Wednesday, January 6, 2010

पद्म भूषण, पद्म श्री कुंवर बिली अर्जन सिंह



92 वर्ष की आयु में इस महात्मा ने नववर्ष 2010 के प्रथम दिवस को अपने प्राण त्याग दिये। मगर आज इनके जीवों व जंगलों के प्रति किये गये महान कार्य समाज को सुन्दर संदेश देते रहेंगे एक दिगन्तर की तरह।
भारतीय बाघों के व वनों के संरक्षण में आप ने जो मूल्य स्थापित किए वह इनकी विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकों के माध्यम से सारे संसार को प्रेरणा देगे। और बिली अर्जन सिंह हमेशा जिन्दा रहेंगे लोगों के ह्रदय में, जो प्रकृति से प्रेम करते है।

15 अगस्त सन 1917 को गोरखपुर में जन्में बिली  कपूरथला रियासत के राजकुमार थे। इनका बिली नाम इनकी बुआ राजकुमारी अमृत कौर ने रखा था जो महात्मा गांधी की सचिव व नेहरू सरकार में प्रथम महिला स्वास्थ्य मंत्री रही ,  आप की शिक्षा-दीक्षा ब्रिटिश-राज में हुई,  राज-परिवार व एक बड़े अफ़सर के पुत्र होने के कारण आप ने ऊंचे दर्जे का इल्म हासिल किया और ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती हो गये, द्वितीय विश-युद्ध के बाद इन्होंने खीरी के जंगलों को अपना बसेरा बनाना सुनश्चित कर लिया। पूर्व में इनकी रियासत की तमाम संपत्तियां खीरी व बहराइच में रही थी जिन्हे अंग्रेजों ने इनके पुरखों को रिवार्ड के तौर पर दी थी। चूंकि बलराम पुर रियासत में इनके पिता को बरतानिया हुकूमत ने कोर्ट-आफ़-वार्ड नियुक्त किया था, सो इनका बचपन बलरामपुर की रियासत में गुजरा। बलरामपुर के जंगलों में इनके शिकार के किस्से मशहूर रहे और 12 वर्ष की आयु में ही इन्होंने बाघ का शिकार किया।
एक बार बिली अपने पिता के साथ शिकार पर थे, मचान से ज्यों ही इनके पिता ने राइफ़ल से निशाना साधा तो एक के बाद एक........चार खूबसूरत तेन्दुएं दिखाई दे गये और इसी पल नियति ने  इनके पिता का ह्रदय परिवर्तन कर दिया। शायद इस बड़े व भयानक पशु-संहार के भय ने दया का प्रदुर्भाव कर दिया।

1960 में बिली की जीप के सामने एक तेन्दुआ गुजरा अंधेंरी रात में जीप-लाइट में उसकी सुन्दरता ने बिली का मन मोह लिया, ये प्रकृति की सुन्दरता थी जिसे अर्जन सिंह ने महसूस किया !! इसी वक्त उन्होंने शिकार को तिलांजली दे दी।
यू०पी० वाइल्ड-लाइफ़ बोर्ड व इंडियन वाइल्ड लाइफ़ बोर्ड के सद्स्य रहे बिली श्रीमती गांधी के निकट संबधियों में थे, इन्होने अपनी पुस्तक तारा- ए टाइग्रेस, श्रीमती इन्दिरा गांधी को समर्पित की है।
इन्दिरा जी  की वजह से ही टाइगर हावेन में बाघों व तेन्दुओं के पुनर्वासन का प्रयोग संभव हुआ। यह वह दौर था जब देश-विदेश के फ़िल्म-निर्माताओं में होड़ मची थी कि कौन बिली के इन अनूठे प्रयोगों पर अपनी बेहतरीन डाक्यूमेंटरी बना ले। भारत के किसी भी अभयारण्य की चर्चा इतनी नही थी जितनी बिली के इस प्राइवेट फ़ारेस्ट की थी जिसे सारी दुनिया टाइगर हावेन को जानती है।

खीरी में जंगलों के मध्य रहने का व खेती करने का निश्चय दुधवा नेशनल पार्क के अस्तित्व में आने का पहला कदम था। 1946 में अपने पिता के नाम पर जसवीर नगर फ़ार्म का स्थापित करना और फ़िर 1968 में टाइगर हावेन का, यह पहला संकेत था नियति का कि अब खीरी के यह वन अपना वजूद बरकरार रख सकेगे, नही तो आजाद भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थान्तरित किए गये शाखू के विशाल वन बेतहाशा काते जा रहे थे, जाहिर सी बात है हमने आजादी तो ले ली थी किन्तु हमारी निर्भरता प्राकृतिक संसाधनों पर ही थी और शायद आज भी है!
और इस बात को बिली हमेशा मझ से कहते रहे कि जो जंगल अंग्रेज हमें दे गये कम से कम उन्हे तो बचा ही लेना चाहिए। क्योंकि आजादी के बाद वनों के और खासतौर से शाखू के वनों का रीजनरेशन कराने में हम फ़िसड्डी रहे है वनस्पति गोरों के।


