम्बर २००७, दिन मंगलवार सुबह कतरनिआघाट वन्य जीव प्रभाग की मोतीपुर रेन्ज में नौनिहा गांव के लोगो ने एक वाघ को सड़क के नजदीक घायल अवस्था में देखा जो रात में किसी तेज रफ़्तार से आ रहे वाहन से टकरा गया था ग्रामीणो के मुताबिक वनविभाग को खबर करने के बाद वनाधिकारी एक घन्टे के उपरान्त वहा पहुचे वाघ "टाइगर" वही झाड़ियों में पड़ा असहनीय पीड़ा से कराह रहा था वह ना तो चल पाने की स्थित में था और ना ही बैठ पाने की बस वह जीव दर्द की पराकास्ठा को सहने की व सैकड़ो मानवों की भीड़ को देखकर खिसट खिसट कर अपने को तमाशबीनों से दूर प्रकृति की गोद में छिपा लेने की नकाम कोशिश कर रहा था दोपहर तक लखनऊ ज़ू के डाक्टर को बुलाया गया बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश में यहीं जंगली जानवरों को बेहोशी की दवा देने में पारन्गत है । फिर उस घायल वाघ को बेहोश करने व उसके इलाज़ की प्रक्रिया शुरू ए हुई जो ४ दिसम्बर की दोपहर से शुरू होकर ५ तारीख की सुबह तक चली इन २४ घंटों में वाघ का इलाज़ तो नही हो पाया हां किसी तरह से इसे बेहोश जरूर कर लिया गया फिर एक नया खेल शुरू हुआ बेहोश घायल बाघ को पिजंरे में कैद करने का पहले तो इस घायल व बेहोश बाघ पर ज़ाल डाला गया फिर इसकी घायल टांग में रस्सी बान्धकर इसे घसीटते हुए पिज़ड़े में लाया गया इस समय तक बाघ को घायल हुए तकरीबन ३० घंटे हो चुके थे अब निण॑य यह लेना बाकी था कि आखिर इस बाघ को इलाज़ के लिये कहा ले जाया जाय आई वी आर आई बरेली या लखनऊ फिर इसे आई वी आर आई ले जाने का निर्णय लिया गया किन्तु बाद में इन अधिकारियों को मालूम हुअ कि वहा इलाज़ नही हो सकता अन्ततोगत्वा बाघ को लखनऊ ले जाने का निश्चय हुआ अब तक बाघ को घायल हुए लगभग ३६ घंटें से अधिक बीत चुका था अब आप बताये कि किसी भी जीव के भयंकर चोट पहुन्चने के ३६ घंटें के पश्चात भी इलाज़ न मिले तो उसकी परिणिति क्या होगी और तब जब वह जीव हमारे देश का नेशनल एनीमल हो और जिसके संरक्षण मे भारत सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही हो साथ हई विदेशी अनुदान भी मिलता हो और एक पूरा विभाग उस जीव की सुरक्षा के तैनात तब इस तरह की अनियमितता हुई हो तो आप सोच सकते है कि क्या हम अपनए देश की वन्या सम्पदा बचा पायेगें।
तराई के जंगल अपनी जैव सम्पदा के लिये पूरी दुनिया में जाने जाते है यह भूमि सदियों से बाघ तेन्दुआ गैंडों हाथी भालू व तमाम तरह के दुर्लभ जीव जन्तुओं की है जहां मानव ने अतिक्रमण कर इन्हें इनके ही घरों से बेघर कर रहा है इसके बावजूद इन जीवों के संरक्षण की जिम्मेदारी तो हमारी ही है तराई के खीरी व बहराइच जनपदों के जन्गलों को सरकार ने सरंक्षित क्षेत्र घोषित कर नेशनल पार्क व वन्या जीव विहार वनाये तकि ये निरीह जीवों को सुरक्षा मिल सके पर विभागीया लपरवाही के चलते ये जीव विलुप्ति की राह पर है। सरंक्षित क्षेत्रों में सवेन्दन्हीन मानव वन्यजीव सरंक्षण अधिनियम को तो ताक पर रख ही देता है मनवीया मूल्यों दया करुणा जैसी आदम प्रवत्तियों को भी नज़रन्दाज़ कर चुका है किन्तु वनविभाग व इन्तज़ामिया से यह उम्मीद तो नही की जा सकती कि वह एक साधारण नागरिक की तरह ही और शायद