Tuesday, July 19, 2016

तालाब बाढ़ में भी खरे हैं..




बाढ़ की त्रासदी से मुक्ति का साधन है ये तालाब- 

धरती की पारिस्थितिकी और भूगर्भीय घटनाओं  के कारण तालाब जैसी सरंचनाओं का जन्म हुआ, ग्लेशियर के पिघल जाने के बाद के स्थल, नदियों के पानी के जलभराव स्थल, मिट्टी के अपरदन, उल्का पिंडों के गिरने से, इसके अतरिक्त तमाम भूगर्भीय  घटनाओं से जो गड्ढे जैसी सरंचनाएं बनी, और उनमें बारिश का पानी या नदियों का पानी इकट्ठा हुआ, फिर तालाबों का मुसलसल जैविक विकास के बाद वे प्राक्रृतिक तालाब  या जलाशय कहलाए, और इस प्रक्रिया में लगे सैकड़ों वर्ष  और धरती के तमाम जीवों का प्रत्यक्ष व् प्रत्यक्ष सिलसिलेवार सहयोग इस जलीय सरंचना के विकास में निहित है, उदाहरण के तौर पर हम देखे की किसी कारण बस धरती में बन चुके गड्ढेनुमा सरंचना में पानी भर जाए, फिर धीरे धीरे चिड़ियों या अन्य जीवों द्वारा लाये गए बीजों से उस पानी में वनस्पतियों का उद्भव प्रारंभ होता है, वायरस, बैक्टीरिया,कवक, शैवाल जैसे सूक्ष्म जीव-वनस्पतियों के अतरिक्त तालाब में तैरने वाले सिघाड़े, जलकुम्भी जैसी वनस्पतियों का जीवन-क्रम आरम्भ हो जाता है, किनारों पर आईपोमिया (बेहया), रीड, हाथी घास जैसी वनस्पतियाँ उगती है, और फिर तलाबों के छोर की समतल भूमियों पर विशाल वृक्षों की प्रजातियां, यह है एक प्राकृतिक तालाब- इसे यदि छेड़ा न जाय तो हज़ारों वर्षों में इसमें मृत वनस्पतियों व् जीवों का कचड़ा व्  धूल इत्यादि इसकी तलहटी में जमा होने लगती है और एक वक्त ऐसा आता है जब तालाब की गहराई कम हो जाती है और यह स्थल दलदली भूमि में तब्दील हो जाता है, उसके बाद की स्थिति में जलस्तर और कम होने से यह छिछली नम भूमि में परिवर्तित हो जाता है, नतीजतन यहां घास के मैदान और जंगल उग आते हैं, यही है एक तालाब के उद्भव से अंत की कहानी जिसे पूरा होने में हज़ारों वर्ष लगते हैं, किन्तु मानवीय सभ्यता में तालाब अब यूं ही  नहीं उद्भित होते हैं और न ही उनका प्राकृतिक अंत होता है, तालाब या तो इंसानी जरूरतों के चलते मशीनों से खोद दिए जाते हैं और फिर वही इंसान उसे  पाटकर वहां इमारत खड़ी कर देता है, सो अब तालाब न प्राकृतिक तौर पर जन्मते है और न ही प्राकृतिक तौर पर नष्ट होते है, प्रकृति का सुन्दर खेल नहीं खेला जाता अब, सिर्फ इंसान खेलता है यह क्रूर व् आप्राकृतिक खेल अपनी जरुरत के मुताबिक़! क्योंकि अब कोइ चिड़िया बीजों का प्रकीर्णन करती भी है तालाब में, तो इंसान उस पानी में गाँव या शहर या फिर खेतों का कीटनाशकों और डिटर्जेंट वाला जहरीला पानी बहा देता है, या फिर उस तालाब में हरियाली उगने से पहले उसे पाट दिया जाता है,   जैसे नरेगा जैसी योजनाओं में श्रम का बेजा इस्तेमाल-एक ही तालाब को प्रति वर्ष खोद डालना, जाहिर है तालाब की पारिस्थितिकी तंत्र को जो एक वर्ष में थोड़ा बहुत विकसित हुआ हो उसे दोबारा नष्ट कर देना, तालाब एनीमल किंगडम के तकरीबन सभी वर्गों के सदस्यों की शरणस्थली है, 


