Friday, October 23, 2009

अपने गांव में दीपों का त्योहार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

१७ तारीख यानी दीपावली भारत भूमि का एक महत्व पूर्ण त्योहार,  इस बार अम्मा ने तय किया कि यह त्योहार हम अपने गांव मैनहन में मनायेगे, वजह साफ़ थी कि पूर्वजों की धरती पर उनके अशीर्वाद और प्रेम का एहसास महसूस करने की फ़िर वह घर जिसमें न जाने मेरी कितनी पीढ़ियां पली - बढ़ी, वह धरती जहां मेरे बाबा और पिता ने जन्म लिया मेरी दादी और मां की कर्म-भूमि और इन सभी प्रियजनों का जीवन सघर्ष......................................
दिवाली के रोज़ हम दोपहर बाद गांव के लिये चले, पूरे रास्ते भर मैं रंग-बिरंगे कपड़ों में सुस्सजित नर-नारियों के मुस्कराते हुए चेहरे पढ़ता गया जो यह बता रहे थे कि अपने गांव-गेरावं में त्योंहार मनाने का सुख क्या होता है । हर किसी को जल्दी थी अपने-अपने गांव (घर) पहुंचने की।
दिन रहते हम अपनी पितृ-भूमि पर थे वहां के हर नुक्कड़ पर सभायें लगी हुई थी कही खि्लधड़े किशोरों की जो युवा होनें की दहलीज़ पर थे वो मुझे देखते तो चुप हो जाते आगे बढ़ते चरण छूते और फ़िर गुमसुम से मै भांप जाता जरूर ये कोई "वही वाले" काल्पनिक शगूफ़ों में मस्त होगे , चलो अब आगे बढा जाय ......तो कही पर बुजर्ग जो रामयण-भागवत आदि की बाते कर रहे थे तो कही आने वाले सभापति(प्रधान) के चुनाओं की गोटियां बिछाई जा रही थी,
बच्चे शाम होने का इन्तजार कर रहे थे कि कब पटाखे दगाने का मौका जल्दी से मिले
और शायद कु्छ लोग अपनी तंगहाली और बेबसी -गरीबी----------पर परदा ढ़ाकने की कोशिश क्योकि ये त्योहार उन लोगों के लिये बड़ी मुश्किलात पैदा करते है जिनके हको़ को अमीरों ने दबा रखा है उन सभी को अपनी इच्छाओं का दमन अवश्य करना पड़ता है ----------और ये बेबसी कैसा दर्द देती है इसका मुझे भी एहसास है।इस परिप्रेक्ष में अवधी ्सम्राट पं० वंशीधर शुक्ल ने एक बेह्तरीन कविता लिखी है "गरीब की होली" जो हकीकत बयां करती है हमारे समाज की उस रचना को पचास वर्ष हो रहे है पर भारत में गरीब की दशा मे इजाफ़ा ही हुआ है बजाए..........