अर्जन सिंह हमेशा कहते रहे की फ़ारेस्ट डिपार्टमेन्ट से वाइल्ड-लाइफ़ को अलग कर अलग विभाग बनाया जाय, वाइल्ड-लाइफ़ डिपार्टमेन्ट! क्योंकि उस जमाने में फ़ारेस्ट डिपार्टमेन्ट जंगल बचाने के बजाए कटाने के प्रयास में अधिक था, सरकारे जंगलों का टिम्बर माफ़ियाओं के द्वारा इनका व्यवसायी करण कर रही थी। यदि यह अलग विभाग बना दिया जाय तो इसमें शामिल होने वाले लोग वन्य-जीवन की विशेषज्ञता हासिल करके आयेंगे।
जंगलों की टूटती श्रंखलाएं बिली के लिए चिन्ता का विषय रही, क्योंकि बाघों का दायरा बहुत लम्बा होता है और यदि जंगल सिकुड़ते गये तो बाघ भी कम होते जायेंगे! कभी आदमी के न रहने योग्य इस इलाके में "द कलेक्टिव फ़ार्म्स एंड फ़ारेस्ट लिमिटेड ने १०,००० हेक्टेयर जंगली भूमि का सफ़ाया कर दिया और लोग पाकिस्तान से आ आ कर बसने लगे, बाद में भुदान आंदोंलन में बसायें गये लोगों ने घास के मैदानों को गन्ने के खेतों में तब्दील कर दिया। और दुधवा जंगल का वन-टापू में तब्दील हो गया। जो बिली को सदैव परेशान करता रहा। आजादी के बाद जिस तरह इस जंगली क्षेत्र में लोगों ने रूख किया और वन-भूमि को कृषि भूमिं में तब्दील करते चले गये वही वजह अब बाघों और अन्य जीवों के अस्तित्व को मिटा रही है।
बाघों के लिए अधिक संरक्षित क्षेत्रों की उनकी ख्वाइस के कारण ही किशनपुर वन्य-जीव विहार का वजूद में आना हुआ जो अब दुधवा टाइगर रिजर्व का एक हिस्सा है।
जिम कार्बेट और एफ़० ड्ब्ल्यू० चैम्पियन से प्रभावित बिली अर्जन सिंह ने आठ पुस्तके लिखी जो उत्तर भारत की इस वन-श्रंखला का बेहतरीन लेखा-जोखा हैं।
भारत सरकार ने उन्हे १९७५ में पदम श्री, २००६ में पदम भूषण से सम्मनित किया। वैश्विक संस्था विश्व प्रकृति निधि ने उन्हे गोल्ड मैडल से सम्मानित किया। सन २००३ में सैंक्चुरी लाइफ़-टाइम अवार्ड से नवाज़ा गया।
सन २००५ में आप को नोबल पुरूस्कार की प्रतिष्ठा वाला पाल गेटी अवार्ड दिया गया जिसकी पुरुस्कार राशि एक करोड़ रुपये है। यह पुरूस्कार सन २००५ में दो लोगों को संयुक्त रूप में दिया गया था।
उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसी वर्ष सन २००७ में बिली अर्जन सिंह को यश भारती से सम्मानित किया।

