Sunday, January 25, 2009

अवधी सम्राट पं बंशीधर शुक्ल

समाज वादी प्रकृति वादी व् देश प्रेमी कवि पं बंशीधर शुक्ल
कभी काव्य की बेह्तरीन भाषा रही अवधी अब मानो विलुप्ती के कगार पर है ऐसे में पं बंशीधर शुक्ल और प्रासंगिक हो जाते है हालांकि महाकवि तुलसीदास की रामचरित मानस युगों युगों तक इस भाषा को जीवित रखने में अकेले सक्षम है किन्तु आम जनमानस में इसका प्रचलन व वर्तमान परिस्थितियों पर लेखन लगभग समाप्त ही हो चुका है और खास बात ये कि अवधी क्षेत्र के वासी अपनी भाषा के प्रति कतई जागरुक नही है यहां पर मै आप सभी को बताना चाहूंगा कि बंशीधर शुक्ल ने अपना साहित्यिक सफ़र सन १९२५ से शुरु किया और इस लम्बे सफ़र का अन्त उनकी अंतिम सांस पर (१९८०) खत्म हुआ इस दौरान उन्होने साहित्य सेवा के साथ साथ अपनी कविताओं को देश प्रेम से सुसज्जित कर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दिया पं बंशीधर शुक्ल ने आज़ादी के उपरांत अपनी प्रिय राजनैतिक पार्टी कांग्रेस को अलविदा कह समाज़वादी विचारधारा से जुड गये और प्रजा सोसलिस्ट पार्टी से एम०एल०ए० चुने गये इस दौरान आप ने कांग्रेस शाही के खिलाफ़ खुब लिखा आप का मत था कि कांग्रेस अब वह पार्टी नही रही जिसने भारत को आजादी दिलायी और कांग्रेस अब शासक के रूप में आम आदमी को नज़रंदाज़ कर रही है और इसमें भ्रस्टाचार व्याप्त हो चुका है किंतु शुक्ल जी का राजिनीतिक सफ़र कांग्रेस से ही शुरु हुआ था पर पार्टी के सत्ता में आ जाने के बाद इनका कांग्रेस से मोहभंग हुआ अंततः आप ने जननायक जय प्रकाश नरायन के नेत्रत्व में आम आदमी की लडायी लडना शुरु किया!
आप की दो रचनायें हिन्दोस्तान के जनमानस में खूब प्रचारित हुई जिसमें एक रचना नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्च गीत बनी तो दूसरी बापू के सबरमती आश्रम की प्रातः काल की प्रार्थना ।

आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्च गीत
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पर लुटाये जा
उडी तमिस्र रात है , जगा नया प्रभात है,
चली नयी जमात है, मानो कोइ बरात है,
समय है मुस्कराये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पर लुटाये जा।
जो आ पडे कोइ विपत्ति मार के भगाये गे,
जो आये मौत सामने तो दांत तोड लायेंगे,
बहार की बहार में,
बहार ही लुटाये जा।
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा,
जहाम तलक न लक्ष्य पूर्ण हो समर करेगे हम,
खडा हो शत्रु सामने तो शीश पै चडेगे हम,
विजय हमारे हाथ है
विजय ध्वजा उडाये जा
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा
कदम बढे तो बढ चले आकाश तक चढेंगे हम
लडे है लड रहे है तो जहान से लडेगे हम,
बडी लडाईया है तो
बडा कदम बडाये जा
खुसी के गीत गाये जा
निगाह चौमुखी रहे विचार लक्ष्य पर रहे
जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ़ नज़र रहे
स्वतंत्रता का युद्ध है
स्वतंत्र होके गाये जा
कदम कदम बढाये जा
खुशी के गीत गाये जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पर लुटाये जा।

साबरमती आश्रम का प्रार्थना गीत

उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है
जो सोवत है सो खोवत है
जो जागत है सो पावत है
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है

टुक नींद से अंखियां खोल जरा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीति करन की रीति नही
जग जागत है तू सोवत है

