Saturday, December 24, 2011

भारत में एक योरोपियन रियासत की कहानी

J.B.Hearsey's Bungalow at Mamri Lakhimpur, India
राजा ममरी का किला-

भारत में योरोपियन रियासत की एक कहानी-

महान! एंग्लो- इंडियन हर्षे परिवार के निशानात मौजूद है उत्तर भारत के खीरी जनपद में-

ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार से शुरू होकर आजाद भारत के रियासतदारों में हर्षे कुनुबा-

अब वे दरो-दीवार भी मायूस है ..

उत्तर भारत की तराई सर्द मौसम, घना कोहरा जो नज़ारों को धुंधला देखने के लिए मजबूर कर रहा था, कोहरे की धुंध और सर्द हवाओं में गुजरते हुए इतिहास की रूमानियत लिए मैं ब्रिटिश-भारत के उस महत्वपूर्ण जगह से रूबरू होने जा रहा था जो अब तक अनजानी और अनकही थी इतिहास के धरातल पर...

इस जगह के बारे में मैं एक दशक से किताबी राफ़्ता रख रहा था, किन्तु नाजिर होने का मौका आज था, मन में तमाम खयालात और अपने किताबी मालूमात के आधार पर कहानियां गढ़ते मैं अपने एक साथी गौरव गिरि (गोलागोकर्ननाथ) के साथ गोला से मोहम्मदी मार्ग पर चला जा रहा था। बताने वालो के मुताबिक मार्ग पर स्थित ममरी गांव को पार कर लेने के बाद एक नहर पुल मिलना था और फ़िर उस जगह से वह एतिहासिक स्थल दिखाई पड़ेगा ऐसा कहा गया था!

 ज्यों ही नहर के पुल पर पहुंचा और ठहर गया, आंखे खोजने लगी उस अतीत को जो हमारा और उनका मिला जुला था, बस फ़र्क इतना था कि इस इतिहास को गढ़ने वाले वे लोग हुक्मरान थे, इस जमीन के, और हम सामन्य प्रजा। नहर के पुल से मैं पश्चिम में जल की धारा के विपरीत चला, जहां एक बागीचा था और उसमें मौजूद कुछ खण्डहर, अपने अतीत और वर्तमान के साथ, और उनका भविष्य उनके वर्तमान में परिलक्षित हो रहा था। मैं मायूस हुआ वो एक नहर कोठी थी सुन्दर किन्तु ध्वंश ! बरतानिया शासन की नहर कोठियों में बहुत दिलचस्पी रही मेरी, परन्तु आज मैं कुछ और ही तलाश रहा था......
हमारी जमीन पर गोरो की सत्ता का केन्द्र- हर्षे बंग्लो:

आखिरकार हमें वापस पुल पर फ़िर आना पड़ा और नहर की जल धारा के समानान्तर चलते हुए मुझे कुछ दिखाई पड़ा एक सुन्दर दृष्य- खजूर के विशाल वृक्ष, तालाब, पीली सरसो के फ़ूलों से भरे खेत और इसके बाद एक किलेनुमा इमारत-----बस यही तो वह जगह थी जिसकी मुझे तलाश वर्षो से थी। जिसके बारे में पढ़ते और सुनते आये थे...किवदन्तियां, रहस्य और वृतान्त.....

उस किले के नजदीक जाने से पहले कुछ तस्वीरे खीची और फ़िर मैं उस इमारत के सामने के प्रांगण में जा पहुंचा, जहां पास  के खेत में काम करता हुआ एक व्यक्ति दिखाई दिया, आवाज देने पर वह मेरे नजदीक आया- नाम पूछने पर पता चला वह छोटे सिंह है, इस कोठी के मालिक ज्वाला सिंह का पुत्र । मैने उस कोठी के अन्दर घुसने का विनम्र दुस्साहस करने की बात कही तो उसने मना कर दिया, वह सहमा हुआ सा था, जिसकी कुछ अपनी वजहे थी। किन्तु थोड़ी देर बाद वह इमारत से बाहर आया और अन्दर आने के लिए कहा, मेरे मन में बस कोठी की अन्दरूनी बनावट, पुराना एंग्लो-इंडियन फ़र्नीचर और कुछ अवशेष देखने भर की थी, खैर मैं इमारत के बाहरी कमरे में घुसा तो नजारा बिल्कुल अलग था, एक बांस की खाट (खटिया) पर लेटे एक बुजुर्ग रूग्ण और बुरे हालातों से लत-पत, कमरे कोई फ़र्नीचर नही और न ही बरतानिया हुकूमत के कोई शाही निशानात सिवाय गीली छत और बे-नूर हो चुकी दीवारो के, छतों में भी घास और वृक्षों की पतली जड़े सांपों की तरह घुमड़ी हुई दिखाई दे रही थी।