इतने पुरस्कारों के मिलने पर जब भी मैने उन्हे शुभकामनायें दी, तो एक ही जवाब मिला के पुरस्कारों से क्या मेरी उम्र बढ़ जायेगी, कुछ करना है तो दुधवा और उनके बाघों के लिए करे ये लोग!
बाघ व तेन्दुओं के शावकों को ट्रेंड कर उन्हे उनके प्राकृतिक आवास यानी जंगल में सफ़लता पूर्वक पुनर्वासित करने का जो कार्य बिली अर्जन सिंह ने किया वह अद्वितीय है पूरे संसार में।
प्रिन्स, हैरिएट और जूलिएट  इनके तीन तेन्दुए थे जो जंगल में पूरी तरह पुनर्वासित हुए, बाद में इंग्लैड के चिड़ियाघर से लाई गयी बाघिन तारा भी दुधवा के वनों को अपना बसेरा बनाने में सफ़ल हुई। इसका नतीज़ा हैं तारा की पिढ़िया जो दुधवा के वनों में फ़ल-फ़ूल रही हैं।
कुछ लोगों ने बिली पर तारा के साइबेरियन या अन्य नस्लों का मिला-जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया "आनुवंशिक प्रदूषण" जबकि आनुवशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबध हानिकारक नही होता है बल्कि बेहतर होता हैं। यदि ऐसा होता तो कोई अंग्रेज किसी एशियायी देश में वैवाहिक संबध नही स्थापित करता और न ही एशियायी किसी अमेरिकी या अफ़्रीकी से। हमारी परंपरा में भी समगोत्रीय वैवाहिक संबध अमान्य है और विज्ञान की दृष्टि में भी, फ़िर कैसे साइबेरियन यानी रूस की नस्ल वाली इस बाघिन का भारत के बाघों से संबध आनुंवशिक प्रदूषण हैं।
हम इन-ब्रीडिगं के खतरों से बचने के लिए भिन्न-भिन्न समुदायों के जीवों के मध्य संबध स्थापित कराते है ताकि उनकी जीन-विविधिता बरकार रहे, और बिली ने यदि दुधवा के बाघों में यह विविधिता कायम की तो हम उन्हे धन्यवाद देने के बज़ाय विवादित बनाते रहे।
तारा की वशांवली निरन्तर प्रवाहित हो रही है  दुधवा के बाघों में इसे एक वैज्ञानिक संस्थान भी मान चुका है किन्तु अधिकारिक तौर पर इसे मानने में इंतजामियां डर रही है। आखिर सत्य को मानने में गुरेज़ क्यों! क्यों नही मान लेते दुधवा के जंगल में बाघ साइबेरियन-रायल बंगाल टाइगर की जीन-विविधिता के साथ इस नस्ल को और मजबूत बना रहे हैं। जिससे यह साबित होता है कि हमारे बाघों की नस्ल अब और बेहतर है। नही तो  सिकुड़ चुके जंगलों में ये बाघ आपस में ही संबध कायम करते...एक ही जीन पूल में.........और इन-ब्रीडिंग इनकी नस्ल को कमज़ोर बना देती। और तब होता आनुंवशिक प्रदूषण!

बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीज़ा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नही है। पर उनकी यादे है जो हमें प्रेरणा देती रहेगी।

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-भारत

6 comments:

Arvind Mishra said...

जीन शुद्धता के लिहाज से एक स्थानिक जीन रिजर्व तो होना ही चाहिए -बाकी तो अन्तःप्रजनंन के लिहाजा से वह प्रयोग ठीक था -दर यह था की अगर पूरा जनन द्रव्य प्रदूषित हुआ तो आवश्यकता पड़ने पर शुद्ध जनन द्रव्य की रिकवरी कहाँ से होगी ? कभी कभी हाइब्रिड प्रजातिओं में भयंकर बीमारियों से पूरा का पूरा स्टाक समाप्त हो जाता है !

Anonymous said...

अर्जन सिंह से संबंधित जानकारी में इजाफ़ा हुया
आभार

अर्जन सिंह जी को विनम्र श्रद्धांजलि

बी एस पाबला

Himanshu Pandey said...

विनम्र श्रद्धांजलि !

अनुनाद सिंह said...

अच्छी जानकारी। आपके इस पोस्ट की लिंक हिन्दी विकि के 'बिली अर्जन सिंह' नामक लेख पर दे रहा हूँ।

KK Mishra of Manhan said...

श्रीमान, जहां तक मुझे ज्ञान है, तो मेंडल का ला आफ़ सेगरेशन जीव द्रव्य
को हमेशा शुद्ध कर देता है, फ़िर कभी रूस के साइबेरिआ से उतर कर जिस बाघ
ने भारतीय उपमहाद्वीप में शरण ली हो उसी के साथ क्रास कराने में कैसा
प्रदूषण। रूसी और हिन्दुस्तानी मानव यदि विवाह कर ले तो क्या आनुवंशिक
प्रदूषण हो जायेगा। रेसेज को उपजातियां नही कह सकते, और उपजातियों में
क्रास कराना उचित नही है। बाघ की आठ रेसेज थी जिनमें अब कुछ ही बची। क्या
चाइनीज टाइगर और भारतीय बाघ का आपस में क्रास होकर इंडों-चाइनीज बाघ
प्रजाति नही बनी प्रकृति में स्वत: क्या ये प्रदूषण है।

Dharmendra khandal said...

hi great write up but your own genetics theory will not work. Arjan singhji influenced many politicians and turned them towards conservation. it is his big contribution in tiger conservation. but introduction of Tara in the wild is a debatable issue. i don't know it is right or wrong but we should prove it with good science and evidences....your own theories are not only harming your credibility but it will also weaken Billy's experimentation.....dharmkhandal@gmail.com