Wednesday, July 27, 2011

अपनी धरती की इन राहों पर मेरे पद-चिन्ह


लखीमपुर टू मोहम्मदी:
काले बगुले की तलाश में एक यात्रा पर इस यात्रा पथ पर जो मिला जो कुछ महसूस हुआ और जो विगत स्मृतियां दोबारा मन को पल्लवित कर गयी उसका दस्तावेजीकरण करने का मन हुआ सो की-बोर्ड को उंगलियां अनियमित क्रम में उद्वेलित करने लगी....२५ जुलाई दिन का तीसरा पहर बादल कहंकशा में सूरज पर झीनी चादर डालते और फ़िर हट जाते,.... मैं चित्र-यन्त्र और मेरी बैलगाड़ी..हम तीनों तराई के इस जनपद की हरियाली के मध्य काली सड़क पर गतिमान थे, बारिश के बाद का ये मंजर जिसने प्रकृति को नहलाने में कोई कसर नही छोड़ी थी, मार्ग के दोनों तरफ़ धान के खेत और उन्हे सिंचित करते किसान...एक जगह शरीर ने पानी की दरकार की तो मन हैंडपंप की तलाश में झांकने लगा इधर-उधर, हाई-वे की तरह छोटी-बड़ी दुकानों पर महीनों पुराना बोतलबंद पानी तो मौजूद नही था इस डिस्ट्रिक्ट रोड पर, लेकिन जल्द ही एक खेत में पम्प-सेट आधा फ़िट की गोलाई में जमीन से सफ़ेद पानी निकालता हुआ दिखाई दिया..इस पानी पर पड़ती सूर्य-रश्मियां इसे नीला चमकदार बना रही थी। जल-धारा का जमीन से निकल कर सूर्य-रश्मियों के साथ संगम मन में पावन-नैसर्गिक भाव जगा रही थी...शायद जल के वेग और हवा, और सूरज की किरणों के साथ मेल-मिलाप जो जल के स्वरूप और रंग को विविध छटाओं में परिवर्तित करती हैं के कारण ही जल पवित्र और पूज्यनीय रहा सभ्यताओं में !..मामला नैसर्गिक सुन्दरता से जल के गतिमान होने, आक्सीजन (हवा) के मिश्रण  और उल्ट्रावायलेट किरणों के वायरस-बैक्टीरिया पर प्रभाव तक पहुंच रहा है... जल को सदैव स्वच्छ रखने में मदद करता है,... इस-लिए आगे बढ़ता हूं...

!...उस पम्प सेट के मालिक ने जो सिक्ख था ने मेरी खाली बोतल में जीवन की अहम बुनियादी जरूरत का सामान भर दिया..चमकदार नीला आसमानी द्रव..मैं कृत्यज्ञ था। कुछ आगे चलने पर एक बरतानियां हुकूमत के दौर की नहर मिली जिसके पुल को पार करते हुए मेरी नज़र ने नष्ट हो चुके जंगल के मध्य बसे उस गाँव को देखा जहाँ अभी भी खजूर के वृक्ष बे-हिसाब हैं, और हाँ उनमें पीले-पीले खजूरों की गहरें लटक रही हैं...यह खजूर के फ़लने का मौसम जो हैं, खजूर का जिक्र इस-लिए क्योंकि खजूर इन्सान की पुरानी रिहाइश को दर्शाते हैं।  तो वह गांव जिसे देखकर मेरी आंखों में गर्व का भाव और नसों में रक्त की प्रबलता बढ़ा दी थी..उसकी वजह थी कि मैंने इतिहास की किताब के पुराने पन्ने पलट रहा था...यहाँ कुछ कहने से पहले यह बात बाता देना जरूरी है, कि मैं अपने अतीत को गुलाबी चश्में से नही देखता, क्योंकि मैने आजतक कोई चश्मा पहना ही नही...अपनी वृत्ति और प्रकृति प्रदत्त उन नंगी आंखो से ही दुनिया देखने की चाहत पैबस्त है मेरे जहन में...और उसी नंगी आंख से नज़िर हुए मसलों को बयाँ कर रहा हूँ।