तू जाग जगत की देख उडन,
जग जागा तेरे बंद नयन
यह जन जाग्रति की बेला है
तू नींद की गठरी ढोवत है

लडना वीरों का पेशा है
इसमे कुछ भी न अंदेशा है
तू किस गफ़लत में पडा पडा
आलस में जीवन खोवत है

है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा
उसमें अब देर लगा न जरा
जब सारी दुनियां जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है

इस गीत से मेरा परिचय बहुत पुराना है क्यो कि जब मै बहुत छोटा था तो मेरे पिता जी मुझे येह गीत गवाते थे और कहां करते थे ये पं बंशीधर शुक्ल जी का है और रेडियो पर भी ये गीत उन दिनों सुबह सुबह प्रसारित होता था

मेरे पिता श्री रमेश चंद्र मिश्र ने शुक्ल जी के कई संस्मरण सुनाये जिनमे मुझे एक आज़ भी बहुत प्रभावित करता है पिता जी बताते थे कि शुक्ल जी जब विधायक थे तो उन्हे उनके क्षेत्र में गरीब जनता को कंबल आदि वितरित करने के लिये दिये जाते थे पंडित जी लखनऊ से रेल द्वारा यह सामग्री लेकर चलते और रास्ते भर में जो भी गरीब जन मिलते वो कंबल उन्हे दे देते और लखीमपुर आते आते उनके पास कुछ नही बचता जिसे वह अपने क्षेत्रवासियों मे बांटते यहां तक कि जो उनका अपना वस्त्र भी गरीबों मे बांट देते।
प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी को शुक्ल जी के गांव मन्योरा जिला लखीमपुर खेरी उत्तर प्रदेश में शुक्ल जी की जयंती मनायी जाती है इस अवसर पर साहित्यकार, नेता और प्रशासक सभी उपस्थित होते है कभी शुक्ल जी के जीवनकाल के आयोजनों मे उनके गांव अमृतलाल नागर जैसे महान व्यक्तित्व अपनी उपस्थित देते थे
खीरी जिले के वरिष्ठ पत्रकार व सुभाषवादी श्री विद्यासागर जी जो शुक्ल जी के काफ़ी नजदीक लोगों में से थे बतते है कि शुक्ल जी मुझ से कहां करते थे कि मेरे जिंदा रहने तक मेरी उपियोगिता किसी को नज़र नही आती पर जब मै मर जाऊ गां तो लोग समाज और सरकार सब में बडा उपियोगी हो जाउगां ......................शायद वोह सही ही कहते थे दुनिया कि यही रीति है॥!!!

अंत में मुझे जिस चीज़ ने शुक्ल जी के साहित्य का काय;ल बना दिया उसका जिक्र करता हूं शुक्ल जी की रचनायें देश प्रेम किसान की व्यथा गावं की माटी और समाज की मौजूदा समस्याओं का प्रतिनिधित्व तो करती ही है पर सबसे अधिक निरीह जीव जंतुओं, के प्रति लिखी गयी रचनायें उनके प्रकृति प्रेमी होने का प्रमाण देती है पक्षियों नीलगाय, वृक्ष, नदियां व मादा गिद्ध के सती यानी अपने साथी की मृत्यु के उपरांत शोक में देह त्याग देने का जो भाव पूर्ण वर्णन किया है वह किसी के भी मन को द्रवित कर देगा जंगल व जंगल के जीवों के बारे मे शुक्ल जी ने जो कुछ लिखा है वह एक पृकतिवादी के ही विचार हो सकते है उनकी इन रचनाओं को कनमानस के मध्य प्रसारित होना चाहिये जिससे भौतिक वादी अपने वस्तविक पथ से भटका हुआ स्वार्थ लोलुप मनुष्य प्रकृति की ओर सन्मुख हो सके।

कृष्ण कुमार मिश्र
लखीमपुर खेरी
९४५१९२५९९७