 एडिमिनिस्ट्रेटर जनरल  ने इसकी नीलामी कराई

उनसे मुलाकात हो जाने पर कुछ मैं खश हुआ चलो इनकी आंखो से इस इमारत के इतिहास को देखते है, ज्वाला सिंह जो कभी मिलीट्री वर्कशॉप बरेली में नौकरी कर चुके थे और अब रिटायर्ड होकर यही रहते थे अपनी पत्नी और बेटे के साथ, इनके पिता गम्भीर सिंह (डिस्ट्रिक एग्रीकल्चर आफ़ीसर) ने इस इमारत को सन 1966 में खरीदा,  भारत सरकार द्वारा जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम के तहत इस सम्पत्ति की नीलामी की और मात्र २९ हजार रुपयें में यह शाही इमारत और ३० एकड़ भूमि को क्रय कर दिया गया, और तबसे यह सम्पत्ति इनके परिवार के आधीन है। गम्भीर सिंह के तीन पुत्रों में सबसे छोटे ज्वाला सिंह इस जगह के मालिक है। ये पुणीर क्षत्रियों का परिवार मूलत: मुजफ़्फ़रनगर का है

तिब्बतियों ने भी शरण ली हर्षे के महल में-

ज्वाला सिंह के मुताबिक सन 1962 में चाइना-भारत युद्ध के समय तमाम तिब्बती प्रवासियों को इस इमारत में ठहराया गया और उसके बाद इसमें रेवन्यु आफ़िस खोला गया। नतीजतन इस किले का शानदार फ़र्नीचर और सामान या तो सरकारी मुलाजिम जब्त कर गये या तिब्बतियों ने- आज बस वीरान इमारत के सिवा यहां कुछ नही।  



इमारत के निर्माण वर्ष को ठीक से वे बता नही सके, और इमारत की प्राचीरों से कोई लिखित प्रमाण भी नही मिला, सिवाय ईंटों के, शुक्र है कि उस वक्त ईंट भट्टों में जिन ईंटों का निर्माण किया जाता था उनमें ईंस्वी सन या संवत का वर्ष पड़ा होता था, और इस वजह से ध्वंश अवशेषों के निर्माण-काल ज्ञात हो जाता है। किन्तु आजकल ईंट भठ्ठे वाले उल्टे सीधे नामों को छापते है ईंटों पर ! 

फ़ूस-बंग्ला-

ध्वंशाशेषों में कुएं की प्राचीर से मिली ईंटों पर सन 1884 की ईंटे प्राप्त हुई और दीवार की प्राचीरों से सन 1912 ई० की, यानि यह जगह सन 1884 के आस-पास आबाद की गयी। बताते हैं मौजूदा इमारत के पहले फ़ूस के बंगलों से आछांदित था यह बंगला, इस इमारत के मालिकों को भारतीय घास फ़ूस के वातानुकूलित व मजबूती के गुणों का शायद भान था और इसी लिए जिला मुख्यालय पर मौजूद इनकी कोठी भी फ़ूस से निर्मित थी- जिसे लोग फ़ूस -बंग्ला भी कहते आये। 


ज्वाला सिंह के मुताबिक इस इमारत और जमीन जायदात के मालिक जे० बी० हर्षे जमींदारी विनाश अधिनियम के पश्चात सम्पत्ति जब्त हो जाने के बाद मसूरी में रहने लगे थे और सन 1953 में  वही हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई।


योरोपियन वनस्पति?-



एक बात और और इन्सान जहा रहता है वहां के वातावरण को अपने मुताबिक ढालता है, और वही वजह रही कि इस जगह पर अभी भी योरोपियन वृक्ष, लताये मौजूद है । अपने गौरवशाली अतीत में यह इमारत बहुत ही खूबसूरत रही होगी और इस इमारत का एक गृह-गर्भ भी है, यानि जमीन के भीतर का हिस्सा जो रियासती दौर में खजाना रखने के काम आता था।



