Saturday, December 24, 2011

भारत में एक योरोपियन रियासत की कहानी

J.B.Hearsey's Bungalow at Mamri Lakhimpur, India
राजा ममरी का किला-

भारत में योरोपियन रियासत की एक कहानी-

महान! एंग्लो- इंडियन हर्षे परिवार के निशानात मौजूद है उत्तर भारत के खीरी जनपद में-

ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार से शुरू होकर आजाद भारत के रियासतदारों में हर्षे कुनुबा-

अब वे दरो-दीवार भी मायूस है ..

उत्तर भारत की तराई सर्द मौसम, घना कोहरा जो नज़ारों को धुंधला देखने के लिए मजबूर कर रहा था, कोहरे की धुंध और सर्द हवाओं में गुजरते हुए इतिहास की रूमानियत लिए मैं ब्रिटिश-भारत के उस महत्वपूर्ण जगह से रूबरू होने जा रहा था जो अब तक अनजानी और अनकही थी इतिहास के धरातल पर...

इस जगह के बारे में मैं एक दशक से किताबी राफ़्ता रख रहा था, किन्तु नाजिर होने का मौका आज था, मन में तमाम खयालात और अपने किताबी मालूमात के आधार पर कहानियां गढ़ते मैं अपने एक साथी गौरव गिरि (गोलागोकर्ननाथ) के साथ गोला से मोहम्मदी मार्ग पर चला जा रहा था। बताने वालो के मुताबिक मार्ग पर स्थित ममरी गांव को पार कर लेने के बाद एक नहर पुल मिलना था और फ़िर उस जगह से वह एतिहासिक स्थल दिखाई पड़ेगा ऐसा कहा गया था!

 ज्यों ही नहर के पुल पर पहुंचा और ठहर गया, आंखे खोजने लगी उस अतीत को जो हमारा और उनका मिला जुला था, बस फ़र्क इतना था कि इस इतिहास को गढ़ने वाले वे लोग हुक्मरान थे, इस जमीन के, और हम सामन्य प्रजा। नहर के पुल से मैं पश्चिम में जल की धारा के विपरीत चला, जहां एक बागीचा था और उसमें मौजूद कुछ खण्डहर, अपने अतीत और वर्तमान के साथ, और उनका भविष्य उनके वर्तमान में परिलक्षित हो रहा था। मैं मायूस हुआ वो एक नहर कोठी थी सुन्दर किन्तु ध्वंश ! बरतानिया शासन की नहर कोठियों में बहुत दिलचस्पी रही मेरी, परन्तु आज मैं कुछ और ही तलाश रहा था......
हमारी जमीन पर गोरो की सत्ता का केन्द्र- हर्षे बंग्लो:

आखिरकार हमें वापस पुल पर फ़िर आना पड़ा और नहर की जल धारा के समानान्तर चलते हुए मुझे कुछ दिखाई पड़ा एक सुन्दर दृष्य- खजूर के विशाल वृक्ष, तालाब, पीली सरसो के फ़ूलों से भरे खेत और इसके बाद एक किलेनुमा इमारत-----बस यही तो वह जगह थी जिसकी मुझे तलाश वर्षो से थी। जिसके बारे में पढ़ते और सुनते आये थे...किवदन्तियां, रहस्य और वृतान्त.....