एक आदर्श तालाब में पैरामीशियम जैसे प्रोटोजोआ से लेकर घेघा (पाइला ) मोलस्का, एम्फीबीयन जैसे मेढक, रेप्टाइल जैसे सर्प और मगरमच्छ तक जलाशयों में निवास करते है, यहां तक डीकम्पोजिंग बैक्टेरिया जो अपशिष्ट पदार्थों को गलाकर उन्हें मिट्टी में परिवर्तित कर देते हैं, तालाब के पानी को स्वच्छ बनाये रखते है, वनस्पतियों में जलकुंभी जैसी तमाम वनस्पति पानी में मौजूद हानिकारक रसायनों और पदार्थों जैसे लेड इत्यादि को अवशोषित कर तालाब के पानी को सभी जीव जंतुओं के लिए सुरक्षित रखती हैं, किन्तु आदम सभ्यता के मौजूदा विकास ने तालाब ही क्या समूची धरती के पारिस्थितिकी तंत्र को ही नष्ट कर दिया है, और अब न तो वनस्पतियों में ही इतनी  कूबत है और न ही अपघटनकारी बैक्टीरिया में ताकत  कि बेइंतहा इंसानी गन्दगी को साफ़ कर सके, नतीजा सामने है हमने नदियों की जलीय पारिस्थिकी और तालाबों तक को अपनी जहरीली प्रवृत्तियों से ग्रसित कर दिया है यहां तक की हम समुन्दर को भी नहीं छोड़ रहे और फिर अखबार और टीवी में सब पढ़ते देखते है की आज समंदर में इतनी ह्वेल या शार्क मृत पायी गयी या किसी नदी  या तालाब  में हज़ारो मछलियाँ और जीव मर गए,  शायद ही अफ़सोस होता हो क्योंकि हम जानते है की हमारी सभ्यता में हम स्वयं फैक्ट्रियों के प्रदूषित व् जहरीले कचरे की आहुति इन्ही नदियों और तालाबों में दे रहे है जो हमारे लिए ही नहीं सारी कायनात के जीव-जंतुओं के जीवन की बुनियादी जरुरत है, खैर अनियोजित विकास की बलिबेदी पर चढ़ते ये तालाब, नदियां, जंगल यकीनन इंसान को भी अपनी गिरफ्त में ले चुके हैं, किन्तु जब तक लातूर और बुंदेलखंड के हालात हमारे घरों तक न पहुंचे तब तक हम नहीं चेतते हमारी तात्कालिक योजनाएं तब बनती हैं जब अकाल, बाढ़ और सूखा हमारे सिरों पर चढ़कर हुंकार भर रहा होता है, और यह प्रवृत्ति इंसानी सभ्यता में पैठ चुकी है, अतीत में इंसान जंगलों से निकलकर जब नदिओं  के किनारे  बसा, जंगल काटे और कृषि का  आविष्कार हुआ, सभ्यताओं का  जन्म भी, और अपनी जरूरतों के मुताबिक़ प्रकृति से लेना परम्परा बनी,  उस वक्त के काफी बाद तक मनुष्य को प्रकृति की व्यवस्था में विश्वास और भय दोनों मौजूद थे, जल की महिमा, जिसका वर्णन हर धर्म में मौजूद है, या यूँ कह ले की जल जीवन का, पवित्रता का पर्याववाची है, इसीलिए तो बैप्टिज्म से लेकर अमृत पीने , उजू करने, और हिन्दू संस्कृति में सारे संस्कार जल से ही सम्पूर्ण होते है, लेकिन उस पवित्रता को शायद अब हम अंगीकार नहीं करते,  नदियों, तालाबों  में घरों और कारखानों का कचड़ा न बहाते, तालाब इंसानी जरूरतों को ही पूरा नहीं करते बल्कि न जाने कितने जीव-जंतुओं का घर हैं, एक भरी पूरी  प्राकृतिक व्यवस्था, किन्तु अब वाटर रिचार्ज के नाम पर खोदे  गड्ढे जिनकी अथाह गहराई में न जलीय वनस्पति की विवधिता बरकरार रह सकती है और न ही किसी जानवर की गड्ढे में पानी पीने  हिम्मत, साथ ही तालाब  के किनारों पर लगा दी गयी मिट्टी आस-पास के पानी को तालाब में जमा नहीं होने देती, कुल मिलाकर आदर्श तालाबों के नाम धरती पर गड्ढे न तो इंसान के लिए मुफीद है और न ही जानवरों  के लिए और वाटर रिचार्ज की कल्पना भी इन गड्ढों से करना भी बेमानी ही होगा, और हाँ कुछ तालाबों को इतनी  स्थानों पर खोदा गया है की वहां आस-पास के पानी का एकत्रित होना असम्भव और हास्यापद है,. 

