Sunday, September 27, 2009

देनें का मज़ा लेनें से बहुत ज्यादा है!

Joy of Giving Week (27 September to 3rd October 2009)


परहित सरस धरम नहि भाई,

२७ सितम्बर यह तारीख है कुछ खास, इस रोज़ से शुरुआत हो रही है एक खास एहसास की जो आप के मन को वह अनुभूति प्रदान कर सकता है जिसे आप लाखों या फ़िर करोणों में नही तौल सकते,  भारत वर्ष में "ज्वाय आफ़ गिविगं वीक" के तौर पर मनाया जायेगा। और इस पूरे सप्ताह यानी २७ से ३ अक्तूबर २००९ तक समाज के हर वर्ग के व्यक्ति को अपने भीतर मौजूद वस्तविक सुख को जगाने का मौका देने की एक कोशिश !!


यह अपने तरह का भारत में पहला प्रयास है जिसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप देने की अथक कोशिश की जायेगी ताकि देश के प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह बच्चे हो, महिला, बुजुर्ग, अमीर, गरीब सभी को इसमे शामिल किया जाना हैं खैर ये तो सरकारी प्रयास की बात है पर इस विचार को समाज के मध्य लाने वाले व्यक्ति को धन्यवाद! क्योकि हम सब कुछ महसूस करने के बावजूद चीजों को अनदेखा करते है और अपने बेहतरीन मानवीय एहसासात को दबाने और कुचल देने का भरशक प्रयास हम सब में जेनेटिक तौर पर वह सब होता है जो एक उम्दा इंसान के अंदर फ़र्क इतना है हम सोच कर भी कार्यों को अंजाम नही देते शायद ये कुछ देने वाले एहसासातों को जगाने वाला सप्ताह ही दम-तोड़ती मानवता को बचा लेने में सफ़ल हो जाये यदि हम अनुसरण करे इस बात का जिसे हमारी संस्कृति सदियों से हमे बताती आयी है !
सर विंस्टन चर्चिल की एक बात यहां बड़ा इत्तफ़ाक रखती है उन्होने कुछ ऐसा कहा था " हम ऐसे बनते जा रहे है जहां सिर्फ़ पाने की लालसा है बल्कि हमें ऐसा बनना चाहिये कि हम दे क्या सकते है ।" क्यों कि देने का सुख प्राप्त करने के सुख से बड़ा है और गौरतलब ये कि आप तभी किसी को कुछ दे सकते है जब आप ह्रदय से देने के लायक हो आप का गार्जियन माइंड सजग व उच्च हो आप के संस्कार पवित्र व नेक हो यानी आप एक इंसान हो ? तभी ये संभव है अन्यथा नही ।
एक व्यक्ति की बात मेरे मन को बहुत आंदोलित कर गयी वह नाम है "पीटर ड्रकर" इन्होने ने कुछ ऐसा कहा है कि जब आप सुबह उठ कर आईने के सामने अपने आप को देख रहे हो तो सोचे कि हम एक ऐसे नागरिक बने जो अपने आस -पास की चीजों के प्रति जिम्मेदार व परोपकार की भावना से सेवा करे ! यह भी भारत की संस्कृति ने हमे न जाने कब से सिखाया कि "परोपकार से बड़ा कोई धर्म नही" पर शायद हम कभी नही समझे और यदि समझे होते तो यह सप्ताह मनाने की आवश्यक्ता ही क्यों पड़ती ?
खैर इस सप्ताह के संबध में महात्मा गांधी के साथ घटी एक घटना का सीधा संबध जोड़ा गया है जो निश्चित रूप से इस आंदोलन को उर्जा प्रदान करेगा ।
एक बार महात्मा उड़ीसा में किसी स्थान पर अपने चरखा मिशन के लिये धन इकट्ठा करने के लिये सभा को सम्बोधित कर रहे थे तमाम लोगों ने इस नेक काम में उन्हे दान स्वरुप धन राशियां दी इस फ़ंड के कर्ताधर्ता जमना लाल बजाज थे, संबोधन के उपरान्त एक गरीब व बूढ़ी महिला भीड़ से गुजरती हुई महात्मा के करीब आने की कोशिश कर रही थी लोगों ने उसे रोकने की नाकामयाब कोशिश शुरू -ए- की किन्तु वह महात्मा के पास पहुंच गयी और अपनी मैली साड़ी के पल्लू से एक तांबे का सिक्क निकालकर महात्मा की तरफ़ बड़ा दिया महात्मा ने सह्र्ष उसे ग्रहण करते हुये रख लिया इस बात पर जमना लाल बजाज ने हंसते हुये कहा बापू हम हज़ारों रूपये के चेक के मध्य इस तांबे के सिक्के का क्या करेगे तो बापू का जवाब था की तुम्हे इस रुपये के साथ साथ मुझ पर भी विस्वास नही है क्या यह मेरे लिये लाखों-करोणों से भी अधिक है और उससे भी अधिक है इस महिला के जज्बात जिसे नमन है! क्यो कि यदि किसी के पास लाखों है और वह उसमे से कुछ हज़ार मुझे दे देता है तो वह उतना मह्त्व पूर्ण नही है जितना यह सिक्का क्योंकि यह सिक्का इस महिला का सबकुछ है जिसे वह हमें दे रही है ।