उससे भी बदतर कार्य करेगी। जैसा कि पिछले दिनो उस बाघ के साथ घतित हुआ आखिर कार उस सुन्दर जवान बाघ की मौत लखनऊ ज़ू में हो पूरी जिम्मेदारी वनविभाग पर आती है जिनके गैर्जिम्मेदाराना रवैये कि वज़ह से हमने अपना एक और बाघ खो दिया हमेशा कि तरह ऎसी तमाम घटनायें है जिनक मै जिक्र यहां नही करना चाहता। इस बाघ को बचाया भी जा सकता था यदि यहां के स्थानीया वेटनरी डाक्टर का सहयोग प्राथमिक चिकत्सा के लिये लिया गया होता। टाइगर इतना अधिक घायल था कि वह किसी पर भी हमला करने कि स्थित में नही था। दुधवा टाइगर रिजर्व में यदि कोई वन्य जीव चिकत्सक की तैनाती होती। यदि यहां कोई बेहोसी की दवा देने में पारन्गत डाक्टर या वन अधिकारी होता। ये ऐसे अहम सवाल है जो बेहद जरूरी है और किसी भी वन्य जीव विहार मेम कम से कम ये सुभिदाये तो हो ही। एक और अहम बात कई यदि सरंक्षित क्षेत्रों व रिजर्व फारेस्ट जहां वन्य जीवों की उपस्थित हो वहां से गुजरने वालें वहनों की एक निश्चित रफ्तार तय हो और वन विभाग व पुलिस विभाग इनसे गुजरनें वालें वहनों पर मुश्तैदी के साथ नज़र रखे। इन इलाकों में वन्य जीव सरंक्षण में काम करने वाली सन्स्थाओं को उन सड़्कों से गुजरने वालें वहनों के चालकों को इस बात से अवगत कराया जाये कि वन्य जीवों का महत्व क्या है और उन्हे कानून का हवाला देने के बजाये जीवों के प्रति दया भाव व पारिस्थितिकी तन्त्र में उनकी अहम भूमिका से अवगत करायें।
खैर आप अगर आये दिन खीरी बहराइच के जन्गलों में सड़्क व रेल दुर्घटनाओं को देखे तो आप जानेगे कि कैसे यहां बाघ तेन्दुए हाथी गैन्डें इलाज़ के अभाव में तड़्प तड़्प कर मरते है इस नेशनल पार्क व दो वन्य जीव विहारों वाले इलाके में एक रेसक्यु सेन्टर भी नही है और न हि कोइ प्रशिक्षित डाक्टर...................... हालात ऐसे ही रहे तो हमारे ये ज़ंगल व इनमे रहने वाले ज़ानवर हमारे बीच से समाप्त हो जायेगे ? तो तब क्या हम मानवों का अकेले इन ज़न्गलों व इन जीवों के वगैर धरती पर रह पाना सम्भव होगा? एक बात और जब यह बाघ कुछ कुछ होश में आ रहा था तब वन कर्मचारी इस का सिर पकड़ कर नोच नोच कर हंस रहे थे और कह रहे थे कि हमारे साहब को सलाम करो अब सोचिये जरा कि उन वनधिकारियों व कर्मचारियों में सम्बेंदना नाम की कोई चीज बची हुई है जो इन प्राणियों के रखवाले है। गौर करने वाली एक और बात कि जब बुरी तरह से घायल इस बाघ को बेहोश कर लिया गया था तब इस पर जाल डालकर और घायल पैर में रस्सी बान्धकर घसीटते हुए पिन्जडे़ में बन्द करने की जबकि बेहोशी देने के बाद इस जीव का प्राथमिक उपचार कर स्त्रेचेर जो बान्स व लकडी़ का भी बनाया जा सकता था पर उठा कर पिन्जडे़ में रख्खा जा सकता था कुल मिलाकर एक जीव की मौत इलाज़ के अभाव से व लापरवाही के कारण हुई जिस का जबाब समन्धित अधिकारियों से लेना जरूरी हो जाता है ताकि आने वाले समय में एसी गलती फिर न दोहराई जाये। क्यो कि इस दर्द से तड़पते जीव को तीन दिनों तक पानी भी नही हुआ और तीन दिन तक किसी जीव को जो घायल हो उसे पानी तो दूर उसके साथ एक बीमार व घायल रोगी जैसा व्यवहार भी नही हुआ तो ग्लूकोज या अन्य मेडिकल एड की बात करना हास्य पद होगा।