इमारत के चारो तरफ़ फ़ूली सरसों इसकी सुन्दरता को अभी भी स्वर्णिम आभा दे रही , आस-पास में बने सर्वेन्ट क्वार्टर्स, रसोई, कुआ इत्यादि, जिनमें तमाम अनजानी बेल, झाड़िया...1857, और कुछ रहस्य पोशीदा है, जिन्हे वक्त आने पर बताऊंगा.....!
मिलनिया-
एक नये शब्द की खोज भी हुई उस जगह पर अपने अन्वेशण के दौरान इमारत के पिछले हिस्से की तरफ़ मैं तस्वीरे ले रहा था तभी लकड़ियों का बोझ लिए एक महिला वहां से गुजरी, मै बात कर रहा था बहुत छोटे कमरे की जिस पर खपरैल बिछा था, उसने कहा कि यह मन्दिरथा जिसे योरोपियन मालिको ने नह बल्कि मौजूदा मालिकों ने बनवाया था और यहां पर एक मिलनिया लगवाई थी- पूछने पर पता चला गन्ना पेरने वाला कोल्हूं को उसने मिलनिया कहा था !  


मंजर वही है बस नाजिर और वक्त बदल गये-
...अब मैं लौट रहा था सूरज भी यहां से मेरे साथ-साथ चल दिया था, मै उस जाते हुए सूरज को कैमरे में कैद कर रहा था, यह सोचकर इसने अब तक मेरा साथ दिया, नजारों को रोशन किया और इसकी रोशनी ने तस्वीरे लेने में मदद की, यह भी गवाह बना मेरी मौजूदगी का, कृत्यज्ञता का भाव था उस कथित डूबते सूरज के लिए, मैं सोचने लगा कि कभी बरतानिया हु्कूमत में इस रियासत के हुक्मरान हर्षे परिवार के लोग बड़ी रूमानियत से सूरज के डूबने का नजारा देखते होगे और खुश होते होगे- कि ब्रिटिश राज का सूरज कभी नही डूबता.....और आजादी के बाद जब यह सूरज डूब रहा होगा तब भी उन गोरो ने अपने इस किले से बड़ी मायूसी और हार के भाव से उसे डूबते हुए देखा होगा, और आज ये आजाद भारत के ठाकुर साहब जो मौजूदा मालिक है अपने रूग्ण शरीर और विपरीत परिस्थिति के साथ इस सूरज के डबने के मंजर को देख रहे होगे, मंजर एक ही है पर मनोभाव जुदा-जुदा है...काल और परिस्थिति इन्सानी सोच में इतनी तब्दीली लाती है की चीजों के मायने बदल जाते है जहन से....

इति 


नोट- इस किले के रहस्य और इसके मालिकानों का तस्किरा कभी और...हां इतना बता दूं कि खीरी जनपद की इस इमारत में रहने वाले योरोपियन मालिकान बंकिमघम पैलेस से लेकर फ़्रान्स और अमेरिका में अपनी बुलन्द हैसियत के लिए जाने जाते रहे हैं।  
© कृष्ण कुमार मिश्र (सर्वाधिकार सुरक्षित)




कृष्ण कुमार मिश्र
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Monday, October 17, 2011

जब सूरज भी खिलखिला उठा !

एक बड़ा सा सरकारी सरोवर जो बनाया गया है एक प्राकृतिक विशाल तालाब में कई टुकड़ों में इसे बांट कर इसकी सरहदे तय कर दी गयी हैं, ताकि ठेकेदारों को उन टुकड़ों को बेचा जा सके, और जलीय जीवों का व्यापार हो सके, किन्तु प्रकृति अपना स्वरूप तलाश ही लेती है, उसे कितना भी बिगाड़ा जाए... उन टुकड़ों में कमल भी खिल आये है और कुमदनियां भी, सरहदों पर बेहया, और मदार के खूबसूरत पुष्प भी, जल में नारी और जल-कुम्भी भी फ़ूल रही है...और इन पुष्पों पर मड़रा रहे है सतरंगी जीव.... और इसी जगह पर यह सूरज भी खिलखिला उठा उस वक्त जब मैं इन खि्ली हुई ज़िन्दगियों की इस सुन्दरता को उतारने की कोशिश कर रहा था.