नम-भूमियों में,  तालाब, नदी, दलदली भूमियाँ आदि सम्मलित है, के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए पूरी दुनिया में सजगता उत्पन्न हो इस लिए दुनिया के १६९ देशों ने दो फरवरी १९७१ को रामसार ईरान में एक करार पर दस्तखत किए जिसमे तालाबों आदि के सरंक्षण और उसकी महत्वा को  पुरजोर सिफारिश की गयी, और इसी सिलसिले में १९९७ से प्रत्येक वर्ष दो फरवरी अंतर्राष्ट्रीय नम-भूमि (तालाब ) दिवस के तौर पर मनाया जाता है, इस करार में धरती के उन विशाल जलाशयों और दलदली भूमियों को रामसार साइट के तौर पर दर्ज़ किया गया है जिनमे तमाम जीव-जंतु और वनस्पतियां अपना जीवन चक्र सुचारु तौर पर चलाती हों, एक आदर्श जलीय पारिस्थितिकी का माहौल, इसके तहत सारी दुनिया में २२४१ रामसार साइट चिन्हित की गयी हैं, भारत में कुल रामसार साइट यानि आदर्श जलाशय या नम -भूमियाँ २६ हैं जिनका कुल-क्षेत्रफल ६८९,१३१ हेक्टेयर है,  उत्तर प्रदेश में गंगा के किनारों में बृजघाट से नरौरा तक रामसार साइट घोषित की गयी, प्रदेश में यही एक एकलौती रामसार साइट है, भारत इस करार में एक फरवरी सं १९८२ को शामिल हुआ,

यदि हम भारत सरकार की अंतर्देशीय नमभूमियों की एक रिपोर्ट पर गौर करें तो तमिलनाडु अपने देश के सबसे ज्यादा तालाबों (नम-भूमियों ) वाला प्रांत है और उसके उपरान्त उत्तर प्रदेश, भारत वर्ष के कुल भौगोलिक क्षेत्र में ४.६३ फीसदी नम-भूमियों के क्षेत्र मौजूद है, वही नदियों के प्रदेश उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा ५. १६ फीसदी, ७१ जनपदों में यानि २४०९२८ वर्ग किलोमीटर वाले प्रदेश के भूभाग पर १२४२५३० हेक्टेयर भूमि में तालाब, नदियां, व् नम भूमियाँ मौजूद है, औसतन इस आंकड़े के आधार पर हम तालाबों के धनी है, किन्तु तालाबों की दुर्दशा के चलते हालात बदतर हुए हैं,