आजादी के खातिर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अन्तिम आहुति



इस गाँव का नाम है भीखमपुर, स्वतंत्रता आंन्दोलन में इसी गाँव क्रान्तिकारी पं० राजनरायन मिश्र को अंग्रेजों के खजाने को लूटने के इल्जाम में फ़ाँसी की सज़ा हुई, उन पर अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों के आरोप भी थे, ब्रिटिश-भारत में ट्रेन डकैती के आरोपी के नाम पर आज आजाद भारत में उसी स्थान पर एक रेलवे स्टेशन का निर्माण हुआ और जिसका नाम राजनरायनपुर रेलवे स्टेशन रखा गया है।
यहाँ यह बताना जरूरी है कि राजनरायन मिश्र को आजादी के इस संघर्ष में सन १९४७ में लखनऊ जेल में फ़ाँसी हुई, बरतानिया सरकार द्वारा दी जाने वाली यह आखिरी फ़ांसी की सजा थी। स्वतंत्रता संग्राम में किसी क्रान्तिकारी के प्राणों की यह आखिरी आहुति थी।

साठा धान
अपनी जमीन की क्रान्तिकारी पैदावार के गर्वीले भावों के साथ आगे बढा तो एक सरदार जी को धान की कटी फ़सल वाले खेत में आग लगाते देखा वो धान की कटी हुई जड़ों को जलाकर उस खेत में दोबारा धान की रोपाई करना चाहते थे, खेत को जलाने से सफ़ाई के साथ साथ उर्वरता और खर-पतवार नष्ट हो जाते है। लेकिन यहां गौर करने वाली बात है कि मार्च-अप्रैल में गर्मी के मौसम में साठा यानी साठ दिन में पकने वाली धान की प्रजाति की रोपाई करना अप्राकृतिक तो है ही साथ ही जमीन के जल-स्तर को काफ़ी नुकसान पहुंचाती है, तराई के जनपदों में साठा धान पैदा करने की अब होड़ सी है हर कोई एक ही मौसम में दो फ़सले ले लेना चाहता है। खैर किसान की स्थिति को ध्यान रखे तो प्राकृतिक दोहन की उसकी मजबूरी समझ आती है, कम से कम वह अपने खेतो की जमीन और उसके तले छुपे पानी का ही दोहन करता है, पर देश के बुर्जुआ तो इस धरती के बड़े बड़े प्राकृतिक स्रोतो को शोषित कर रहे है कागज की नोटों के बदले और हां ये लोग बहुत कुछ पाने की गुंजाइश मात्र से ही अपनी अस्मत इज्जत का शोषण करवाने से भी नही चूकते।

खेत के खरपतवार और धान की मुर्दा जड़ो से निकलता सत-रंगी धुआँ और धुएं में तर-बतर सरदार जी अपने धर्म-निष्ठा के साथ इस कार्य में व्यस्त, धुएं से घिरे हुए सरदार जी की पगड़ी और कटार साफ़ साफ़ चमक रही थी। वे अपने इन अस्त्र-वस्त्र को धारण करना नही भूले इस काम के वक्त भी, मुझे उनकी यह धर्म-निष्ठा प्रभावित कर गयी।
हाँ धुएं का हाल भी सुनते चलिए...जलने वाली चीज की तासीर के मुताबिक यह धुआं अपना रंग बदलता, खेत में मौजूद मुर्दा पौधो से निकलता धुआं, और जिन्दा पौधों के जलने से निकलते धुएं के रंग इतर-इतर थे। धुएं के रंग और उसके स्वरूप से उसके स्रोत के हालात का अन्दाजा लगाना आसान था। और इस रंगबिरंगे धुएं से घिरे सरदार जी जो पूरी तरह अपने काम में मशगूल थे, मेरी मौजूदगी के बावजूद, उनकी तन्मयता नें मुझे उनकी धुएं के साथ तस्वीरें लेना और सुन्दर बना रहा था।
यहां भी खेत में काम करने वाले सरदार जी के बड़े भाई ने चलते वक्त यह कह कर पानी की बोतल मेरी तरफ़ बढा रहे थे कि ठ्ण्डा पानी है.....यहां भी मैं कृतज्ञ हुआ।