Saturday, August 25, 2007

लखीमपुर खीरी में शारदा नदी उफनायी

मेरी खानाबदोशी से कोई पूंछे
कितना मुशकिल है रास्ते को घर कहना

19 अगस्त 2007 फूलबेहड़ जिला खीरी का बाढ़ प्रभवित इलाके में भ्रमण के इरादे से मै अपने पत्रकार मित्रो के साथ वहाँ गया सड़क “बन्धा” के दोनों तरफ़ पानी ही पानी दिखाई दे रहा था सड़्क पर दोनों किनारों पर लोग बरसाती “पलीथीन” को डन्डों के सहारे तानें हुए जैसे तैसे बरसात व धूप से बचने की नकाम कोशिश कर रहे थे तमाम लोग कुछ राजनेताओं के साथ पूड़ी वितरित कर रहे थें और हम से अपनी फोटों खिचवानें की गुजारिश भी ! इन्ही राजनैतिक गतिविधिओं के बीच सब से बेखबर एक पिता अपने चार बच्चों कों सड़क पर बनाये ठिकाने जिसे घर कहना जरा मुश्किल है अपने बच्चों को दुलार दुलार कर पूडियां खिला रहा था “ मेरा बिटवा पुरी खा ले.........” उन्हे खुश देखकर बडा ही सकून मिला शायद प्रत्येक बरस ये लोग इन हालातों को झेलते झेलते इसे अपनी नियति मानकर इन आपदाओं से समझौता कर चुके थे हम आगे बड़े तो रिमझिम बारिश मे एक लड़की छाता के नीचे ईटों से बने ओवन “अकौहला” में लकड़ियों से खाना बना रही थी तो कुछ लोग तने हुए कपड़ों व बरसातियों के नीचे बैठ्कर बातें कर रहे थें बच्चे सड़क पर इधर उधर दौड़ लगा रहे थे कही कही पर कुछ बाढ़ पीड़ित महिलायें बच्चें कटान कि तरफ़ बड़ी तेजी से हंसते मुस्कराते बड़े जा रहे थे सरकार व राजनेताओं क हुज़ूम व उनकी चमचमाती हुई मोटरों को देखने पहले इन लोगों के हालात देखकर मैं अपने को एक तमाशबीन के रूप में देख रहा था और अपने पर शर्म भी आ रही थी की मैं यहां सिर्फ़ फ़ोटो खीचने और इनकी दुर्दशा देखने आया हूं ना कि इनके लिये कुछ बेहतर कर पाने ! और तब बड़ा रन्ज हुआ जब यहा अपने जैसे तमाम तमाशबीनों को देखा खाशतौर पर नेताओं व ठेकेदारों को और कुछ स्थानीय मगरमच्छों को ये सब इन पीडित लोगो से कुछ न कुछ पानें के आशय से यहां आ रहे थे न कि देने के; वज़ह साफ़ थी नेता अगले एलेक्शन के वोट बटोरने ठेकेदार काम तलाशने और कुछ स्थानीय अवारा लोग इनकी बहू बेटियां ताकने और हम भी कुछ दर्दनाक ह्रदयविदारक तस्वीरें ढ़ूड़ने कुल मिलाकर तस्वीर साफ़ थी की हरकोई अपने ही चक्कर मे था।

आगे बढ़ने पर लारियों से पत्थर उतारे जा रहे थे भारी तदाद में मजदूर तार के जाल बनाया जा रहा था उनमें मिट्टी भरी बोरियां भरी जा रही थे बांस व बल्लियों को गहरे पानी मे धसायां जा रहा था ताकि पानी के तेज बहाव में बल्लियों के सहारे पत्थर व बोरियां डाली जा सके और पानी के बहाव को रोका जा सके। इसी जगह पर सिचाई विभाग के आला अफसर रन्गीन अंग्रेजी छतरियों की छांव में आराम फरमा रहे थे और ठेकेदार उन्हे चारो तरफ़ से घेरे हुए उनकी आवभगत में तल्लीन। हमारे पहुंचने पर अफ़सरों ने अपने काम की तारीफ़ क सिलसिला शुरू किया तो ठेकेदारों ने मिठाई व फ़लों से हमारा स्वागत जो अफ़सरों की खुशी के ;लिये था न कि हमरे खाने के लिये............!
एक अफ़सर ने मुझे बताया कि पानी के बहाव पर अगर ध्यान दे तो आप को पानी दायी तरफ़ की तरफ़ भागता दिखायी देगा और इसी लिये लगभग कटान दहिनी तरफ़ को होते है ऐसा इस लिये होता है के तर्क में उन्होने बताया की धरती की अपनी धुरी पर घूमने के कारण ऐसा होता है..................!