.कृष्ण कुमार मिश्र




सभी तस्वीरें सर्वाधिकार सुरक्षित
© कृष्ण कुमार मिश्र


Wednesday, July 27, 2011

अपनी धरती की इन राहों पर मेरे पद-चिन्ह


लखीमपुर टू मोहम्मदी:
काले बगुले की तलाश में एक यात्रा पर इस यात्रा पथ पर जो मिला जो कुछ महसूस हुआ और जो विगत स्मृतियां दोबारा मन को पल्लवित कर गयी उसका दस्तावेजीकरण करने का मन हुआ सो की-बोर्ड को उंगलियां अनियमित क्रम में उद्वेलित करने लगी....२५ जुलाई दिन का तीसरा पहर बादल कहंकशा में सूरज पर झीनी चादर डालते और फ़िर हट जाते,.... मैं चित्र-यन्त्र और मेरी बैलगाड़ी..हम तीनों तराई के इस जनपद की हरियाली के मध्य काली सड़क पर गतिमान थे, बारिश के बाद का ये मंजर जिसने प्रकृति को नहलाने में कोई कसर नही छोड़ी थी, मार्ग के दोनों तरफ़ धान के खेत और उन्हे सिंचित करते किसान...एक जगह शरीर ने पानी की दरकार की तो मन हैंडपंप की तलाश में झांकने लगा इधर-उधर, हाई-वे की तरह छोटी-बड़ी दुकानों पर महीनों पुराना बोतलबंद पानी तो मौजूद नही था इस डिस्ट्रिक्ट रोड पर, लेकिन जल्द ही एक खेत में पम्प-सेट आधा फ़िट की गोलाई में जमीन से सफ़ेद पानी निकालता हुआ दिखाई दिया..इस पानी पर पड़ती सूर्य-रश्मियां इसे नीला चमकदार बना रही थी। जल-धारा का जमीन से निकल कर सूर्य-रश्मियों के साथ संगम मन में पावन-नैसर्गिक भाव जगा रही थी...शायद जल के वेग और हवा, और सूरज की किरणों के साथ मेल-मिलाप जो जल के स्वरूप और रंग को विविध छटाओं में परिवर्तित करती हैं के कारण ही जल पवित्र और पूज्यनीय रहा सभ्यताओं में !..मामला नैसर्गिक सुन्दरता से जल के गतिमान होने, आक्सीजन (हवा) के मिश्रण  और उल्ट्रावायलेट किरणों के वायरस-बैक्टीरिया पर प्रभाव तक पहुंच रहा है... जल को सदैव स्वच्छ रखने में मदद करता है,... इस-लिए आगे बढ़ता हूं...

!...उस पम्प सेट के मालिक ने जो सिक्ख था ने मेरी खाली बोतल में जीवन की अहम बुनियादी जरूरत का सामान भर दिया..चमकदार नीला आसमानी द्रव..मैं कृत्यज्ञ था। कुछ आगे चलने पर एक बरतानियां हुकूमत के दौर की नहर मिली जिसके पुल को पार करते हुए मेरी नज़र ने नष्ट हो चुके जंगल के मध्य बसे उस गाँव को देखा जहाँ अभी भी खजूर के वृक्ष बे-हिसाब हैं, और हाँ उनमें पीले-पीले खजूरों की गहरें लटक रही हैं...यह खजूर के फ़लने का मौसम जो हैं, खजूर का जिक्र इस-लिए क्योंकि खजूर इन्सान की पुरानी रिहाइश को दर्शाते हैं।  तो वह गांव जिसे देखकर मेरी आंखों में गर्व का भाव और नसों में रक्त की प्रबलता बढ़ा दी थी..उसकी वजह थी कि मैंने इतिहास की किताब के पुराने पन्ने पलट रहा था...यहाँ कुछ कहने से पहले यह बात बाता देना जरूरी है, कि मैं अपने अतीत को गुलाबी चश्में से नही देखता, क्योंकि मैने आजतक कोई चश्मा पहना ही नही...अपनी वृत्ति और प्रकृति प्रदत्त उन नंगी आंखो से ही दुनिया देखने की चाहत पैबस्त है मेरे जहन में...और उसी नंगी आंख से नज़िर हुए मसलों को बयाँ कर रहा हूँ।