गाँव में एक आदर्श तालाब की खासियत होती थी उसकी विशालता, ताकि उसके विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार की जलीय वनस्पतियाँ  विकसित हो सकें, उसके छिछिले किनारों पर तमाम लम्बी टांगों वाले पक्षी अपना भोजन खोज सके, गहराई में  अन्य जीव जंतु पनप सके, कही गहराई में कंकरीली जमीन, तो तालाब के किसी भाग में बलुई तलहटी जहां मनुष्य स्नान आदि कर सके और उसके पाँव कीचड में भी न सने, कुछ स्थानों में कीचड वाली तलहटी जहां मवेशी जल-क्रीड़ा कर सके  और कहीं किनारों पर चिकनी मिट्टी वाली तलहटी जहां से मिट्टी के बर्तन बनाने वाले लोग वहां से मिट्टी निकाल सकें, और कही कहीं तो तालाब की तलहटी में सीपियों की कनकदीली फर्श सी बन जाती है तालाब में, तैरने वाले पौधों से लेकर तलहटी में धंसी जड़ों वाले पौधे पानी के ऊपर निकल कर खिलते हों, और हरियाली का जाल भी मौजूद हो तालाबों में तभी पानी की शुद्धता बरकार रह सकती है और एक आदर्श जलीय पारिस्थितिकी तंत्र विकसित हो पाएगा। .सुन्दर और रमणीक!

जीवन रस से भरपूर ये हरे भरे तालाब गर्मियों में हमें शीतलता और जल ही नहीं मुहैया कराते बल्कि हमारे घरों  के जल-यंत्रों में पानी के स्तर को भी व्यवस्थित रखते हैं, आस-पास के बाग़-बगीचों को भी हरा भरा बनाते हैं, और बरसात में हमारे गाँव और शहर के पानी को भी स्वयं में समाहित कर लेते हैं ताकि हमारी आबादी बाढ़ से बच सके, नदियों में पहुचने से पहले जो अतरिक्त पानी ये तालाब अपने आगोश में लेते हैं यकीनन बाढ़-नियंत्रण का सबसे बेहतरीन और कम लागत वाला तरीका है, तालाबों की खुदाई और उन्हें अपने प्राकृतिक स्वरूप में विकसित होने देना धरती पर मौजूद सारी प्रजातियों के लिए सुखद है ये बात हमें समझ लेनी चाहिए।

थोड़ी सी बारिश से बाढ़ के हालात पैदा हो जाना हमारे अनियोजित विकास की देन है, गाँवों में गलियारों को मिट्टी से पाटकर ऊंचाकर देना और फिर उस पर पक्की  सड़क बना देना, इस विकास ने तमाम फायदे जरूर दिए मानव-जाती के आवागमन में किन्तु कृषि-भूमि को ऊंची सड़कों की चौहद्दी से बाँध  दिया और नतीजा ये हुआ की अब पानी समतल जमीन पर बहकर इन ऊंची सड़कों से टकराकर ठहर जाता है, और तालाब या  नदी में नहीं पहुँच पाता और जल-भराव की स्थिति उत्पन्न होती है, दूसरी वजह है नदियों के मुहानों पर  काबिज़ इंसान और उसकी इमारते, नदियों के मुहाने कभी किलोमीटरों चौड़े होते थे, जहां सिर्फ जानवरों के चराने का ही चलन था, और नदी का जल स्तर बढ़ने से पानी उसके मुहानों तक ही सीमित होता था या कभी कभार इंसानी आबादी में या कृषि क्षेत्र में आकर दो चार रोज बाद उतर जाता था लेकिन अब  उन मुहानों में कृषि क्षेत्र और गाँव बसे हुए है, यहाँ तक सरकारी बिल्डिंग्स भी मौजूद है, ऐसे हालातों में नदी का उफनना घातक ही सिद्ध होगा, पानी को रोकने की प्रवृत्ति ही बाढ़ का कारण है, तटबंध, बाँध, इत्यादि नदी के जल के वेग को बेतरतीब करते है और कटान स्वाभाविक है, नदियां रुख बदलती है और फिर छोड़ जाती है उपजाऊ जमीन और बहुत सारे तालाब जो मनुष्य ही नहीं सारी जैव-विवधिता का ये स्थल होते हैं, किन्तु अब नदियों के रास्तों पर हम तकनीक का पहरा बिठाए हैं और यही कारण है की हम सफल कम असफल अधिक होते है, बाढ़ नियंत्रण में, बाढ़ के रूप में पानी का समतल भूमियों पर बिखर जाना और फिर वापस जाकर नदी की सीमाओं में  बहना  प्रकृति है और उसे जबरन रोकने के प्रयास ही तबाही का कारण बनते है, किन्तु अनियोजित विकास की बलिबेदी पर चढ़ती नदियां तालाब और जल-प्लावित क्षेत्र पूरी इंसानियत के लिए ही नहीं धरती के सभी जीवों के लिए अभिशाप हैं, हम पानी को उसका वाजिब रास्ता दे दें यकीन मानिए वह हमारे गाँव और घरों में कभी दाखिल नहीं होगा। याद रहे की नदियों के मुहानों पर पहरेदारी ने ही अब नदियों को प्राकृतिक तालाब जन्मने के मौके से भी वंचित कर दिया है।