उस किले के नजदीक जाने से पहले कुछ तस्वीरे खीची और फ़िर मैं उस इमारत के सामने के प्रांगण में जा पहुंचा, जहां पास  के खेत में काम करता हुआ एक व्यक्ति दिखाई दिया, आवाज देने पर वह मेरे नजदीक आया- नाम पूछने पर पता चला वह छोटे सिंह है, इस कोठी के मालिक ज्वाला सिंह का पुत्र । मैने उस कोठी के अन्दर घुसने का विनम्र दुस्साहस करने की बात कही तो उसने मना कर दिया, वह सहमा हुआ सा था, जिसकी कुछ अपनी वजहे थी। किन्तु थोड़ी देर बाद वह इमारत से बाहर आया और अन्दर आने के लिए कहा, मेरे मन में बस कोठी की अन्दरूनी बनावट, पुराना एंग्लो-इंडियन फ़र्नीचर और कुछ अवशेष देखने भर की थी, खैर मैं इमारत के बाहरी कमरे में घुसा तो नजारा बिल्कुल अलग था, एक बांस की खाट (खटिया) पर लेटे एक बुजुर्ग रूग्ण और बुरे हालातों से लत-पत, कमरे कोई फ़र्नीचर नही और न ही बरतानिया हुकूमत के कोई शाही निशानात सिवाय गीली छत और बे-नूर हो चुकी दीवारो के, छतों में भी घास और वृक्षों की पतली जड़े सांपों की तरह घुमड़ी हुई दिखाई दे रही थी।


 एडिमिनिस्ट्रेटर जनरल  ने इसकी नीलामी कराई

उनसे मुलाकात हो जाने पर कुछ मैं खश हुआ चलो इनकी आंखो से इस इमारत के इतिहास को देखते है, ज्वाला सिंह जो कभी मिलीट्री वर्कशॉप बरेली में नौकरी कर चुके थे और अब रिटायर्ड होकर यही रहते थे अपनी पत्नी और बेटे के साथ, इनके पिता गम्भीर सिंह (डिस्ट्रिक एग्रीकल्चर आफ़ीसर) ने इस इमारत को सन 1966 में खरीदा,  भारत सरकार द्वारा जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम के तहत इस सम्पत्ति की नीलामी की और मात्र २९ हजार रुपयें में यह शाही इमारत और ३० एकड़ भूमि को क्रय कर दिया गया, और तबसे यह सम्पत्ति इनके परिवार के आधीन है। गम्भीर सिंह के तीन पुत्रों में सबसे छोटे ज्वाला सिंह इस जगह के मालिक है। ये पुणीर क्षत्रियों का परिवार मूलत: मुजफ़्फ़रनगर का है

तिब्बतियों ने भी शरण ली हर्षे के महल में-

ज्वाला सिंह के मुताबिक सन 1962 में चाइना-भारत युद्ध के समय तमाम तिब्बती प्रवासियों को इस इमारत में ठहराया गया और उसके बाद इसमें रेवन्यु आफ़िस खोला गया। नतीजतन इस किले का शानदार फ़र्नीचर और सामान या तो सरकारी मुलाजिम जब्त कर गये या तिब्बतियों ने- आज बस वीरान इमारत के सिवा यहां कुछ नही।  



इमारत के निर्माण वर्ष को ठीक से वे बता नही सके, और इमारत की प्राचीरों से कोई लिखित प्रमाण भी नही मिला, सिवाय ईंटों के, शुक्र है कि उस वक्त ईंट भट्टों में जिन ईंटों का निर्माण किया जाता था उनमें ईंस्वी सन या संवत का वर्ष पड़ा होता था, और इस वजह से ध्वंश अवशेषों के निर्माण-काल ज्ञात हो जाता है। किन्तु आजकल ईंट भठ्ठे वाले उल्टे सीधे नामों को छापते है ईंटों पर ! 

फ़ूस-बंग्ला-

ध्वंशाशेषों में कुएं की प्राचीर से मिली ईंटों पर सन 1884 की ईंटे प्राप्त हुई और दीवार की प्राचीरों से सन 1912 ई० की, यानि यह जगह सन 1884 के आस-पास आबाद की गयी। बताते हैं मौजूदा इमारत के पहले फ़ूस के बंगलों से आछांदित था यह बंगला, इस इमारत के मालिकों को भारतीय घास फ़ूस के वातानुकूलित व मजबूती के गुणों का शायद भान था और इसी लिए जिला मुख्यालय पर मौजूद इनकी कोठी भी फ़ूस से निर्मित थी- जिसे लोग फ़ूस -बंग्ला भी कहते आये। 