आजादी के खातिर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अन्तिम आहुति



इस गाँव का नाम है भीखमपुर, स्वतंत्रता आंन्दोलन में इसी गाँव क्रान्तिकारी पं० राजनरायन मिश्र को अंग्रेजों के खजाने को लूटने के इल्जाम में फ़ाँसी की सज़ा हुई, उन पर अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों के आरोप भी थे, ब्रिटिश-भारत में ट्रेन डकैती के आरोपी के नाम पर आज आजाद भारत में उसी स्थान पर एक रेलवे स्टेशन का निर्माण हुआ और जिसका नाम राजनरायनपुर रेलवे स्टेशन रखा गया है।
यहाँ यह बताना जरूरी है कि राजनरायन मिश्र को आजादी के इस संघर्ष में सन १९४७ में लखनऊ जेल में फ़ाँसी हुई, बरतानिया सरकार द्वारा दी जाने वाली यह आखिरी फ़ांसी की सजा थी। स्वतंत्रता संग्राम में किसी क्रान्तिकारी के प्राणों की यह आखिरी आहुति थी।

साठा धान
अपनी जमीन की क्रान्तिकारी पैदावार के गर्वीले भावों के साथ आगे बढा तो एक सरदार जी को धान की कटी फ़सल वाले खेत में आग लगाते देखा वो धान की कटी हुई जड़ों को जलाकर उस खेत में दोबारा धान की रोपाई करना चाहते थे, खेत को जलाने से सफ़ाई के साथ साथ उर्वरता और खर-पतवार नष्ट हो जाते है। लेकिन यहां गौर करने वाली बात है कि मार्च-अप्रैल में गर्मी के मौसम में साठा यानी साठ दिन में पकने वाली धान की प्रजाति की रोपाई करना अप्राकृतिक तो है ही साथ ही जमीन के जल-स्तर को काफ़ी नुकसान पहुंचाती है, तराई के जनपदों में साठा धान पैदा करने की अब होड़ सी है हर कोई एक ही मौसम में दो फ़सले ले लेना चाहता है। खैर किसान की स्थिति को ध्यान रखे तो प्राकृतिक दोहन की उसकी मजबूरी समझ आती है, कम से कम वह अपने खेतो की जमीन और उसके तले छुपे पानी का ही दोहन करता है, पर देश के बुर्जुआ तो इस धरती के बड़े बड़े प्राकृतिक स्रोतो को शोषित कर रहे है कागज की नोटों के बदले और हां ये लोग बहुत कुछ पाने की गुंजाइश मात्र से ही अपनी अस्मत इज्जत का शोषण करवाने से भी नही चूकते।

खेत के खरपतवार और धान की मुर्दा जड़ो से निकलता सत-रंगी धुआँ और धुएं में तर-बतर सरदार जी अपने धर्म-निष्ठा के साथ इस कार्य में व्यस्त, धुएं से घिरे हुए सरदार जी की पगड़ी और कटार साफ़ साफ़ चमक रही थी। वे अपने इन अस्त्र-वस्त्र को धारण करना नही भूले इस काम के वक्त भी, मुझे उनकी यह धर्म-निष्ठा प्रभावित कर गयी।
हाँ धुएं का हाल भी सुनते चलिए...जलने वाली चीज की तासीर के मुताबिक यह धुआं अपना रंग बदलता, खेत में मौजूद मुर्दा पौधो से निकलता धुआं, और जिन्दा पौधों के जलने से निकलते धुएं के रंग इतर-इतर थे। धुएं के रंग और उसके स्वरूप से उसके स्रोत के हालात का अन्दाजा लगाना आसान था। और इस रंगबिरंगे धुएं से घिरे सरदार जी जो पूरी तरह अपने काम में मशगूल थे, मेरी मौजूदगी के बावजूद, उनकी तन्मयता नें मुझे उनकी धुएं के साथ तस्वीरें लेना और सुन्दर बना रहा था।
यहां भी खेत में काम करने वाले सरदार जी के बड़े भाई ने चलते वक्त यह कह कर पानी की बोतल मेरी तरफ़ बढा रहे थे कि ठ्ण्डा पानी है.....यहां भी मैं कृतज्ञ हुआ।