इंसानी सभ्यता में जमीन के सौदागरों का विकास तालाबों की मौत का कारण बना, हमारा बेवकूफी भरा मंसूबा की जमीन पर सिर्फ हमारा अख्तियार है ने धरती की जैव-विवधिता खासकर तालाबों की शामत बनकर आया, हम ये भूल जाते है किसी तालाब को ख़त्म करते वक्त की यह तालाब लाखों प्रजातियों का घर है और हम उन्हें चंद रुपयों या अपनी बेजा जरूरतों के चलते बेघर ही नहीं कर रहे बल्कि उन्हें मिट्टी में दबाकर क़त्ल कर रहे हैं, जैव-विवधिता के ये तालाब खजाने हैं, ज़रा सोचिए इनमे उगने वाले वनस्पति जानवरों के अतरिक्त इंसानों को भोजन, औषधि और रोजगार भी देती है, तालाबों का कब्ज़ा और उनके बाज़ारीकरण ने गाँवों के तमाम समुदायों को प्रभावित किया है जिनकी रोजी और रोटी इन तालाबों पर निर्भर थी, तालाबों के ठेके ने गाँव के उनलोगों को प्रभावित किया है जिनके घर में अगर भोजन नहीं है तो वे इन प्राकृतिक तालाबों से कुछ न कुछ खाद्य वस्तुएं इकट्ठा कर लेते थे, अब वह जरिया भी ख़त्म कर दिया  हमारी  व्यवस्था ने,  रही सही कमी प्रदुषण पूरी कर दी, ये तालाब, जंगल धरती सारी समष्टि की है सिर्फ इंसान की बपौती नहीं और इस बात को सरकारों को खूब समझना चाहिए और ऐसे निर्णय लेने चाहिए ताकि ये प्राकृतिक स्थल अपने स्वरूप में रह सके सदा के लिए और इससे हमारी आने वाली नस्ले भी लाभान्वित हो सकें बजाए अकाल, बीमारी और दुर्भिक्षता के.......   

तो उम्मीद है की तालाबों में फिर से कमल खिलेंगे, कुमदनियाँ लहलहायेंगी, तालाबों में हरियाली होगी और आस-पास में तमाम वनस्पतियाँ, वृक्ष और लताएँ, जहां तमाम परिंदे अपनी भूख-प्यास मिटायेंगे और बारिश में दादुर इन तालाबों में गीत गायेंगे, पुष्पों पर तितलियाँ, भौरें और  रंग-बिरंगे जीव मडराएंगे, हम तीज त्योहारों पर इन तालाबों की पूजा अर्चना कर सकेंगे और कह सकेंगे जल-परियों की कथाएं भी......   क्योंकि तालाब पवित्र रहेंगे तो हमारे जल- संस्कार भी पवित्र हो सकेंगे।

कृष्ण कुमार मिश्र 
(लेखक वन्य-जीव विशेषज्ञ एवं दुधवालाइव जर्नल के संस्थापक सम्पादक हैं)
krishna.manhan@gmail.com 
www.dudhwalive.com