ज्वाला सिंह के मुताबिक इस इमारत और जमीन जायदात के मालिक जे० बी० हर्षे जमींदारी विनाश अधिनियम के पश्चात सम्पत्ति जब्त हो जाने के बाद मसूरी में रहने लगे थे और सन 1953 में  वही हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई।


योरोपियन वनस्पति?-



एक बात और और इन्सान जहा रहता है वहां के वातावरण को अपने मुताबिक ढालता है, और वही वजह रही कि इस जगह पर अभी भी योरोपियन वृक्ष, लताये मौजूद है । अपने गौरवशाली अतीत में यह इमारत बहुत ही खूबसूरत रही होगी और इस इमारत का एक गृह-गर्भ भी है, यानि जमीन के भीतर का हिस्सा जो रियासती दौर में खजाना रखने के काम आता था।



इमारत के चारो तरफ़ फ़ूली सरसों इसकी सुन्दरता को अभी भी स्वर्णिम आभा दे रही , आस-पास में बने सर्वेन्ट क्वार्टर्स, रसोई, कुआ इत्यादि, जिनमें तमाम अनजानी बेल, झाड़िया...1857, और कुछ रहस्य पोशीदा है, जिन्हे वक्त आने पर बताऊंगा.....!
मिलनिया-
एक नये शब्द की खोज भी हुई उस जगह पर अपने अन्वेशण के दौरान इमारत के पिछले हिस्से की तरफ़ मैं तस्वीरे ले रहा था तभी लकड़ियों का बोझ लिए एक महिला वहां से गुजरी, मै बात कर रहा था बहुत छोटे कमरे की जिस पर खपरैल बिछा था, उसने कहा कि यह मन्दिरथा जिसे योरोपियन मालिको ने नह बल्कि मौजूदा मालिकों ने बनवाया था और यहां पर एक मिलनिया लगवाई थी- पूछने पर पता चला गन्ना पेरने वाला कोल्हूं को उसने मिलनिया कहा था !  


मंजर वही है बस नाजिर और वक्त बदल गये-
...अब मैं लौट रहा था सूरज भी यहां से मेरे साथ-साथ चल दिया था, मै उस जाते हुए सूरज को कैमरे में कैद कर रहा था, यह सोचकर इसने अब तक मेरा साथ दिया, नजारों को रोशन किया और इसकी रोशनी ने तस्वीरे लेने में मदद की, यह भी गवाह बना मेरी मौजूदगी का, कृत्यज्ञता का भाव था उस कथित डूबते सूरज के लिए, मैं सोचने लगा कि कभी बरतानिया हु्कूमत में इस रियासत के हुक्मरान हर्षे परिवार के लोग बड़ी रूमानियत से सूरज के डूबने का नजारा देखते होगे और खुश होते होगे- कि ब्रिटिश राज का सूरज कभी नही डूबता.....और आजादी के बाद जब यह सूरज डूब रहा होगा तब भी उन गोरो ने अपने इस किले से बड़ी मायूसी और हार के भाव से उसे डूबते हुए देखा होगा, और आज ये आजाद भारत के ठाकुर साहब जो मौजूदा मालिक है अपने रूग्ण शरीर और विपरीत परिस्थिति के साथ इस सूरज के डबने के मंजर को देख रहे होगे, मंजर एक ही है पर मनोभाव जुदा-जुदा है...काल और परिस्थिति इन्सानी सोच में इतनी तब्दीली लाती है की चीजों के मायने बदल जाते है जहन से....

इति 


नोट- इस किले के रहस्य और इसके मालिकानों का तस्किरा कभी और...हां इतना बता दूं कि खीरी जनपद की इस इमारत में रहने वाले योरोपियन मालिकान बंकिमघम पैलेस से लेकर फ़्रान्स और अमेरिका में अपनी बुलन्द हैसियत के लिए जाने जाते रहे हैं।  
© कृष्ण कुमार मिश्र (सर्वाधिकार सुरक्षित)




कृष्ण कुमार मिश्र
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