दर असल यहां सड़क का कटान अपने आप नही हुआ था बल्कि सड़क के एक तरफ़ बाढ़ अत्याधिक हो जाने के कारण ग्रामीणों ने सड़क को काट दिया था तकि पानी दुसरी तरफ़ उतर जाये और उन लोगो का मानना था कि जब तक बन्धे को काटा नही जायेगा तब तक प्रशासन हमारी सुध नही लेगा...................! मेरा मानना है कि बन्धा बाढ़ प्रभावित इलाकों के लिये कोई माकूल विकल्प नही है।

आधे बने बन्धे पर जब हम गये तो वहा एक सहमा सहमा सांप डाले गये पत्थरों पर अपना ठिकाना तलाश रहा था।

यही पर एक बड़े अफ़सर से पूछने पर बताया कि किशनपुर वन्यजीव विहार के झादी ताल का शारदा नदी द्वारा हो रहे कटान के लिये ३.६४ सौ करोड़ रूपये का प्रोजेक्ट है जो काफ़ी कम है जबकि मेरे हिसाब से यह बहुत बड़ी रकम है इस काम के लिये और पर्याप्त भी।

झादी को यदि जल्दी ना बचाया गया तो दुनिया मे सबसे अधिक संख्या मे पायी जाने वाली बरहसिन्घा की प्रजाति समाप्त हो जायेगी लेकिन वन विभाग नहर विभाग व स्वमसेवी संगठनों कि ललचायी नज़रों से यह रकम वास्तव में क्या झादी ताल कि जीव सम्पदा को बचाने के काम आ पायेगी।


कॄष्ण कुमार मिश्र

Tuesday, July 10, 2007

आज का वाकया

आज मेरे छोटे भाई जैसे शिष्य डाक्टर ने फूलबेहड नाम के कस्बे मे क्लीनिक की शुरूवात की तो मुझे वहा जाना पडा रास्ते में दो मन्दिर आमने सामने थे जिसमे बायें वाला मन्दिर बडा व दाये वाला छोटा व पुराना था मैं असमन्जस में था कि किस तरफ़ सिर झुकाऊ आखिर कार मैं ने पुराने व छोटे मन्दिर कि तरफ़ अभिवादन किया लेकिन तुरन्त मेरे मन में खयाल आया कि मैंने ऐसा क्यो किया कही मेरे साम्यावादी होने का सबूत तो नही क्योकि छोटे मन्दिर की तरफ़दारी कर मैंने उसे बडे व अतिपुज्या मन्दिर को नज़रन्दाज़ किया या फिर पुरातत्वा के प्रति प्रेम!

Friday, May 11, 2007

ग़दर क्रान्ति सैनिक विद्रोह स्वन्तान्त्रता संग्राम या फिर अपने अपने स्वार्थ

मेरा इतिहास से प्रेम है और मैंने ग़दर को पड़ा इसे बुजर्गो कि आँखों से देखा और उनकी जुबानी सुना यहाँ तक कि कुछ एक बुजर्गों से जब मैं इस बाबत बातचीत करने के वास्ते मिला तो उनके चहरे पर उस अजीब सी १८५७ कि त्रासदी या हमारे जनमानस के जीवन को उथल पुथल कर देने वाली दास्ताँ ए बयाँ से मेरे ह्रदय में अजीब सी उलझन और मस्तिष्क कि निष्कर्ष लेने कि सारी छमताये जाती रहीं वजह थी उन अतीत के पन्नों से भी कुछ बमुश्किल वह निकाल कर ला प रहे थे वह भौत कुछ उलझा हुआ था और यह उलझन उनके चेहारो पर साफ झलकता था! खैर मैंने जो भी गज़ेतिएर्स व विलियम स्लीमन के यात्रा व्र्तान्तों व पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेहतरीन किताबों ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड history, डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, an औदतोबिओग्रफी में उनके विचार परे उन सब मालूमात का लेखा जोखा जिसने १८५७ को मेरे मानस पटल पर कुछ और ही चित्रांकित कर दिया और वह मैं आप सब को बडे इत्मिनान से सुनना चाहता हूँ