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टमाटर के किस्से के बहाने किसान की व्यथा कथा
आलू की तरह पुर्तगाली टमाटर को लेकर भारत आये, टमाटर या जिसे स्पैनिश में टोमैटो कहते है, इसने स्पेन के उपनिवेशकाल में पूरे अमरीका में प्रसारित हुआ, और लोग इस फल से वाकिफ हुए, बाद में पुर्तगालियों ने इसे अपने उपनिवेशों में पहुंचाया, जिसमे भारत भूमि भी है और भारतीय इस फल के स्वाद से परिचित हुए, यह तकरीबन 350 वर्ष पूर्व की बात रही होगी, वैसे जब यह टमाटर मैक्सिको की जमीन से उठकर योरोप लाया गया तब वहां के लोग इसके अद्भुत रंग रूप और स्वाद से हतप्रभ रह गए और इसे इटली में नाम दिया गया "सोने का सेब" आलू भी इटली पहले पहुंचा था,अब पूँछिए हर नई चीज इटली ही क्यों पहुँचती थी, नई दुनिया यानी अमरीका से, तो इसका खूबसूरत जवाब है, हमारा वेद वाक्य चरैवेति चरैवेति जिसके हम अनुयायी नहीं हो पाए और पता नहीं किस किताब की बात मान समुन्द्र यात्रा को पाप समझ लिया, जी हाँ इटली या स्पेन आलू का सर्वप्रथम पहुंचना फिर पूरे योरोप में और सबसे बाद में भारत में, ऐसे ही यात्रा टमाटर की रही, इसकी वजह थी क्रिस्टोफर कोलम्बस, यही वह महान नाविक, और स्पेन सरकार के उपनिवेशों का व्यवस्थापक गवर्नर था जो अमरीका के विभिन्न भूभागों पर स्पेन के साम्राज्य को स्थापित और व्यवस्थित करता था, इस व्यक्ति ने दुनिया के भौगोलिक क्षेत्रों की यात्रा की और नई दुनिया को खोज निकाला जाहिर था वहां उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों, जिनमे फल, सब्जियां और अन्न से भी वह परिचित हुआ और उनके बीज स्पेन ले आया, टमाटर से भी दुनिया को परिचित कराने का श्रेय कोलम्बस और उसके बाद के स्पेनिश उपनिवेशी अधिकारियों को जाता है, जब यह टमाटर अमरीका के मैक्सिको में नहुआ आदिवासियों के क्षेत्र में देखा गया तो वह बहुत छोटा, मिठास लिए हुए और खुशबूदार था, जिसे वह सम्प्रदाय उगाता था, टमाटर की जंगली प्रजातियां, मानव सभ्यता में उगाने के प्रमाण ढाई हज़ार वर्ष पूर्व के हैं, स्पेन के लोगों ने उस टमाटर को जब दुनिया में विभिन्न हिस्सों में लाये तब योरोप के वैज्ञानिकों ने तमाम किस्में विकसित कर डाली जिससे टमाटर का मूल रूप ख़त्म हो गया और यह बड़े आकार का बिना खुशबु और बिना ख़ास स्वाद के हो गया, इस आनुवंशिक छेड़छाड़ का नतीजा यह हुआ की टमाटर में तमाम बीमारियां लगने लगी और वह उस मूल स्वाद और खुशबु से भी जुड़ा नही रह गया जो मैक्सिको में नेहुआ लोगों द्वारा उगाये जाने वाले टमाटर में होता था, एक दिलचस्प बात यह है की टमाटर यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका में कानूनी विवाद का कारण भी बना, दरअसल टमाटर एक फल है नाकि सब्जी, यह अंडाशय से विकसित हुआ फल है, किन्तु इसका इस्तेमाल सब्जी के रूप में होता रहा, सो अमरीकी सरकार इस भरम में पड़ गई की इसके उत्पादन व् व्यापार पर सब्जी वाला टेक्स वसूला जाए या फल वाला, हालांकि बाद में कानून ने इसे सब्जी मान लिया, लेकिन यह वनस्पतिक विज्ञान के लिहाज़ से फल है.
टमाटर को लीनियस जैसे महान वैज्ञानिक ने आलू वाले परिवार यानी सोलेनेसी के अंतर्गत ही रखा और इसकी प्रजाति का नाम दिया गया लाइकोपरसिकम, यानी इसका पूरा नाम सोलेनम लाइकोपरसिकम पड़ा, यहाँ पर लाइकोपरसिकम नाम पड़ने का कारण जर्मन की डरावनी कहानियां है जिसमे भेड़िया मानव द्वारा खाया गया फल वुल्फ पीच, से समानता और कौतूहल पैदा करने वाले फल के कारण यह नाम पड़ा, टमाटर का रिस्ता इंका अमरीकी मैक्सकन से जोड़कर भुतहा फल बताया गया, बाद में इसके लाल रंग को फ्रांस की क्रान्ति से जोड़ा गया जिसमे पेरिस के लोग लाल टोपी लगाते थे, हालांकि टमाटर के मूल स्वरूप वाले पौधे और पत्तियों में अल्प मात्रा में जहर होता था जबकि फलों में कोई जहरीला गुण नहीं था, और उस पौधे के स्थानीय औषधीय प्रयोग भी होते थे, संकर प्रजातियों में ऐसा नहीं है, टमाटर एक बेल है और यह छह फ़ीट तक ऊंचाई में चढ़ सकती है यदि इसे सहारा दिया जाए, इन्ही कारणों से टमाटर की चेरी, रोमा और सैन मार्जानों किस्में बेलों की तरह हैं जिनमे अंगूर की तरह गुच्छों में टमाटर लगते हैं. टमाटर का रंग मूल स्वरूप में पीले अथवा सोने के रंग की तरह होता था बाद में संकर प्रजातियां विकसित हुई और यह गाढ़े लाल रंग, नारंगी रंगों में तब्दील हुआ, टमाटर एक चेरी है जो फल के बजाए सब्जी के रूप में मानव सभ्यता में प्रचलित हुई.