काला बगुला


आगे चलते हुए जो दिखा उसे नज़रन्दाज करना पड़ा क्योंकि धरती का हमारा वाला हिस्सा सूरज से दूसरी तरफ़ तेजी से जा रहा था, और काला बगुले की तस्वीर अंधेरे में न लेने पाने का डर तेजी से मुझे मोहम्मदी के अलीनगर गांव की ओर चलने को मजबूर कर रहा था, चूंकि मेरे मित्र वाइल्ड लाइफ़ फ़ोटोग्राफ़र सतपाल सिंह जी मुझे सूचित कर चुके थे, कि काला बगुला उनके ही धान के खेत में मौजूद है, इस वक्त सो मेरी उत्कंठा और बढ गयी थी। यहां ये बताना जरूरी है, कि इस प्रजाति के (कैटल इग्रेट) काले बगुले का वर्णन किसी भी पक्षी विज्ञान के दस्तावेज में संभवता मौजूद नही है, और यह अपने आप में पक्षीविज्ञान के इतिहास में बड़ा व विचित्र मसला होगा। यहां गौर करने वाली बात यह है, कि यह काला बगुला दिन में एक बार सतपाल सिंह के खेतों में या उनके घर के नज़दीक जरूर दिखाई देता है, और सतपाल सिंह ने इसकी तमाम तस्वीरें भी खींची...एक फ़ोटोग्राफ़र और काले बगुले का यह रिस्ता बड़ा विस्मयकारी है!

धान के खेतों गहराई तक घुसते पैरों को सभांलते  हुए कुछ तस्वीरे ली इन जनाब की, काले बगुले से यह मेरा पहला साक्षात्कार था, पर उन्होंने अपने आप को  धान की पौध में छिपाने की बहुत कोशिश की, लगता था कि वे जनाब तस्वीरें खिंचवाते खिंचवाते थक गये थे, या सेलेब्रेटी होने का एहसास उन्हें ये नखरे दिखाने पर विवश कर रहा था।

अंधेरा हुआ काला बगुला भी लम्बी उड़ान भर गया इन खेतो से, और हम वापस आ गये सतपाल सिंह के फ़ार्म हाउस पर यहां इन्होंने पानी के साथ साथ समोसे व कोल्ड्र ड्रिंक भी पिलाई...स्प्राइट....इस यात्रा में मैं तीन सिक्खों से अनुग्रहीत हुआ....अन्तिम वाले से ज्यादा...क्योंकि उन्होंने स्प्राइट भी......!

ईश्वर का निर्माण


लौटते हुए रात के १२ बज रहे थे मोहम्मदी और गोला के मध्य साउथ खीरी के घने जंगलों के मध्य यह सड़क जिस पर कभी इतनी रात में इक्का-दुक्का वाहन ही गुजरते थे...आज सैकड़ों की तादाद में काँवरियें गाते बजाते शिव-नगरी गोला-गोकरनाथ की तरफ़ बढ रहे थे, ये जत्थे ५ से लेकर ५० की सख्यां में थे पूरी सड़क केशरिया हो चुकी थी, धर्म और भक्ति का यह भाव मनुष्य को मनुष्य बनाता है, मैं सोच रहा था ये लोग सैकड़ो मील की यात्रा पर है, मज़दूरी छोड़, अपने घर के दुख-तकलीफ़ों को छोड़ अपने परिजनों को छोड़कर नंगे पांव शिव भक्ति में तल्लीन इतनी लम्बी धर्म-यात्रा कैसे कर रहे है, और यदि इनके भावों ने इन्हे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है तो आज की भोर जब बहराइच से बढ़ रहे हज़ारों लोग, फ़रूखाबाद से आ रहे भक्त और बरेली-पीलीभीत से आ रहे लोगों की लाखों की तादाद इकट्ठा होगी शिव नगरी में तो हर हर महादेव ....पूरे वायुमण्दल को गुजांयमान कर जायेगा और इतनी जीव-आत्माओं की एकनिष्ठा शिव को निश्चित ही उत्पन्न कर देगी, उस स्थल पर जिसे ये पूजने जा रहे हैं, इनकी आत्मीय उर्जा और उनकी शिव भक्ति के भाव एक बड़े उर्जा पुंज को अवश्य दैदीप्तिमान करेंगे..और ईश्वर का यह एक रोमांचक निर्माण होगा...इन लाखों मानवों की उर्जा और भक्ति भाव से......ये शिव को उत्पन्न करने के लिए शिव का निर्माण करते भुए ही तो इस यात्रा में है।...भक्ति की इस शक्ति को देखते हुए कल्पना के घोड़े दौड़ाता हुआ ...धर्म की ताकत का एहसास करता हुआ ...और मानव के काल्पनिक और पवित्र निर्माण से अभिभूत होता हुआ मैं लखीमपुर की तरफ़ बढ़ चला।


कृष्ण कुमार मिश्र
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Friday, June 24, 2011

चन्द्रग्रहण- मेरी नज़र से...

चन्द्रग्रहण 15/16 जून 2011- 


लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश भारत


- कृष्ण कुमार मिश्र









Krishna Kumar Mishra
krishna.manhan@gmail.com