काला बगुला


आगे चलते हुए जो दिखा उसे नज़रन्दाज करना पड़ा क्योंकि धरती का हमारा वाला हिस्सा सूरज से दूसरी तरफ़ तेजी से जा रहा था, और काला बगुले की तस्वीर अंधेरे में न लेने पाने का डर तेजी से मुझे मोहम्मदी के अलीनगर गांव की ओर चलने को मजबूर कर रहा था, चूंकि मेरे मित्र वाइल्ड लाइफ़ फ़ोटोग्राफ़र सतपाल सिंह जी मुझे सूचित कर चुके थे, कि काला बगुला उनके ही धान के खेत में मौजूद है, इस वक्त सो मेरी उत्कंठा और बढ गयी थी। यहां ये बताना जरूरी है, कि इस प्रजाति के (कैटल इग्रेट) काले बगुले का वर्णन किसी भी पक्षी विज्ञान के दस्तावेज में संभवता मौजूद नही है, और यह अपने आप में पक्षीविज्ञान के इतिहास में बड़ा व विचित्र मसला होगा। यहां गौर करने वाली बात यह है, कि यह काला बगुला दिन में एक बार सतपाल सिंह के खेतों में या उनके घर के नज़दीक जरूर दिखाई देता है, और सतपाल सिंह ने इसकी तमाम तस्वीरें भी खींची...एक फ़ोटोग्राफ़र और काले बगुले का यह रिस्ता बड़ा विस्मयकारी है!

धान के खेतों गहराई तक घुसते पैरों को सभांलते  हुए कुछ तस्वीरे ली इन जनाब की, काले बगुले से यह मेरा पहला साक्षात्कार था, पर उन्होंने अपने आप को  धान की पौध में छिपाने की बहुत कोशिश की, लगता था कि वे जनाब तस्वीरें खिंचवाते खिंचवाते थक गये थे, या सेलेब्रेटी होने का एहसास उन्हें ये नखरे दिखाने पर विवश कर रहा था।

अंधेरा हुआ काला बगुला भी लम्बी उड़ान भर गया इन खेतो से, और हम वापस आ गये सतपाल सिंह के फ़ार्म हाउस पर यहां इन्होंने पानी के साथ साथ समोसे व कोल्ड्र ड्रिंक भी पिलाई...स्प्राइट....इस यात्रा में मैं तीन सिक्खों से अनुग्रहीत हुआ....अन्तिम वाले से ज्यादा...क्योंकि उन्होंने स्प्राइट भी......!

ईश्वर का निर्माण


लौटते हुए रात के १२ बज रहे थे मोहम्मदी और गोला के मध्य साउथ खीरी के घने जंगलों के मध्य यह सड़क जिस पर कभी इतनी रात में इक्का-दुक्का वाहन ही गुजरते थे...आज सैकड़ों की तादाद में काँवरियें गाते बजाते शिव-नगरी गोला-गोकरनाथ की तरफ़ बढ रहे थे, ये जत्थे ५ से लेकर ५० की सख्यां में थे पूरी सड़क केशरिया हो चुकी थी, धर्म और भक्ति का यह भाव मनुष्य को मनुष्य बनाता है, मैं सोच रहा था ये लोग सैकड़ो मील की यात्रा पर है, मज़दूरी छोड़, अपने घर के दुख-तकलीफ़ों को छोड़ अपने परिजनों को छोड़कर नंगे पांव शिव भक्ति में तल्लीन इतनी लम्बी धर्म-यात्रा कैसे कर रहे है, और यदि इनके भावों ने इन्हे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है तो आज की भोर जब बहराइच से बढ़ रहे हज़ारों लोग, फ़रूखाबाद से आ रहे भक्त और बरेली-पीलीभीत से आ रहे लोगों की लाखों की तादाद इकट्ठा होगी शिव नगरी में तो हर हर महादेव ....पूरे वायुमण्दल को गुजांयमान कर जायेगा और इतनी जीव-आत्माओं की एकनिष्ठा शिव को निश्चित ही उत्पन्न कर देगी, उस स्थल पर जिसे ये पूजने जा रहे हैं, इनकी आत्मीय उर्जा और उनकी शिव भक्ति के भाव एक बड़े उर्जा पुंज को अवश्य दैदीप्तिमान करेंगे..और ईश्वर का यह एक रोमांचक निर्माण होगा...इन लाखों मानवों की उर्जा और भक्ति भाव से......ये शिव को उत्पन्न करने के लिए शिव का निर्माण करते भुए ही तो इस यात्रा में है।...भक्ति की इस शक्ति को देखते हुए कल्पना के घोड़े दौड़ाता हुआ ...धर्म की ताकत का एहसास करता हुआ ...और मानव के काल्पनिक और पवित्र निर्माण से अभिभूत होता हुआ मैं लखीमपुर की तरफ़ बढ़ चला।


कृष्ण कुमार मिश्र
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