टमाटर का इस्तेमाल चटनी, सलाद, और हर तरह की तरकारी में होता है, इसका जूस भी इस्तेमाल किया जाता है, पौष्टिक तत्वों की बात करें तो इसमें विटामिन बी6, विटामिन सी, विटामिन ए, आयरन, पोटेशियम और अत्यधिक मात्रा में लायकोपीन होता है, लाइकोपीन टमाटर में रंग के लिए होता है, किन्तु यह जबरदस्त आक्सीडेंट है, जो कैंसर जैसी बीमारियों से लड़ने में मदद देता है.
टमाटर की किस्मों में रोमा टमाटर जो एक बेल की तरह एक मीटर ऊंचाई तक जा सकता है रंगीन टमाटरों के अंडाकार शक्ल में गुच्छों में होता है, रोमा और सैन मार्जानों टमाटर में इतना फर्क ही की सैन मार्जानों नीचे की तरफ नुकीला होता है, चटनी में इन प्रजातियों का इस्तेमाल खूब होता है और इनका स्वाद भी सामान्य टमाटर से अलग व् उम्दा होता है, रोमा टमाटर मौजूदा समय में कई किस्मों में मिलता है, मीठा लाल, पीला और नारंगी, यह पूरे वर्ष उपलब्ध होता है, यह किस्म अचानक परिवर्तन से विकसित हुई, रोमा टमाटर के विकसित होने में सन नाम का जीन जिम्मेदार है, क्योंकि 1642 में सन नाम की किस्म से यह रोमा टमाटर स्वत: विकसित हुआ था, और इसी सन नाम के जीन की वजह से टमाटर गोल से अंडाकार हो गया, यह प्रजाति पूरी दुनिया में खूब प्रचलित हुई क्योंकि इसे दूर दराज़ इलाकों तक ले जाने में यह फूटता या खराब नहीं होता। सन 1955 में रोमा की संकर किस्म विकसित की गयी और यह जान-मानस में खूब पसंद किया गया.
तो यह कहानी थी टमाटर की, इनकी इन सुंदर व् लाभप्रद किस्मों को भारतीय किसान उगाए जिससे उसकी आर्थिक स्थिति में मजबूती आ सके, हालांकि अब दुनिया फलों, सब्जियों, और अनाज के मूल स्वरूप की तरफ लौटने को बेकरार है जो अब असंभव सा लगता है, क्योंकि संकर प्रजातियां देखने में रंग बिरंगी और खूबसूरत हो सकती हैं, किन्तु उनमे न तो रोगों से लड़ने की क्षमता होती है और न ही वह औषधीय गुणों व् उन पोषक तत्वों से युक्त होती हैं, जो उन प्रजातियों की मूल प्रजाति में मौजूद था, बढ़ती जनसख्या ने अत्यधिक उत्पादन के लिए हमारी धरती से मूल प्रजातियों को ख़त्म करने में कोइ कसर नहीं बाकी रखी, आज दुनिया के विकसित देश जंगलों, गाँवों और दूर दराज़ के इलाकों में भ्रमण कर देशी प्रजातियां इकट्ठा करते हैं ताकि भविष्य के लिए मानव का पेट भरने के लिए वह यह प्राकृतिक सम्पदा अन्न व् फल के बीज सजों सकें, भारत के ग्रामीण अंचलों और शहरों से देशी बीज नदारद है, बाजार इतना हावी है की फल, सब्जियों और अनाज के हाइब्रिड बीज ही किसानों को मुहैया कराती है महंगे दामों पर ताकि प्रत्येक वर्ष किसान बाजार या उस कंपनी के द्वारा विकसित किए संकर बीजों पर निर्भर रहे, किसान की की यह स्थिति उसे आत्मनिर्भर नहीं होने देगी कभी, और असुरक्षा भी, कम्पनियां अब उन एक लिंगी प्रजातियों के फलों जैसे पपीता आदि के संकर पौधे तैयार कर जो बिना नर पौधे के फल दे सकें और नर पौधे या उनके बीज अपने पास सुरक्षित रखती है, किसान फौरी तौर पर अपने लाभ के लिए इस मकड़जाल में फंसता चला जा रहा है.
टमाटर की भी यात्रा मैक्सिको से भारत तक जब हुई तब वह लगभग अपने मूल स्वरूप में आया आज भी वह बीज जंगलों में या गाँवों कही मौजूद होंगे उन्हें इकट्ठा किया जा सकता है, ताकि हमारी सम्पदा अक्ष्क्षुण रह सके, क्योंकि देशी बीजों में सूखे से, बाढ़ से, बीमारियों से लड़ने की अद्भुत क्षमता होती है, इन बाजारू बीजों को लंगड़ा बनाकर हमें बेचा जाता है ताकि हम दूसरों पर निर्भर रहे, इनका यह प्रभाव किसानों को ही नहीं भविष्य में आम जान-मानस के लिए भी ख़तरा है. किसान देशी प्रजातियों के फल, सब्जी, अनाज उगाने के साथ साथ संकर प्रजातियां भी उगाए लेकिन देशी मुहं मोड़ना भविष्य के लिए खतरे की घंटी है.
कृष्ण कुमार मिश्र
ग्राम-मैनहन-262727
जनपद-लखीमपुर-खीरी
भारत
krishna.manhan@gmail.com