यहां देने का मतलब ये नही है की आप दान देकर फ़ुरसत पा ले आप जरूरत मंद को स्नेह और विनम्रता से सहयोग करके देखे अवश्य आप का मन पल्लवित हो उठेगा

एक अति प्रासंगिक घटना:-
मुझे यहां पर अपने पिता जी की एक बात याद आती है जो उन्होने मुझे मेरे बचपन मे बताई थी  " जब बापू भारत की यात्रायें कर रहे थे गांव-गांव, शहर, खेत-खलिहान तो उन्होने एक जगह एक महिला को नदी में स्नान करते देखा, यह महिला नहाने के बाद अपनी आधी धोती (साड़ी ) से तन ढकती और आधी सुखाती और फ़िर सूखा हुआ भाग तन पर लपेट कर बचा हुआ भाग सुखाती, बापू की आत्मा को  इस दृश्य ने झकझोर दिया और उन्हो ने जाकर उस महिला को अपनी आधी खद्दर की धोती फ़ाड़ कर दे दी और शपथ ली कि मै अपना आधा तन तब तक नही ढकूगा जब तक इस देश के हर व्यक्ति के पास तन ढकने के लिये कपड़ा नही हो जाता और शायद यही से उनके चरखा मिशन की शुरूवात हुई उस महान आत्मा का प्रण जिसने दुनिया को सिखा दिया देने का सुख और वह चरखा जो हथियार बना अहिंसा का जिसकी बदौलत उस सल्तनत का सूरज दूब गया जो कभी नही डूबता था ।  शायद आप को भी "देने का सुख" कोई मिशन दे जाय और आप भी मानवता की राह मे कुछ ऐसा कर दे जो सदियों तक लोगों को लाभन्वित करता रहे । पिता जी ने जब मुझे ये वृतान्त सुनाया था तब शायद मेरा बालपन इसे पूरी तरह न समझ पाया हो पर आज जब मै यह वाकया लिख रहा हूं तो मेरा रोने का मन हो रहा है । क्योंकि हम उस मुल्क में रह्ते है जिसका आज़ादी के बाद अनियोजित विकास हुआ करोड़पति करोड़पति होते गये और गरीब गरीब, आदमी ने जो जहां चाहा पैसे और भ्रष्टाचार की बदौलत किया, चाहे वह वन्य जन्तुओं के घरों में घुस कर उनके आवास नष्ट करने का मसला हो या गरीब की झोपड़ी उजाड़ कर महल बनाने की प्रक्रिया..........................आदम इस धरती के प्राणियों को देना भूल ही गया बस छीनता चला गया, महाकवि तुलसी दास की एक चौपाई का एक टुकड़ा याद आता है "कि समरथ को नहि दोष गोसाई"


अब तो हमारे लोगों की आदत सी हो गयी है कुछ इस तरह ..................


न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

 हां अन्त में,  भाई अब खाली लेने देने से काम नही चलेगा कुछ बदलना होगा ?


कृष्ण कुमार मिश्र
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