"शायद त्योहार बनाने वालों ने इन सभी के बारे मे नही सोचा होगा या फ़िर सोचा होगा तो जरूर कोइ इन्तजामात होते होगे जो सभी में समानता का बोध कराते हो कम से कम इन पर्वों के दिन"
खैर मै गांव का एक चक्कर लगा कर घर पहुंचा तो मेरे सहयोगी व सबंधी मौजूद थे मैने मोमबत्तियां व धूपबत्तिया सुलगाना - जलाना शुरू ए कर दिया घर के प्रत्येक आरे(आला) मे रोशनी व खुशबू का इन्तजाम तमाम अरसे बाद मै अपने इस घर में दाखिल हुआ था घर की देखभाल करने वाले आदमी ने सफ़ाई तो कर रखी थी पर घर बन्द रहने की वजह से उसे रूहानी खुशबू की जरूरत थी जिसे मैने महादेव की पूजा करने के पश्चात पूरे घर मे बिखेर दिया।
मेरे घर के मुख्य द्वार पर मेरे परदादा पं० राम लाल मिश्र जो कनकूत के ओहदे पर थे रियासत महमूदाबाद में ने नक्कशी दार तिशाहा दरवाजा लगवाया था जो आज भी जस का तस है सैकड़ो वर्ष बाद भी और इसी दरवाजे के किनारों पर दस आले और उनमे जगमगाती मोमबत्तियां व मिट्टी के दीपक और साथ में केवड़ा की सुगन्ध वाली धूप, और यही हाल पूरे घर मे था ये सब रचनात्मकता तो आदम जाति ने की थी पर अब हर लौ में खुदा का नूर झलक रहा था
एक बात और आरे या आला घर की दीवालॊ मे त्रिभुज के आकार वाला स्थान जिसका प्रयोग दीपक रखने व छोटी वस्तुयें रखने के लिये प्रयोग किया जाता है और इसका वैग्यानिक राज मुझे तब मालूम हुआ जब तेज हवा के झोकों में मेरे आले वल्ले दीपक जगमगा रहे थे बिना बुझे ।
अपने सभी लोगो का अशिर्वाद और स्नेह का भागीदार बनने के बाद मै अपने शहर वाले घर को आने के लिये तैयार हुआ पर गांव और यहां के लोगों का जिन्होने अपना कीमती समय मुझे दिया और मेरे घर में उन सब की चरणरज
आई मै अनुग्रहीत हुआ ।
तकरीबन रात के १०:३० बजे मै और मेरी मां अपनी कार से रवाना हुए अपने दूसरे घर के लिये अब तलक गांव के दीपक बुझ चुके थे लोग गहरी नींद में थे उनके लिये ये त्योहर अब समाप्त हो चला था बस चहल -पहल के नाम पर लोगों की जो उपस्थित मेरे घर में थी वही इस पर्व को इस गांव से विदा होते देख और सुन रही थी गुप अंधेरे और गहरी नींद में सोये लोगों की गड़्गड़ाहट में !!!
मैने अपने पुरखों और ग्राम देवता को प्रणाम कर प्रस्थान किया सुनसन सड़क चारो तरफ़ खेत और वृक्षों के झुरुमुट कभी कभी सड़क पर करते हुए रात्रिचर पक्षी, सियार गांव के गांव नींद में थे अगली सुबह के इन्त्जार में !!
राजा लोने सिंह मार्ग पर  एक जगह मुझे कुछ दिखाई पड़ा कार धीमी की तो कोई सियार जिसे किसी मनुष्य ने अपने वाहन से कुचला था ये अभी शावक ही था........सियार अब खीरी जैसे वन्य क्षेत्र वाले स्थानों से भी गायब हो रहा है ऐसे में मुझे यह सड़क हादसा बहुत ही नागवांर लगा, किन्तु इससे भी ज्यादा बुरा तब लगा जब मै तीन दिन बाद यहां से फ़िर गुजरा तो यह सियार वैसे ही सड़क पर पड़ा सड़ रहा था इसका मतलब कि अब मेरी इस खीरी की धरती पर  गिद्ध की बात छोड़िये कौआ भी नही हैं जो इसे अपना भोजन बनाते और रास्ते को साफ़ कर देते कम से कम इस जगह पर तो दोनों प्रजातियों का ना होना ही दर्शाता है यह.............................
लोगों को यह नही भूलना चाहिये की इस धरती पर उन सभी जीवों का हक है जो हमारे साथ रहते आयें है सदियों से और हमसे भी पहले से .........और जिस सड़क पर हम गुजरते वहां से दबते - सकुचाते हुए बेचारे ये जीव भी अपना रास्ता अख्तियार करते है हमे उन्हे निकल जाने का मौका दे देना चाहिये !!!
महादेव की इस धरती पर मनुष्य क्या होता जा रहा है ...........इन्ही शब्दों के साथ आप सभी को दीपावली की शुभका्मनायें !
मैने अपने दूसरे शहर वाले घर पहुच कर ईश्वर की आराधना की और दीप जलाये और फ़िर दोस्तो के साथ दिवाली की पवित्र व शुभ रात्रि में शहर में अपने लोगों से मिलता और घूमता रहा !


कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-२६२७२७
भारत
सेलुलर-९४५१९२५९९७

2 comments:

Asha Joglekar said...

आपने गांव में दीवाली मना कर वहाँ के लोगों को खुशी के दो पल दे दिये बडा अच्छा लगा ।

RAJNISH PARIHAR said...

कुछ भी कहिये गाँव की दिवाली में जो मज़ा है वो शहर में कहाँ?