Friday, May 11, 2007

ग़दर क्रान्ति सैनिक विद्रोह स्वन्तान्त्रता संग्राम या फिर अपने अपने स्वार्थ

मेरा इतिहास से प्रेम है और मैंने ग़दर को पड़ा इसे बुजर्गो कि आँखों से देखा और उनकी जुबानी सुना यहाँ तक कि कुछ एक बुजर्गों से जब मैं इस बाबत बातचीत करने के वास्ते मिला तो उनके चहरे पर उस अजीब सी १८५७ कि त्रासदी या हमारे जनमानस के जीवन को उथल पुथल कर देने वाली दास्ताँ ए बयाँ से मेरे ह्रदय में अजीब सी उलझन और मस्तिष्क कि निष्कर्ष लेने कि सारी छमताये जाती रहीं वजह थी उन अतीत के पन्नों से भी कुछ बमुश्किल वह निकाल कर ला प रहे थे वह भौत कुछ उलझा हुआ था और यह उलझन उनके चेहारो पर साफ झलकता था! खैर मैंने जो भी गज़ेतिएर्स व विलियम स्लीमन के यात्रा व्र्तान्तों व पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेहतरीन किताबों ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड history, डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, an औदतोबिओग्रफी में उनके विचार परे उन सब मालूमात का लेखा जोखा जिसने १८५७ को मेरे मानस पटल पर कुछ और ही चित्रांकित कर दिया और वह मैं आप सब को बडे इत्मिनान से सुनना चाहता हूँ